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वसतिकातिचार
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वस्तुत्व
हवा और कड़ी धूप बगेरह उपद्रव इस बसतिकामे है" ऐसी निन्दा करते हुए वसतिकामें रहना धूमदोष है। १० "यह वसतिका वात रहित है", विशाल है, अधिक उष्ण है और अच्छी है, ऐसा समझकर उसके ऊपर राग भाव करना यह इंगाल नामका दोष है। 6. अन्य सम्बन्धित विषय १. वीतरागियोंके लिए स्थानका कोई नियम नहीं।
-दे. कृतिकर्म/३/१/४। २. विविक्त वसतिकाका महत्व । -दे. विविक्त शय्यासन । ३ वसतिकामें प्रवेश आदिके समय नि.सही और असही शब्दका प्रयोग।
-दे. असही। ४. अनियत स्थानोंमें निवास तथा इसका कारण प्रयोजन ।
-दे विहार। ५. एक स्थानपर टिकनेकी सीमा।
-दे. विहार। ६. पंचमकालमें संघसे बाहर रहनेका निषेध। -दे. विहार। ७. वसतिकाके अतिचार ।
-दे, अतिचार/३।
वसतिकातिचार-दे० अतिचार/३। वसा-औदारिक शरीरमें बसा धातुका प्रमाण-दे० औदारिक/१ । वसुंधर-म. पु/६६/श्लोक स.-ऐरावतक्षेत्रके श्रीपुर नगरका राजा
था ७४४ स्त्रीको मृत्युसे विरक्त हो दीक्षा धार महाशक स्वर्ग में उत्पन्न हुआ।७५-७७। यह जयसेन चक्रवर्तीके पूर्वका तीसरा भव है।-दे० जयसेन ।
-रुचक पर्वत निवासिनी एक दिक्कुमारी देवी। -दे० लोक/५/१३ । वसु-१. लौकान्तिक देवीका एक भेद-दे० लौकान्तिक । २ एक
अज्ञानवादी-दे० अज्ञानवाद। ३ प. पु./११/ श्लोक स.-इक्ष्वाकु कुलके राजा ययाति का पुत्र ११३। क्षीरकदम्ब गुरुका शिष्य था ।१४। सत्यवादी होते हुए भी गुरुमाताके कहनेसे उसके पुत्र पर्वतके पक्षको पुष्ट करनेके लिए, 'अजेजष्टव्यम्' शब्द का अर्थ तिसाला जो न करके 'बकरेसे यज्ञ करना चाहिए' ऐसा कर दिया।२। फलस्वरूप सातवे नरकमे गया ।७३ (म, पु/६७/२५६-२८१, ४१३४३१)।४ चन्देरीका राजा था। महाभारतसे पूर्ववर्ती है। "इन्होने इन्द्र व पर्वत दोनोका इकट्ठे ही हव्य ग्रहण किया था" ऐसा कथन
आता है। समय-ई० पू० २००० ( ऋग्वेद मण्डल सूक्त ५३ ) । वसुदेव-ह. पु |सर्ग/श्लोक-अन्धक वृष्णि का पुत्र समुद्र विजयका भाई। ( १८/१२ ) । बहुत अधिक सुन्दर था। स्त्रियाँ सहसा ही उसपर मोहित हो जाती थी। इसलिए देशसे बाहर भेज दिये गये जहाँ अनेक कन्याओसे विवाह हुआ । ( सर्ग १६-३१) अनेक वर्षों पश्चात् भाईसे मिलन हुआ । ( सर्ग ३२ ) कृष्णकी उत्पत्ति हुई। ( ३५।१६) तथा अन्य भी अनेक पुत्र हुए। (४८/५४-६९)। द्वारका जलनेपर
संन्यासधारण कर स्वर्ग सिधारे। (६१/८७-११)। वसुधा- स, स्तो/टी./३/७ वसु द्रव्यं दधातीति वसुधा पृथिवी।
- वसु अर्थात् द्रव्योको धारण करती है। इसलिए पृथिवी वसुधा कहलाती है। वसुनंदि-१ नन्दिसंध बलात्कार गणको गुबविलीके अनुसार आप सिंहनन्दिके के शिष्य तथा वीरनन्दिके गुरु थे। समय-विक्रम शक सं. ५२५-५३१ ( ई० ६०३-६०६) ( दे० इतिहास/७/२ ) १२. नन्दिसंघके देशीयगणकी गुबिलीके अनुसार देवेन्द्राचार्य के शिष्य और
स वचन्द्र के गुरु थे। समय-वि० ६५०-६८० (ई०८६३-६२३)। -दे० इतिहास/७/५ ३. नन्दिसघ देशीयगण के आचार्य । अपर नाम जयसेन । गुरु परम्परा-श्रीनन्दि, नयनन्दि (वि. ११००) नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक, वसुनन्दि। कृतिये- श्रावकाचार, प्रतिष्ठासार सग्रह, मूलाचार वृत्ति, वस्तु विद्या, जिनशतक, आप्त मीमांस वृत्ति । समय-लगभग वि. ११५० (ई. १०६८-१९१८) । (ती /३/२२३,२२६), (दे. इतिहास/0/)। वसुनंदि श्रावकाचार-आ वसुनन्दि सं.३ (ई श.११-१२) । रचित प्राकृत गाथाबद्ध ग्रन्थ है । इसमें ५४६ गाथाए है........
