Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 530
________________ वर्णव्यवस्था बादरतेन उकाइपज्जतर जादजहणाणुभागेण सह अण्णा उपती अभावादो । जदि अण्णत्य उपज्जदि तो नियमा अणतगुणवहोए उपजदि हा सर्वाकृष्ट विशुद्धिके द्वारा हत्समुत्पत्ति को करके उत्पन्न कराये गये जघन्य अनुभागकी अपेक्षा सर्व विशुद्ध सूक्ष्मसाम्परायिक सयतके द्वारा बाँधा गया उच्चगोत्रका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा पाया जाता है। प्रश्न- गोत्रके जघन्य अनुभाग भी उम्रगोत्रका जग्य अनुभाग होता है। उत्तर-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए क्योकि जिन्होने पक्योपमके असंख्यातवे भागमात्र कालके द्वारा उच्चगोत्रका उद्वेलन किया है व जिन्होने अतिशय विशुद्धिके द्वारा नोवगीका घात कर लिया है उन बादर तेजस्कायिक जीवोमें गौत्रका जघन्य अनुभाग स्वीकार किया गया है। अतएव गोत्रके जघन्य अनुभागमे उच्चगोत्रका अनुभाग सम्भव नही है। प्रश्न- जिन्होने उत्कृष्ट विशुद्धिके द्वारा नगोत्र अनुभागका घात कर लिया है, उन बादर तेजस्कायिक व वायुकायिक जीवोमें गोत्रके अनुभागको जम्प करके उस जय अनुभागके साथ ऋजुगतिके द्वारा हम निनोर जोबोमें उत्पन्न होकर त्रिसमयवर्ती आहारक और तद्भवस्थ होनेके तृतीय समय में वर्तमान उसके क्षेत्र के साथ भाव जघन्य क्यो नही होता ? उत्तर- नहीं, क्योकि, बादर तेजकायिक व वायुकायिक पर्याप्त जीवोमें उत्पन्न जघन्य अनुभागके साथ अन्य जीवोंमें उत्पन्न होना सम्भव नही है । यदि वह अन्य जीवोमें उत्पन्न होता है तो नियमसे वह अनन्तगुणवृद्धि से वृद्धिको प्राप्त होकर ही उत्पन्न होता है. अन्य प्रकारसे नही । १०. दोनों गोत्रोंका जघन्य व उत्कृष्ट काळ घ. १५/२०/- पीचगोदर जहणेज एगसमओ, उद्यागोदादो णीचागोदं गतूण तत्थ एगसमयमच्छिय विदियसमए उच्चागोदो उदयमागदे एसओ लम्भदे | उकस्सेण अंसंखेच्चापरियट्ठा। उच्चागोदस्स जहणेण एयसमओ, उत्तरसरीर विउव्जिय एगसमएण मुदस्स तदुवलभादो । एव णोषागोस्स वि उक्कण सागरोवमसदपृधत नीचगोत्रका उदीरणाकाल जयन्यसे एक समयमात्र है, क्योकि, उच्चगोत्रसे नीच गोत्रको प्राप्त होकर और वहाँ एक समय रहकर द्वितीय समय में उच्चगोत्रका उदय होनेपर एक समय उदीरणाकाल पाया जाता है । उत्कर्ष से वह असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन प्रमाण है । ( तिर्यच गति में उत्कृष्टरूप इतने काल तक रह सकता है)। उच्चगोत्रका उदीरणाकाल जघन्य से एक समयमात्र है, क्योंकि, उत्तर शरीरकी विक्रिया करके एक समय में मृत्युको प्राप्त हुए जीवके उक्त काल पाया जाता है । (उच्चगोत्री शरोरवाला तो नीचगोत्री के शरीरकी विक्रिया करके तथा नीचगोत्री उच्चगोत्री शरीरको विक्रिया करके एक समय पश्चात् मृत्युको प्राप्त होवे ) नीचगोत्रका भी जघन्यकाल इसी प्रकारसे घटित किया जा सकता है। उच्चगोत्रका उत्कृष्टकाल सागरोपम शतपृथक्त्व प्रमाण है। (देवो व मनुष्यो में भ्रमण करता रहे तो ) - ( और भी ०/१/३) २. वर्णव्यवस्था निर्देश 8. वर्गव्यवस्थाकी स्थापनाका इतिहास ति प / ४ / १६१८ चक्कवराउ दिजाण हवेदि वसस्स उप्पत्ती । १६६८। -डायसपोकाल चक्रवर्ती की गयी द्विलोके वर्णकी उत्पति भी होती है। प/४/११-१२२ का भावार्थ - भगवान् ऋषभदेवका समवशरण आया जान भरत चक्रवर्तीने सघ के मुनियो के उद्देश्य से उत्तम उत्तम भोजन बनवाये और नौकरी के सिरपर रखवाकर भगवान् के पास पहुँचा । परन्तु भगवान् ने उद्दिष्ट होनेके कारण उस भोजनको स्वीकार न किया । ६१-६७। तत्र भरतने अन्य भी आवश्यक सामग्री के साथ उस Jain Education International - ५२३ २. वर्णव्यवस्था निर्देश भोजनको दान देनेके द्वारा व्रती श्रावकोंका सम्मान करनेके अर्थ उन्हें अपने यहाँ निमन्त्रित किया । १०३ क्योकि आनेवालोंमें सम्यग्दृष्टि व मिथ्यादृष्टि सभी थे इसलिए भरत चक्रवर्तीने अपने भवन के आँगन में जौ, धान, मूँग, उडद आदिके अंकुर वोकर उन सबकी परीक्षा की और सम्यष्टि पुरुषोकी छट कर सी १०४ ११० भरतका सम्मान पाकर उन्हे अभिमान जागृत हो गया और अपनेको महान् समझकर समस्त पृथिवी तलपर याचना करते हुए विचरण करने लगे ।