Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 526
________________ वर्गशलाका वर्णव्यवस्था वगंशलाका-Logarithum of logarithum (ध.५/प्र २८), (ज. घ./प्र १०८ ) । (विशेष दे० गणित/II/२/१)। वर्गसमीकरण-quadratic equatio1-(ध./प्र. २८) वगित संगित-Raising a namber to its own power (संख्यात तुल्य घात), (ध ५//२८), (विशेष दे० गणित/ II/१/8)। वर्चस्क-चतुर्थ नरकका चतुर्थ पटल- दे० नरक/५/११ । वर्ण १. वर्णका अनेकों अर्थों में प्रयोग स सि /२/२०/१७८/१ वर्ण्यत इति वर्ण । • वर्णनं वर्ण: ।जो देखा जाता है वह वर्ण है, अथवा वर्णन वर्ण है। (रा. वा/२/२०/११ १३२/३२)। स. सि /५/२३/२६४/१ वर्ण्यते वर्णनमात्र वा वर्ण: ।-जिसका कोई वर्ण है या वर्णन मात्रको वर्ण कहते है। ध.१/१,१,३३/५४६/१.अयं वर्णशब्दः कर्मसाधन । यथा यदा द्रव्यं प्राधान्येन विवक्षित तदेन्द्रियैण द्रव्यमेव सनिकर्ण्यते, न ततो व्यतिरिक्ता स्पर्शादय सन्तीत्येतस्या विवक्षाया कर्मसाधनवं स्पर्शादीनामवसीयते, वर्ण्यत इति वर्ण । यदा तु पर्यायः प्राधान्येन विवक्षितस्तदा भेदोपपत्तेरौदासीन्याव स्थितभावकथनाद्भाबसाधनत्वं स्पर्शादीना युज्यते वर्णन वर्ण: ।=यह वर्ण शब्द कर्मसाधन है। जैसे जिस समय प्रधानरूपसे द्रव्य विवक्षित होता है, उस समय इन्द्रियसे द्रव्यका ही ग्रहण होता है, क्योकि, उससे भिन्न स्पर्श (वर्णादि ) पर्याये नहीं पायी जाती है। इसलिए इस विवक्षामें स्पर्शादिके कर्म साधन जाना जाता है। उस समय जो देखा जाये उसे वर्ण कहते है, ऐसी निरुक्ति करना चाहिए। तथा जिस समय पर्याय प्रधान रूपसे विवक्षित होती है, उस समय द्रव्यसे पर्यायका भेद बन जाता है, इसलिए उदासीन रूपसे अवस्थित जो भाव है, उसीका कथन किया जाता है। अतएव स्पर्मादिके भाव साधन भी बन जाता है। उस समय देखनेरूप धर्मको वर्ण कहते है, ऐसी निरुक्ति होती है। भ. आ./वि./४७/१६०/१ वर्णशब्द क्वचिद्रूपवाची शुक्लवर्णमानय शुक्लरूपमिति । अक्षरधाची क्वचिद्यथा सिद्धो वर्ण समाम्नाय इति । कचित ब्राह्मणादौ यथात्रेव वर्णानामधिकार इति। कचिद्यशसिवार्थी ददाति ।- वर्ण शब्दके अनेक अर्थ है । वर्ण-शुक्लादिक वर्ण, जेसे सफेद र गको लाओ । वर्ण शब्दका अर्थ अक्षर ऐसा भी होता है, जेसे वर्णों का समुदाय अनादि कालसे है। वर्ण शब्द का अर्थ ब्राह्मण आदिक ऐसा भी है । यथा-इस कार्यमे ही ब्राह्मणादिक वर्णों का अधिकार है। यहाँपर वर्ण शब्दका अर्थ यश ऐसा माना जाता है । जैसे-यशकी कामनासे देता है। दे निक्षेप/18 (चित्रित मनुष्य तुरग आदि आकार वर्ण कहे जाते है।) २. वर्ण नामकर्मका लक्षण स सि /८/११/३१०/११ यद्वेतुको वर्ण विभागस्तद्वर्ण नाम । = जिसके निमित्तसे वर्ण में विभाग होता है, वह वर्ण नामकर्म है। ( रा वा./८/ ११/१०/२७७/१७), (गो क/जी. प्र./३३/२६/१३) । ब ६/१.६-१,२८/५१/१ जस्स कम्मस्स उदएण जीवसरीरे वण्णणिप्फत्ती होदि, तस्स कम्मक्ख धस्स वण्णसण्णा । एदस्स कम्मस्साभावे अणियदवण्ण सरीर होज्ज । ण च एत्र, भमर-कलयठी-हस-बलायादिसु मुणियदवण्णुवल भा । - जिम कर्मके उदयसे जीवके शरीरमे वर्ण की उत्पत्ति होती है, उस कर्मस्कन्धकी 'वर्ण यह राज्ञा है। इस क्र्म के अभाव में अनियत वर्ण बाला शरीर हो जायगा। किन्तु, ऐसा देखा नही जाता। क्योकि, भौरा, कोयल, हंस और बगुला आदिमें सुनिश्चित वर्ण पाये जाते है । (ध. १३/५,५,१०१/३६४/६)। ३ वर्ण व वर्ण नामकर्मके भेद ष ख ६/१,६-१/सूत्र ३७/७४ ज त बण्णणामकम्म तं पंचविह, किण्ह वण्णणाम णीलवण्णणाम रुहिरवण्णणाम हालिद्दवण्णणामं मुशिलवण्णणाम चेदि ।