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वातवलय
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वात्सल्य
पध/3/८०६ वान्सल्य नाम दासत्व सिद्धाहहिम्बवेश्मम् । सधे चतुf- शास्त्रे स्वामिकार्ये गुभृत्यबत् । -स्वामी के कार्य मे उत्तम सेवककी तरह सिद्ध प्रतिमा, जिन बिम्ब, जिनमन्दिर, चार प्रकार सघमे और शास्त्रमे जो दासत्व भाव रखना है वही सम्यग्दृष्टिका वात्सल्य नामक अप या गुण है। द अगले शीर्षक स.सा. की व्याख्या-[ त्रयाणा साधूना' इस पदके दो अर्थ होते है। व्यवहार की अपेक्षा अर्थ करनेपर आचार्य, उपाध्याय व साधु इन तीन साधुओसे वात्सल्य करना सम्याष्टिका
धातवलय-स सि./३/१/२०४/३। टिप्पणी में अन्य प्रतिमे गृहीत । पाठ-घन च धनो मन्दो महान् आयत इत्यर्थः । अम्वु च जले उदकमित्यर्थ । वातशब्दोऽन्त्यदीपक तत एव सबन्धनीय । घनो घनवात । अम्बु अम्बुवात । वातस्तनुवात । इति महदापेक्षया तनुरिति सामर्थ्यगम्य । अन्य पाठ । सिद्धान्तपाठस्तु धनाम्बु च वात चेति वातशब्द सोपक्रियते। वातस्तनुवात इति वा ।- (मूल सूत्र में 'घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठा ' ऐसा पाठ है। उसकी व्याख्या करते हुए कहते है )-धन, मन्द, महान, आयत ये एकार्थवाची नाम है
और अम्बु, जल व उदक ये एकार्थवाचो है। वात शब्द अन्त्य दोपक होने के कारण घन व अम्बु दोनों के साथ जोडना चाहिर । यथा-घनो अर्थात् घनवात, अम्बु अर्थात् अम्बुवात और वात अर्थात तनुवात । महत या घनको अपेक्षा हलको है, यह बात अर्थापत्तिसे हो जान ली जाती है । यह अन्य पाठकी अपेक्षा कथन है । सिद्वान्तपाठके अनुसार तो घन व अम्बुरूप भी है और वातरूप भी है ऐसा बात शब्दका अभिप्राय है। बातका अर्थ तनुवात अर्थात हलकी
वायु है। दे. लोक/२/४ [ घनोदधि वातका वर्ण गोमूत्र के समान है, धनवातका मूंगके समान, और तनुबात का वर्ण अव्यक्त है अर्थात अनेक वर्णवाला है।
* वातवलयोंका लोकमें अवस्थान-दे. लोक/२। वात्सल्यपं.ध./उ./४७० तत्र भक्तिरनौद्धत्यं वाग्वपुश्चेतसा शमात् । वात्सत्यं
तद्वगुगोत्कर्ष हेतवे सोद्यतं मन ।४७०। -दर्शनमोहनीयका उपशम हानेसे मन वचन कायके उद्धतपनेके अभावको भक्ति कहते है, तथा उनके गुणोके उत्कर्ष के लिए तत्पर मनको वात्सल्य कहते हैं।
२. वात्सल्य अंगका व्यवहार लक्षण मू. आ./२६३ चावण्णे सघे चदुगदिस सारणित्थरणभूदे। वच्छल्ल
कादव्व वच्छे भावी जहा गिद्धो। -चतुर्गतिरूप ससारसे तिरनेके कारणभूत मुनि आर्यिका आदि चार प्रकार सधमें, बछडे में गायकी प्रोतिकी तरह प्रीति करना चाहिए । यही वात्सल्य गुण है।-(विशेष दे. आगे प्रवचन वात्सल्यका लक्षण ) (पुसि. उ./२६) भ. आ./वि./४५/१५०/५ धर्मस्थेषु मातरि पितरि भ्रातरि वानुरागो वारसत्यम् । धार्मिक लोगोंपर, और माता-पिता भ्राताके ऊपर प्रेम रखना वात्सल्य गुण है। चा. सा//३ सद्य प्रसूता यथा गौर्वत्से स्निह्यति । तथा चातुर्वर्ये सधे कृत्रिमस्नेहकरणं वात्सल्यम् । -जिस प्रकार तुरतकी प्रसूता गाय अपने बच्चेर प्रेम करती है, उसी प्रकार चार प्रकार के सघपर अकृत्रिम या स्वाभाविक प्रेम करना वात्सल्य अग कहा जाता है।(दे. आगे शीर्षक सं.४) का. आ./मू./४२१ जो धम्मिएसु भत्तो अणुचरणं कुणदि परमसद्धाए । पिय वयणं जपतो बच्छल्ल तस्स भवस्स ।२२१४ - जो सम्यग्दृष्टि जोव प्रिय वचन बोलता हुआ अत्यन्त श्रद्धासे धार्मिक जनो में भक्ति रखता है तथा उनके अनुसार आचरण करता है. उस भव्य जोबके
