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वर्णव्यवस्था
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३. उच्चता व नीचतामे गुणकर्म..."
शूद्रके तीन ही वश है. अन्य (ब्राह्मण) वंश नहीं है ।२२५०१ (ज. ५/७/५६), ( दे० वर्णव्यवस्था/३/१)। दे० वर्णव्यवस्था/२/१ (भरत क्षेत्रमे इस हुडावसर्पिणी काल में भगवान्
मृषभदेवने क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र इन तीन वर्णोकी स्थापना की थी। पीछे भरत चक्रवर्तीने एक ब्राह्मण वर्ण की स्थापना और
कर दी।) दे० श्रेणी/१ ( चक्रवर्तीकी सेनामे १८ श्रेणियों होती है, जिनमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद इन चार श्रेणियोका भी निर्देश किया गया है)। ध. १/१.१.१/गा. ६१/६५ गोत्तेण गोदमो विप्पो चाउवेश्यसडंगवि । णामेण इददि त्ति सीलवं बम्हणुत्तमो ।६।" गौतम गोत्री, विप्रवर्णी, चारो वेद और षडंगविद्याका पारगामी, शीलवान और ब्राह्मणो में श्रेष्ठ ऐसा बर्द्धमानस्वामीका प्रथम गणधर 'इन्द्रभूति' इस नामसे प्रसिद्ध हुआ।६१ म, पु./३८/४५-४६ मनुष्यजातिरेकेव जातिनामोदयोद्भवा । वृत्तिभेदाहितादभेदाचातुर्विध्यमिहाश्नुते ।४५। ब्राह्मणा व्रतसंस्कारात, क्षत्रिया' शस्त्रधारणात । वणिजोऽर्थार्जनान्न्याय्यात शूद्रा न्यग्वृत्तिसंश्रयाद 1४६-यद्यपि जाति नामकमके उदयसे उत्पन्न हुई मनुष्य जाति एक ही है, तथापि आजीविकाके भेदसे होनेवाले भेदके कारण वह चार प्रकारकी हो गयी है ।४५॥ व्रतोके संस्कारसे ब्राह्मण, शस्त्र धारण करनेसे क्षत्रिय, न्यायपूर्वक धन कमानेमे वैश्य और नीच वृत्तिका आश्रय लेनेसे मनुष्य शूद्र कहलाते है।४६। (ह. पृ./४/३६); (म. पु/ १६/१८४)।
३. केवल उच्च जाति मुक्तिका कारण नहीं है स. श./मू व. टी | जातिलिङ्गविकल्पेन येषां च समयाग्रहः। तेऽपि न प्राप्नुवन्त्येव परम पदमात्मन 1८६। जातिलिङ्गरूपविकल्पोभेदस्तेन येषा शैवादीनो समयाग्रह आगमानुबन्ध' उत्तमजाति-विशिष्ट हि लिङ्ग मुक्तिहेतुरित्यागमे प्रतिपादितमतस्तावन्मात्रेणेव मुक्तिरित्येवंरूपो येषामागमाभिनिवेश तेऽपि न प्राप्नुवन्त्येव परम पदमात्मनः । --जिन शैवादिकोका ऐसा आग्रह है कि 'अमुक जातिवाला अमुक वेष धारण करे तभी मुक्तिको प्राप्ति होती है। ऐसा आगममें कहा है, वे भी मुक्तिको प्राप्त नही हो सकते, क्यो कि जाति और लिग दोनो हो जब देहाश्रित है और देह ही आत्माका ससार है, तब ससारका आग्रह रखनेवाले उससे कैसे छूट सकते है।
३.उच्चतावनीचत
व जन्मकी कथंचित प्रधानता व गौणता १, कथंचित् गुणकर्मकी प्रधानता कुरल/१८/३ कुलीनोऽपि कदाचारात कुलीनो नैव जायते । निम्नजोऽपि सदाचारान् न निम्न प्रतिभासते।३। उत्तम कुलमें उत्पन्न होनेपर भी यदि कोई सच्चरित्र नहीं है तो वह उच्च नही हो सकता और हीन वंशमे जन्म लेने मात्रसे कोई पवित्र आचारवाला नीच नहीं
हो सकता ॥३॥ म.पू./७४/४६१-४६५ वर्णाकृत्यादिभेदाना देहेऽस्मिन्नप्यदर्शनात् । ब्राह्मण्यादिषु शूद्राद्यै गर्भाधानप्रदर्शनात् ।४६१। नास्ति जातिकृतो भेदो मनुष्याणा गवाश्ववत् । आकृतिग्रहणात्तस्मादन्यथा परिकल्प्यते । ४६२। जातिगोत्रादिकर्माणि शुक्लध्यानस्य हेतवः । येषु ते स्युस्त्रयो वर्णा शेषाः शूद्राः प्रकीर्तिताः MERI अच्छेदो मुक्तियोग्याया विदेहे जातिसंततेः । तद्ध तुनामगोत्राढ्यजीवाविच्छिन्नसंभवात ।४६४। शेषयोस्तु चतुर्थे स्यात्काले तज्जातिसंततिः। एवं वर्ण विभाग' स्यान्मनुष्येषु जिनागमे ।