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वर्णव्यवस्था
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स सि./६/२६/३४०/७क. पुनरसौ विपर्यय । आत्मनिन्दा, परप्रशंसा, सद्गुणभावनमसद्गुणानं च गुणोत्कृष्टषु विनयेनावनतिर्भीचैर्वृत्ति | विज्ञानादिभिरुत्कृष्टस्यापि सतस्तत्कृतमद बिरहोऽनहंकारतानुत्सेक । तान्येतान्युरस्योस्याकारणान भवन्ति । परनिन्दा, आत्मा या दूसरोंके होते हुए गुगोको भी ढक देना और अपने अनहोत गुणोको भी प्रगट करना ये नीचगोत्र के आस्रवके कारण है | २५ | उनका विपर्यय अर्थात् आत्मनिन्दा परप्रशसा, अपने होते हुए भी गुणोको ढकना और दूसरेके अनहोत भी गुणोको प्रगट करना, उत्कृष्ट गुणवालोके प्रति नम्रवृत्ति और ज्ञानादिमे श्रेष्ठ होते हुए भी उसका अभिमान न करना, ये उच्चगोत्रके आसयके कारण है (व सा./२/५३-६४ )। रा.वा./६/२२/६/३१/१ जातिकुल मलरूपता स्वर्यतपोमपरावज्ञानीप्रहसन पर परिवादशीलता - धार्मिकजननिन्दात्मोत्कर्षान्ययशोवि - लोपासको पादन गुरुपरिभय सबुद्धट्टन-दोषख्यापन विडन स्थानीयमान पर्सन-गुणायसायन- अनलिस्टुत्यभिवादनाकरण तीर्थकवाद |
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रा. ना / ६ / २८/४/२३१/२० जातिकुल रूपवीर्यपरिज्ञानेश्वर्यविशेषअत आरमोरनिधानं परावरानीत्यनिन्दायासपरपरि वादन निवृत्ति विनिहतमानता धर्म्यजनपूजाभ्युत्थानाञ्जलिप्रणतिवन्दना ऐदयुगीनान्यपुरुषदुर्लभ गुणस्याप्यनुत्सिक्तता, अहकारात्यये
चिता भस्मात्तस्मे हुतभुज स्वमाहारम्याप्रकाशन धर्मसाधनेषु परमसंभ्रम इत्यादि । -जाति, बल, कुल, रूप, श्रुत, आज्ञा, ऐश्वर्य और तपका मद करना, परको अवज्ञा, दूसरेकी हॅसी करना, परनिन्दका स्वभाव धार्मिकजन परिहास, खरमोर परयका विलोप, मिथ्याकीर्ति अर्जन करना, गुरुजनोका परिभव, तिरस्कार, दोषख्यापन, विहेडन, स्थानावमान भर्त्सन, और गुणावसादन करना, तथा अजलिस्तुति अभिवादन - अभ्युत्थान आदि न करना, तीर्थकरोपर आक्षेप करना आदि नोचगोत्र के आस्रव के कारण है। जाति, मत रूप, मीर्य, ज्ञान, ऐश्वर्य और तप आदिको विशेषता होनेपर भी अपने में बडप्पनका भाव नहीं आने देना, परका तिरस्कार न करना, अनौद्धत्य, असूया, उपहास, बदनामी आदि न करना, मान नहीं करना, साधर्मी व्यक्तियोका सम्मान, इन्हे अभ्युत्थान अंजलि, नमस्कार आदि करना, इस युगमे अन्य जनोमें न पाये जानेवाले ज्ञान आदि गुणोके होनेपर भी, उनका र चमात्र अहकार नही करना, निरहंकार मत भस्मसे हॅकी हुई की तरह अपने माहा रम्यका हिंडोरा नहीं पीटना और धर्मसाधनों में अत्यन्त आवश्बुद्धि आदि भी उच्चगोत्रके आस्रवके कारण है। (भ.आ./ वि. / ४४६/ ६५३/३ तथा वहाँ उधृत ४ श्लोक )
गो क/यू./२०१६ ०४ तादिभतो सुत्तरुचीपमानही यदि चागादविवरीको मध्ये दर ८०१ - न्तादिमे भक्ति, सूत्ररुचि, अध्ययन अर्थविचार तथा विनय आदि इन गुणोको धारण करनेवाला उच्च कर्मको बाँधता है और इसमें विपरीत नीच गोत्रको बाँधता है ।
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७. उच्च-नीच गोत्र या वर्णभेदका स्वामित्व क्षेत्र आदि
०/१०२-१०३ अत्यमाह नरो नारीमा नारी नर निजम् । भोग मिरवीणा नाम साधारण हि तद् १०२ उत्तमा जातिरेकप चातुर्व पक्रिया न स्वस्वामि पुमा संबन्धोन लिङ्गिन । १ ३१ - वह पुरुष स्त्रीको आर्या और स्त्री पुरुषको आर्य कहती है । यथार्थ मे भोगभूमिज स्त्री-पुरुषोका वह साधारण नाम है । १०२ । उस समय सबकी एक ही उत्तम जाति होती है। वहाँ न ब्राह्मणादि चार वर्ण होते है और न हो बनि मंसि आदि वह कर्म होते हैं. न सेवक और स्वामीका सम्बन्ध होता है ओर न वेषधारी ही होते