१११-११४० अपने मन्त्रीके मुखसे उनके आगामी भ्रष्टाचारकी सम्भावना सुन चक्रवर्ती उन्हे मारनेके लिए उद्यत हुआ, परन्तु वे सब भगवान् ऋषभदेवकी शरण में जाकर प्रार्थना करने लगे । और भगवान्ने भरतको उनका वध करनेसे रोक दिया ।१११-१२२/ ६. पू./१/३३-३ का भावार्थ- कल्पवृक्षोके तोपके कारण भगवा ऋषभदेव प्रजाको असि मसि आदि षट्कमका उपदेश दिया ३३- ३६ । उसे सोखकर शिल्पीजनोने नगर ग्राम आदिकी रचना की । ३७-३८। उसी समय क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये तीन वर्ण भी उत्पन्न हुए। विनाशसे जीवोकी रक्षा करनेके कारण क्षत्रिय, वाणिज्य व्यापार के योगसे वैश्य और शिल्प आदिके सम्बन्धसे शुद कहलाये । 1३६० (म. पु / १६/१०१-१०३) । म./१६/९०-१०० का भावार्थ उनमें भी शुद्र दो प्रकार के हो गयेकारू और अकारू ( विशेष दे० वर्णव्यवस्था / ४ ) | ये सभी वर्णोंके लोग अपनी-अपनी निश्चित आजीविकाको छोड़कर अन्य वर्षकी आजीविका नहीं करते थे ।१४-१ म ३८/५०-५० का भावार्थ-दिग्विजय करनेके पश्चात् भरत चक्रवर्तीको परोपकार में अपना धन लगानेकी बुद्धि उपजी | ५ | तब महामह यज्ञका अनुष्ठान किया । ६ । सहवती गृहस्थोंकी परीक्षा करनेके लिए समस्त राजाओको अपने-अपने परिवार व परिवर सहित उस उसमें निमन्त्रित किया | १०| उनके विवेकी परीक्षाके अर्थ अपने घर के आँगन मे अकुर फल व पुष्प भरवा दिये | ११ | जो लोग बिना सोचे समझे उन अकुरोको कुचलते हुए राजमन्दिर में घुस आये उनको पृथक् कर दिया गया | १२ | परन्तु जो लोग अकुरो आदिपर पाँव रखने के भय से अपने धरोको वापस लौटने लगे, उनको दूसरे मार्ग आँगन में प्रवेश कराके बहुत सम्मानित किया। १३-२०१ उनको उन-उनके व्रतो व प्रतिमाओ के अनुसार यज्ञ पवीतसे चिह्नित किया | २१-२२ (विशेष दे० यज्ञोपवीत ) । भरतने उन्हे उपासकायमन आदिका उपदेश देर पूजा आदि उनके नित्य कर्म न कर्तव्य बताये | २४-२५॥ पूजा, वार्ता, दन्ति ( दान ), स्वाध्याय, सयम और तप इन छह प्रकार की विशुद्ध वृत्तिके कारण ही उनको द्विज सज्ञा दी। और उन्हे उत्तम समझा गया ।४२-४४। ( विशेष दे० ब्राह्मण ) । उनको गर्भान्वय, दोसान्वय और कर्त्रान्त्रय इन तीन प्रकारकी क्रियाओका भी उपदेश दिया । - ( विशेष दे० सस्कार ) ।५०१ 1 = म. /४०/२२१ स धर्मविजयी भरताराम धर्मका कुरा पीपलक्षितान्तान् द्विजत् विनियम्य सम्यक् धर्मप्रिय समसृजत् द्विजन्लोकसर्गम् । २२१। - इस प्रकार जिसने धर्म के द्वारा विजय प्राप्त की है, जो जो निपुण है और जिसे धर्म प्रिय है, ऐसे भरत क्षेत्र के अधिपति महाराज भरतने राजा लोगोकी साक्षीपूर्वक अच्छे-अच्छे व्रत धारण करनेवाले उन उत्तम द्विजोको अच्छी शिक्षा देकर ब्राह्मण वर्णकी सृष्टि व स्थापना की / २२९ । २. जैनाम्नायमें चारों वर्णोंका स्वीकार ति ४/२२५० सहया वसाहवति कच्छे तिण्णि च्चिय तस्य णहु अण्णे । २२५०१ - विदेह क्षेत्र कच्छा देशमें बहुत प्रकारके भेदों मे युक्त क्षत्रिय, वैश्य तथा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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