Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 528
________________ वर्णव्यवस्था ५२१ १. गोत्रकर्म निर्देश से निन्द्य अर्थात दरिद्र अप्रसिद्ध और दुखाकुल कुलोमे जन्म हो वह नीचगोत्र है। जिससे आत्मा नोच व्यवहारमें आवे वह नोच गोत्र है। ध.६/१,६-१,४५/७७/१० जस्स कम्मस्स उदएण उच्चागोदं होदि तमु चागोद । गोत्र' कुलं वश सतानमित्येकोऽर्थ । जस्स कम्मस्स उदएण जोवाणं णोचगोदं होदितणीचगोद णाम । = गोत्र, कुल, वश, सन्तान ये सब एकार्थवाचक नाम है। जिस कर्मके उदयसे जोवोके उच्चगोत्र कुल या बंश होता है वह उच्चगोत्र कर्म है और जिस कमके उदयसे जीवों के नीचगोत्र, कुल या वश होता है वह नोचगोत्रकर्म है। दे० अगला शीर्षक-(साधु आचारको योग्यता उच्चगोत्रका चिह्न है तथा उसको अयोग्यता नोचगोत्रका चिह्न है।) १. गोनकर्मके अस्तित्व सम्बन्धी शंका ध. १३/१४५,१३५/३८८/३ उच्चैर्गोत्रस्य क्य व्यापार । न तावद राज्यादिलक्षणाया सपदि, तस्या. सद्वेद्यत' समुत्पत्ते । नापि पञ्चमहाबतग्रहणयोग्यता उच्चैर्गोत्रेण क्रियते, देवेष्वभव्येषु च तहग्रहणं प्रत्यययोग्येषु उच्च र्गोत्रस्य उदयाभावप्रसगात् । न सम्यग्ज्ञानोत्पत्ती व्यापार, ज्ञानावरणक्षगोपशमसहायसम्यग्दर्शनतस्तदुत्पत्त। तिर्यग-नारकेष्वपि उच्चैर्गोत्रस्योदय: स्यात, तत्र सम्यग्ज्ञानस्य सत्वात। नादेयरवे यशसि सौभाग्ये वा व्यापारः, तेषां नामत समुत्पत्ते । नेक्ष्वाकुकुलाद्य त्पत्तौ, काल्पनिकानां तेषां परमार्थतोऽसत्वात विड्ब्राह्मणसाधुष्वपि उच्चैर्गोत्रस्योदयदर्शनात् । न संपन्नेभ्यो जोवोत्पत्तौ तद्व्यापार' म्लेच्छराजसमुत्पन्नपृथुकस्यापि उच्चैगर्गोत्रोदयप्रसगात। नाणुवतिभ्यः समुत्पत्तौ तव्यापार., देवेष्वौपपादिकेषु उच्चैर्गोत्रोदयस्यासत्त्व प्रसंगाव नाभेयस्य नीचैर्गोत्रतापत्तश्च । ततो निष्फलमुच्चे र्गोत्रम् । तत एव न तस्य कर्मत्वमपि । तदभावे न नोचैर्गोत्रमपि, द्वमोरन्योन्याविनाभावित्वात् । ततो गोत्रकर्माभाव इति।न जिनवचनस्यासत्त्वविरोधात् । तदविरोधोऽपि तत्र तत्कारणाभावतोऽवगम्यते । न च केवलज्ञानविषयो कृतेष्वर्थेषु सकलेपपि रजोजुषा ज्ञानानि प्रवर्तन्ते येनानुपलम्भाज्जिनवचनस्याप्रमाणत्वमुच्यते। न च निष्फलं गोत्रम्, दीक्षायोग्यसाध्वाचाराणां साध्वाचारै कृतसबन्धान आर्यप्रत्ययाभिधान-व्यवहार-निबन्धनाना पुरुषाणां सतान उच्चैर्गोत्रं तत्रोत्पत्तिहेतुकर्माप्युच्चैर्गोत्रम् । न चात्र पूर्वोक्तदोषा. संभवन्ति, विरोधात । तद्विपरीत नीचैर्गोत्रम् । एवं गोत्रस्य द्वे एव प्रकृती भवत । -प्रश्न-उच्चगोत्रका व्यापार कहाँ होता है। राज्यादि रूप सम्पदाको प्राप्तिमें तो उसका व्यापार होता नहीं है, क्योकि उसकी उत्पत्ति सातावेदनीयकर्मके निमित्तसे होती है। पाँच महाव्रतोंके ग्रहण करनेकी योग्यता भी उच्चगोत्रके द्वारा नहीं की जाती है. क्योकि, ऐसा माननेपर जो सब देव और अभव्य जीव पॉच महाबतोको धारण नहीं कर सकते है, उनमें उच्चगोत्रके उदयका अभाव प्राप्त होता है । सम्यग्ज्ञानकी उत्पत्तिमें उसका व्यापार होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योकि, उसकी उत्पत्ति ज्ञानावरणके क्षयोपशमसे सहकृत सम्यग्दर्शनसे होती है। तथा ऐसा माननेपर तियंचों और नारकियोके भी उच्चगोत्रका उदय मानना पडेगा, क्योंकि, उनके सम्यग्ज्ञान होता है। आदेयता, यश ओर सौभाग्य की प्राप्तिमें इसका व्यापार होता है, यह कहना भी ठीक नही है, क्योकि, इनकी उत्पत्ति नामकर्मके निमित्तसे होती है। इक्ष्वाकु कुल आदिको उत्पत्तिमें भी इसका व्यापार नहीं होता, क्योकि वे काल्पनिक है. अत' परमार्थसे उनका अस्तित्व ही नही है। इसके अतिरिक्त वैश्य और ब्राह्मण साधुओंमें उच्चगोत्रका उदय देखा जाता है। सम्पन्न जनोंसे जीवोंकी उत्पत्तिमें उच्चगत्रिका व्यापार होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योकि, इस तरह तो म्लेच्छराजसे उत्पन्न हुए बालकके भी उच्चगोत्रका उदय प्राप्त होता है । अणुव्रतियोंसे जीवोंकी उत्पत्तिमे उच्चगोत्रका व्यापार होता है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योकि ऐसा माननेपर औपपादिक देवोमें उच्चगोत्रके उदयका अभाव प्राप्त होता है, तथा नाभिपुत्र नीचगोत्री ठहरते है। इसलिए उच्चगोत्र निष्फल है, और इसलिए उसमें कर्म पना भी घटित नहीं होता। उसका अभाव होने पर नीचगोत्र भी नहीं रहता, क्यो कि, वे दोनो एक-दूसरेके अविनाभावी है। इसलिए गोत्रकर्म है ही नही। उत्तर-नहीं, क्यो कि, जिनवचनके असत्य होनेमे विरोध आता है । वह विरोध भी बहाँ उसके कारणोके नहीं होनेसे जाना जाता है। दूसरे केवलज्ञानके द्वारा विषय किये गये सभी अर्थोमे छद्मस्थोंके ज्ञान प्रवृत्त भी नही होते हैं। इसोलिए छद्मस्थोको कोई अर्थ यदि नही उपलब्ध होते है, तो इससे जिनवचनको अप्रमाण नहीं कहा जा सकता। तथा गोत्रकर्म निष्फल है. यह बात भी नही है, क्योकि, जिनका दीक्षायोग्य साधु आचार है. साधु आचारवालों के साथ जिन्होने सम्बन्ध स्थापित किया है ( ऐसे म्लेच्छ ), तथा जो 'आर्य' (भोगभूमिज ) इस प्रकारके ज्ञान और बचन व्यबहारके निमित्त हैं, उन पुरुषोको परम्पराको उच्चगोत्र कहा जाता है। तथा उनमें उत्पत्तिका कारणभूत कर्म भी उच्चगोत्र है। यहाँ पूर्वोक्त दोष सम्भव ही नहीं है, क्योंकि, उनके होने में विरोध है। उससे विपरोत कर्म नीचगोत्र है। इस प्रकार गोत्रकर्मकी दो हो प्रकृतियाँ होती है। दे० वर्ण व्यवस्था/३/१/म.पु/७४/४६१-४६५-(ब्राह्मणादि उच्चकुल ब शूद्रों में शरीरके वर्ण व आकृतिका कोई भेद नहीं है, न ही कोई जातिभेद है। जो शुक्लध्यानके कारण है वे त्रिवर्ण कहलाते है और शेष शूद्र कहे जाते है।) घ.१५/१५२/७ उच्चागोदे देस-सयलसजमणिबंधणे संते मिच्छाइ ट्ठीसु तदभावो त्ति णासंकणिज्जं, तत्थ, वि उच्चागोदजणिदसजमजोगत्तावेक्वाए उच्चागोदत्त पडि विरोहाभावादो । -प्रश्न-यदि उच्चगोत्रके कारण देशस यम और सकलसयम है तो फिर मिथ्यादृष्टियो में उसका अभाव होना चाहिए . उत्तर-ऐसी आशंका करना योग्य नहीं है, क्योकि, उनमें भी उच्चगोत्रके निमित्तसे उत्पन्न हुई सयम ग्रहण की योग्यताकी अपेक्षा उच्चगोत्रके होने में कोई विरोध नहीं है। ५. उच्चगोत्र तीर्थंकर प्रकृतिमें अन्तर रा. वा /८/११/४२/५८०/७ स्यान्मतं-तदेव उच्चैर्गोत्र तीर्थकरत्वस्यापि निमित्तं भवतु कि तीर्थकरत्वनाम्नेति । तन्नः किं कारणम्। तीर्थप्रवर्तनफलत्वात् । तीर्थ प्रवर्तनफलं हि तीर्थ करनामेज्यते नोच्चैर्गोत्रोदयात् तदवाप्यते चक्रधरादीना तदभावात् । -प्रश्न-उच्चगोत्र हो तीर्थकरत्वका भी निमित्त हो जाओ। पृथकसे तीर्थकरव नामकर्म माननेकी क्या आवश्यकता। उत्तर-तीर्थ की प्रवृत्ति करना तीर्थंकर प्रकृतिका फल है। यह उच्चगोत्रसे नही हो सकता, क्योंकि उच्चगोत्री चक्रवर्ती आदिके वह नही पाया जाता। अत इसका पृथक् निर्देश किया है । (और भी दे० नामकर्म (४) । ६. उच्च नीच गोत्रके बन्धयोग्य परिणाम भ. आ./मू./१३७५/१३२२ तथा १३८६ कुलरूवाणाबलसुदलाभिस्सरयत्थ मदितवादी हि । अपाणमुण्णमेतो नीचागोदं कुणदि कम्म ।१३७५॥ माया करेदि णीचगोद' .. १३८६ - कुल, रूप, आज्ञा, शरीरबल, शास्त्रज्ञान, लाभ, ऐश्वर्य, तप और अन्यपदार्थोसे अपनेको ऊँचा समझनेवाला मनुष्य नीचगोत्रका बन्ध कर लेता है ।१३७५० मायासे नीचगोत्रकी प्राप्ति होती है ।१३८६। त, सू/६/२५-२६ परात्मनिन्दाप्रश से सदसद्गुणोच्छादनोद्भावने च नोचैर्गोत्रस्य ।२५। तद्विपर्य यो नीचैवृत्त्यनुरसेको चोत्तरस्य ॥२६॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश मा० ३-६६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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