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१. गोत्रकर्म निर्देश
देवस्था/१/४ (सभी देव भोगभूमि उद्यगोत्री तथा सभी नारकी, तिर्यंच व म्लेच्छ नीचगोत्री होते है | )
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घ. १२/१९/६ चगोदर मिच्छात जाम जोगकेवलि परिमसमओ तिउदीरणा अमरि मस्सो वा मसिगी वासिया उदीरेदि देवो देवी वा सजदों या नियमा उदीरेति संजदासंदो सिया उदीरेदि बोचगोदस्स मिच्याइटिप्पहूडि जाम संजदासंजदस्स उदीरणा । णवरि देवेसु णत्थि उदीरणा, तिरिखखणेरइएस नियमा उदीरणा, मणुदे खिया उदीरणा एवं सामित्तं समते -उसगोत्रकी उदीरणा मिध्यादृष्टिसे लेकर सयोगकेवली के अन्तिम समयतक होती है। विशेष इतना है कि मनुष्य और मनुष्यणी तथा संयतासंयत जीव कदाचित् उदीरणा करते है। देव देवी तथा संयत जीव उसकी उदीरणा नियमसे करते है । नीचगोत्रको उदीरणा मिथ्यादृष्टि से लेकर संयतासयत गुणस्थानतक होती है, विशेष इतना है कि देवो में उसकी उदीरणा सम्भव नहीं है, तियंचो व नारकियों में उसकी उदीरणा नियमसे तथा मनुष्यों में कदाचित होती है। म.पु / ७४ /४६४-४६५ अच्छेदो मुक्तियोग्याया विदेहे जातिसंतते । तो तुनामगोत्रीमाविनिनाद 1४४ देवयोस्तु चतुर्वे संतति एवं वर्णविभागः स्यान्मनुष्येषु जिना
गमे १४६५| विदेहक्षेत्र में मोक्ष जानेके योग्य जातिका कभी विच्छेद नही होता, क्योकि वह उस जाति कारणत नाम और गोत्रसे सहित] जीवो की निरन्तर उत्पत्ति होती रहती है | ४६४ | विन्तु भरत और रायत क्षेत्रमे चतुर्थकालने ही जातिकी परम्परा चलती है, अन्य कालो में नहीं। जिनागम में मनुष्योंका वर्ण विभाग इस प्रकार बताया गया है । ४६५|
त्रि. सा / ०१० सद पदोणमादिसं हृदिसठाण मज्जगामजुदा भोग भूमिज दंपति आर्य नामसे युक्त होते है । ( म. पु. /३/१५)
८. तियंचों व क्षायिक सम्यग्दष्टि संयतासंयतों में गोत्र सम्बन्धी विशेषता
प. ०/३.२०८/१८३/१०
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सयसम्माइसजदाराजवेस उचगोदस्स सोदओ णिरतरो बधो तिरिक्खेसु खइयसम्माइट्ठी सजदासजदाणमवल भादो । क्षायिक सम्यग्दृष्टि सयतासयतों में उच्चगोत्रका स्वोदय एवं निरन्तर बन्ध होता है, क्योंकि च क्षायिक सम्यदृष्टियों सयतासंयत जो पाये नहीं जाते।
घ. १४/१५२/४ तिरिक्खे जीयागोदस्स चेव उदीरणा होदिति भणिदे ण तिरिक्खेसु सजमासजम परिवालयतेस उच्चगोदत्तु बलं भादो |
प्रश्न- तियंचोमे नीचगोत्रकी ही उदीरणा होती है, ऐसी प्ररूपणा सर्वत्र की गयी है । परन्तु यहाँ 'उच्चगोत्रकी भी उनमें प्ररूपणा की गयी है, अतएव इससे पूर्वापर कथनमें विरोध आता है उत्तर-ऐसा कहनेपर उत्तर देते है कि इसमे पुत्रपर विरोध नहीं है, खोक समासयमको पालनेवाले तिर्यतोंमें उम्रगोत्र पाया जाता है।
९. गोत्रकर्मके अनुभाग सम्बन्धी नियम
१२/४२११८/४४०/२ सम्बुसविसोही हदसमुप्पत्तिये कावृण उपादानुभाग पेखिय मुहमसापराइएण सम्बद्धं म ममुचागो दुस्साधुभागस्स अगुण भादो गोदामागे विनोबाभागो अथिति णासकणिज्जं, बादरतेक्कारएम्पलिदोषमस्स अस खेज्जदिभागमेत्तका लेण उब्वेलिद उच्चागोदेसु अविसोहीए चादिदमीचागोदे गोदस्स भागमादो। ध. १२/४,२,१३.२०४/४४९/६ बादरतेउवा उक्काइएस उसविसोहीए पादिनीभागाकरियते जहणाभागेण सह उगदी मोजयतिसमयाहार- तिसमय तन्भवत्थस्स खेशेण सह भावो जहणओ किरण जायदे । ण,
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