(ती./३/२२७)। वसुपाल-मगधका एक प्रसिद्ध जैन राजा जिसने आबू पर्वतपर ऐतिहासिक व आश्चर्यकारी जिनमन्दिरोका निर्माण कराया। समय ई० ११६७ । वसुबधु-ई० २८०-३६० के 'अभिधर्मकोश' के रचयिता एक बौद्ध
विद्वान् । ( सि. वि./प्र. २१/५. महेन्द्र )। वसुमात-१ भरतक्षेत्र आर्यखण्डकी एक नदी। -दे० मनुष्य/४ ।
२. विजयार्धकी उत्तर श्रेणीका एक नगर ।-दे० विद्याधर । वसुमत्का -विजया की उत्तरमेणी का एक नगर-दे० विद्याधर ।
मत्र-मगधदेशकी राज्य वंशावली के अनुसार यह शक जातिका एक सरदार था, जिसने मौर्यकाल में ही मगधदेशके किसी एक भागपर अपना अधिकार जमा रखा था। अपरनाम बलमित्र था और अग्निमित्रका समकालीन था। समय-वी. नि २८५-३४५ ( ई पू. २४६-१८१)-दे० इतिहास/३/४। वसुषणम प्र./६०/श्लोक स -"पोदनपुर नगरका राजा था ।५०।
मलयदेशके राजा चण्डशासन द्वारा स्त्रीका अपहरण होनेपर ।५१-५२। दीक्षा धार ली और निदान बन्धसहित मंन्यासमरण कर सहस्रार
स्वर्गमें देव हुआ।६४-५७) वस्तुलि. वि./मूलवृत्ति/४/११/२६३/११ परिणामो वस्तुलक्षणम् । = परि___णमन करते रहना यहाँ वस्तुका लक्षण है । का अ/पू./२२५ ज वत्थु अणेयंत ते चिय कज्जं करेदि णियमेण । महु धम्मजुदं अत्यं कजकर दीसदे लोए। जो वस्तु अनेकान्तस्वरूप है, वही नियमसे कार्यकारी है। क्योकि लोकमें बहुत धर्म युक्त पदार्थ ही कार्यकारी देखा जाता है।-(विशेष दे० द्रव्य) स्या. म /५/३०/६ वस्तुनस्तावदर्थ क्रियाकारित्व लक्षणम् । स्या में २३/२७२/६ वमन्ति गुण पर्याया अस्मिन्निति बस्तु । - अर्थक्रियाकारित्व ही वस्तुका लक्षण है । अथवा जिसमें गुणपर्याये वास
करे वस्तु है। दे द्रव्य/१/७-( सत्ता, सत्त्व, सत्, सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु, अर्थ,
विधि ये सब एकार्थवाची शब्द है)। दे द्रव्य/१/४ ( वस्तु गुणपर्यायात्मक है)। दे. सामान्य (वस्तु सामान्य विशेषात्मक है)। दे. श्रुतज्ञान/II. ( वस्तु श्रुतज्ञानके एक भेदका नाम है)। वस्तुत्व-आ. प/६ वस्तुनो भावो वस्तुत्वम्, सामान्यविशेषात्मक
वस्तु । -वस्तुके भावको वस्तुत्व कहते हैं। वह बस्तु सामान्य विशेषात्मक है। [अथवा अर्थ क्रियाकारी है अथवा गुण पर्यायोको वास देनेवाली है (दे वस्तु )]। स. भ. त/३८/५ स्वपररूपोपादानापोहनव्यवस्थाप्यं हि वस्तुनो वस्तुत्वम् ।-अपने स्वरूपके ग्रहण और अन्यके स्वरूपके त्यागसे ही वस्तुके वस्तुत्वका व्यवस्थापन क्यिा जाता है।
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