३७। जो वर्ण नामकर्म है, वह पाँच प्रकारका है-कृष्णवर्ण नामकर्म, नीलवर्ण नामकर्म, रुधिरवर्ण नामकर्म, हारिद्रवर्ण नामकर्म और शुक्लवर्ण नामकर्म । (प.ख./१३/५/सूत्र ११०/३७०); (पं.स./प्रा./४/४७/३०), ( स. सि./८/११/३१०/१२), (रा वा.// ११/१०/५७७/१८), (गो. क./जी. प्र./३२/२६/१३३/२६/१३)। स सि /२/२३/२६४/२ स पञ्चविध , कृष्णनीलपीतशुक्ललोहितभेदात् । - काला, नीला, पीला, सफेद और लालके भेदसे वर्ण पाँच प्रकारका है। (रा, वा./२/२३/१०/४८५/३), (प. प्रा. टी./१/२१/२६/१), .द्र स./टी./७/१९/६), (गो. जी./जी. प्र/४७६/८८५/१५) । ४.नामकर्मों के वर्णादि सकारण हैं या निष्कारण ध.६/१,६-१,२८/५७/४ वण्ण-गंध-रस फासकम्माणं वण्ण गंध-रस-पासा सकारणा णिक्कारणा वा। पढमपवखे अणवत्था। विदियपक्खे सेसणोकम्म-गंध-रस-फासा विणिक्कारणा होतु, विसेसाभावा। एत्थ परिहारो उच्चदे–ण पढमे पक्खे उत्तदोसो, अणब्भुवगमादो। ण विदियपक्खदोसो वि, कालदम्ब ब दुस्सहावत्तादो एदेसिमुभयरथ बावारविरोहाभावा ।प्रश्न-वर्ण, गन्ध, रस, और स्पर्श नामकर्मों के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श सकारण होते है, या निष्कारण । प्रथम पक्षमे अनवस्था दोष आता है। ( क्योकि जिस अन्य कर्म के कारण ये कर्म वर्णादिमान होगे, वह स्वयं किसी अन्य ही कर्मके निमित्तसे वर्णादिमान होगा)। द्वितीय पक्षके माननेपर शेष नोकर्मोंके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श भी निष्कारण होने चाहिए (अर्थात उन्हे वर्णादिमान करनेके लिए वर्णादि नामकर्मोंका निमित्त मानना व्यर्थ है), क्योकि, दोनो में कोई भेद नहीं है । उत्तर-यहॉपर उक्त शकाका परिहार कहते है-प्रथम पक्षमे कहा गया अनवस्थादोष तो प्राप्त नहीं होता है, क्योकि, वैसा माना नहीं गया है। (अर्थात वर्णादि नाम कर्मोको वर्णादिमान करनेके लिए अन्य वर्णादि कर्म माने नहीं गये है। ) न द्वितीय पक्षमे दिया गया दोष भी प्राप्त होता है, क्योकि, कालद्रव्यके समान द्विस्वभावी होनेसे इन वर्णादिकके उभयत्र व्यापार करनेमे कोई विरोध नहीं है। ( अर्थात् जिस प्रकार काल द्रव्य स्वय परिणमन रवभावी होता हुआ अन्य द्रव्धोके भो परिणम नमे कारण होता है उसी प्रकार वििद नाम कर्म स्वय वर्णादिमान होते हुए ही नोकर्मभूत शरोरोके वर्णादिमे कारण होते है।)। ५. अन्य सम्बन्धित विषय १. शरीरोंके वर्ण २. वायु आदिकमें वर्ण गुणकी सिद्धि ३ वर्णनामकर्मके बन्ध उदय सत्व -दे० लेश्या। -दे पुद्गल्न/१०१ -दे० वह वह नाम। वर्णलाभ क्रिया-दे० सस्कार/२ । वर्ण व्यवस्था-गोत्रकर्म के उदयमे जीवोका ऊँच तथा नीच कुलो मे जन्म होता है, अथवा उनमें ऊँच व नोच सस्कारोको प्रतीति होती है। उस हो के कारण ब्राह्मण क्षत्रिय आदि चार प्रकार वर्णों की व्यवस्था होती है। इस वर्णव्यवरथामे जन्म की अपेक्षा गुणकर्म अधिक प्रधान माने गये है। ब्राहाण, क्षत्रिय और वैश्य ये तीन ही वर्ण उच्च होने कारण जिन दीयाके योग्य है। शूद्रवर्ण नीच जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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