४६५॥ =१. मनुष्योके शरीरों में न तो कोई आकृतिका भेद है और न ही गाय और घोडेके समान उनमें कोई जाति भेद है, क्योंकि, ब्राह्मणी आदिमें शूद्र आदिके द्वारा गर्मधारण किया जाना देखा जाता है। आकृतिका भेद न होनेसे भी उनमें जातिभेदकी कल्पना करना अन्यथा है। ४६१-४६२। जिनकी जाति तथा कर्म शुक्लध्यानके कारण हैं वे त्रिवर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य ) कहलाते है और बाकी शूद्र कहे जाते है। ( परन्तु यहाँ केवल जातिको ही शुक्लध्यानको कारण मानना योग्य नहीं हैदे० वर्ण व्यवस्था/२/३ ) ४६३। (और भी दे० वर्णव्यवस्था/१/४ )। २-विदेहक्षेत्रमें मोक्ष जानेके योग्य जातिका कभी विच्छेद नहीं होता, क्योकि वहाँ उस जातिमें कारणभूत नाम और गोत्रसे सहित जीबोकी निरन्तर उत्पत्ति होती रहती है।४६४। किन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्रमें चतुर्थ काल में ही जातिकी परम्परा चलती है. अन्य कालोमें नही। जिनागममें मनुष्योका वर्ण विभाग इस प्रकार बतलाया गया है ।४६५ -दे० वर्ण व्यवस्था/२१२ । गो. क /मू./१३/ उच्च णीच चरण उच्च णीच हवे गोद ।१३जहाँ ऊँचा आचरण होता है वहाँ उच्चगोत्र और जहाँ नीचा आचरण होता है वहाँ नीचगोत्र होता है। दे० ब्राह्मण/३-(ज्ञान, संयम, तप आदि गुणोको धारण करनेसे ही
ब्राह्मण है, केवल जन्मसे नहीं।) दे० वर्ण व्यवस्था/२/२ (ज्ञान, रक्षा, व्यवसाय व सेवा इन चार काँके
कारण ही इन चार वर्णोका विभाग किया गया है)। सा ध/७/२० ब्रह्मचारी गृही वानप्रस्थो भिक्षुश्च सप्तमे। चत्वारोऽगे क्रियाभेदादुक्ता वर्णवदाश्रमा ।२०। जिस प्रकार स्वाध्याय व रक्षा आदिके भेदसे ब्राह्मण आदि चार वर्ण होते है, उसी प्रकार धर्म क्रियाओं के भेदसे ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ व सन्यास ये चार आश्रम होते है। ऐसा सातवे अंगमें कहा गया है। (और भी
-दे० आश्रम । मो. मा.प्र./३/८/8 कुलकी अपेक्षा आपको ऊँचा नीचा मामना भ्रम है। ऊँचा कुल का कोई निन्द्य कार्य करै तो वह नीचा होइ जाय ।
अर नीच कुलविषै कोई श्लाध्य कार्य करै तो वह ऊँचा होइ जाय । मो.मा, प्र./६/२५८/२ कुलकी उच्चता तो धर्मसाधनते है। जो उच्चकुल विषै उपजि हीन आचरन करै, तौ वाको उच्च कैसे मानिये । • धर्म पद्धतिविष कुल अपेक्षा मह तपना नाहीं संभव है।
४. वर्णसांकर्यके प्रति रोकथाम म पु /१६/२४७-२४८ शूदा शूद्रेण वोढव्या नान्या ता स्वा च नैगम । वहेत स्वाते च राजन्य स्त्रा द्विजन्मा कचिच्च ता ।२४७। स्वामिमा वृत्तिमुत्क्रम्य यस्त्वन्या वृत्तमाचरेत् । स पार्थिवै नियन्तव्यो वर्णसकोणिरन्यथा ।२४८१-१ वर्णों की व्यवस्थाको सुरक्षित रखनेके लिए भगवान ऋषभदेवने ये नियम बनाये कि शूद्र केवल शूद्र कन्याके साथ विवाह करे, वैश्य वैश्य व शूद्र कन्याओके साथ, क्षत्रिय क्षत्रिय, वैश्य व शुद्र कन्याओके साथ तथा ब्राह्मण चारो वर्णो की कन्याओंके साथ विवाह करे ( अर्थात स्ववर्ण अथवा अपने नोचेवाले वर्गोंको कन्याको हो ग्रहण करे, ऊपरवाले वर्णोकी नही ।२४७।२ चारो हो वर्ण अपनी-अपनी निश्चित आजीविका करे । अपनी आजीविका छोडकर अन्य वर्णकी आजीविका करनेबाला राजाके द्वारा दण्डित किया जायेगा ।२४८। (म.पु/१६/९८७)।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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