वात्सल्य गुण कहा है। द्र.स./टो/४१/१७५/११ बाह्याभ्यन्तररत्नत्रप्राधारे चतुर्विधस घे वत्से धेनुवत्पञ्चेन्द्रियविषयनिमित्तं पुत्रकलत्रसुवर्णादिस्नेहवद्वा यदकृत्रिम स्नेहकरणं तदन्यवहारेण वात्सल्य भण्यते। - बाह्य और अभ्यन्तर रत्नत्रयको धारण करनेवाले मुनि आर्यिका श्रावक तथा श्राविकारूप चारो प्रकारके सघमें, जैसे गायकी बछडे में प्रति रहती है उसके समान, अथवा पाँचों इन्द्रियों के विषयोके निमित्त पुत्र, स्त्री, सुवर्ण आदिमें जो स्नेह रहता है, उसके समान स्वाभाविक स्नेह करना, यह व्यवहारनयकी अपेक्षासे वात्सल्य कहा जाता है।
३. वात्सल्यका निश्चय लक्षण स. सा /मू /२३५ जो कुणदि बच्छलत्त तियेह साहूण मोवस्वमग्गम्मि ।
सो वच्छलभावजुदो सम्मादिट्ठो मुणेयव्यो। -जो ( चेतयिता) मोक्षमार्ग में स्थित सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्ररूप तीन साधको या साधनो के प्रति ( अथवा व्यवहारसे आचार्य उपाध्याय और मुनि इन तीन साधुओके प्रति ) वात्सल्य करता है, वह वात्सल्यभावसे युक्त सम्यग्दृष्टि जानना चाहिए। रा. वा /६/२४/१/५२६/१५ जिनप्रणीतधर्मामृते नित्यानुरागता वारसल्यम् । = जिन प्रणीत ( रत्नत्रय) धर्मरूप अमृतके प्रति नित्य अनु
राग करना वात्सल्य है । (म पु./६३/३२०); (चा सा/१/३) भ. आ /वि/४५/१५०/५ वात्सल्य, रत्मत्रयादरो व आत्मने । अथवा
अपने रत्नत्रय धर्म में आदर करना वात्सल्य है। पुसि, उ./२६ अनवरतम हिंसायां शिवसुख लक्ष्मी निबन्धने धर्मे। सर्वेध्वपि च सर्मिषु परम वात्सल्यमालम्ब्यम् । मोक्षसुखकी सम्पदाके कारणभूत जैनधर्म मे, अहिसामें और समस्त ही उक्त धर्मयुक्त साधर्मी जनो में निरन्तर उत्कृष्ट वात्सल्य ब प्रीतिको अवलम्बन करना चाहिए। द्र.स /टो/३१/१७६/१० निश्चयवात्सल्य पुनस्तस्यैव व्यवहारवात्सल्यगुणस्य सहकारित्वेन धमें दृढत्वे जाते सति मिथ्यात्वरागादिसमस्तशुभाशुभाबहिविषु प्रीति त्यक्त्वा रागादिविकल्पोपाधिरहितपरमस्वास्थ्यसवित्तिसजातसदानन्दै कलक्षणसुखामृतरसास्वाद प्रति प्रीतिकरणमेवेति सप्तमान व्याख्यातम् ।-पूर्वोक्त व्यवहार वात्सल्यगुणके सहकारीपनेसे जब धर्म में दृढता हो जाती है, तब मिथ्यात्व, राग आदि समस्त शुभ अशुभ बाह्य पदार्थों में प्रीति छोडकर रागादि विक्सपोंकी उपाधिसे रहित परमस्वास्थ्यके अनुभवसे उत्पन्न सदा आनन्दरूप सुखमय अमृतके आस्वादके प्रति प्रीतिका करना ही निश्चय वात्सल्य है। इस प्रकार सप्तम वात्सल्य अगका व्याख्यान
४. प्रवचन वात्सल्यका लक्षण स सि /६/२४/३३६/६ वत्से धेनुवत्सधम णि स्नेह प्रवचनवत्सलवम् ।
जेसे गाय बछडेपर स्नेह रखती है उसी प्रकार साधर्मियोंपर स्नेह रखना प्रवचनवत्सलत्व है। (भा पा /टी./०७/२२१/१७) रा वा./६/२४/१३/५३०/२० यथा धेनुत्से अकृत्रिमस्नेहमुत्पादयति तथा सधर्माणमवलोक्य तद्गतस्नेहाद्रीकृतचित्तता पवचनवत्सलत्वमित्युच्युते। य सधर्मणि स्नेह स एव प्रवचनस्नेह' इति। =जसे गाय अपने बछडेसे अकृत्रिम स्नेह करती है उसी तरह धार्मिक जनको देखकर स्नेहसे ओतप्रोत हो जाना प्रवचनवत्सलत्व है। जो धार्मिकोंमे स्नेह है वही तो प्रवचन स्नेह है। ध.८/३,४१/१०/७ तेसु अणुरागो आकरखा ममेदभावो पवयणवच्छलदा
णाम -( उक्त प्रवचनो अर्थात् सिद्धान्त या बारह अगोमें अथवा उनमें होनेवाले देशवती महाव्रती व असंगतसम्यग्दृष्टियों में-(दे. प्रवचन ) ] जो अनुराग, आकांक्षा अथवा ममेदं बुद्धि होती है. उसका नाम प्रवचनवत्सलता है । (चा, सा./५६/५)
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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