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वर्णव्यवस्था
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१. गोत्रकर्म निर्देश
होनेके कारण प्रवज्याके योग्य नहीं है। वह केवल उत्कृष्ट श्रावक तक हो सकता है।
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गोत्रकर्म निर्देश गोत्रक्रर्म सामान्यका लक्षण । गोत्रकर्मके दो अथवा अनेक भेद । | उच्च व नीचगोत्र के लक्षण। गोत्रकर्मके अस्तित्व सम्बन्धी शंका । उच्चगोत्र व तीर्थकर प्रकृतिमें अन्तर । उच्च नीचगोत्रके बन्धयोग्य परिणाम । उच्च नीचगोत्र या वर्णभेदका स्वामित्व व क्षेत्र
आदि। | तिर्यचों व क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयतोंमें गोत्र
सम्बन्धी विशेषता। गोत्रकर्मके अनुभाग सम्बन्धी नियम । दोनों गोत्रोंका जघन्य व उत्कृष्ट काल। गोत्रकर्म प्रकृतिका बन्ध उदय सत्त्वरूप प्ररूपणाएँ।
-दे०वह वह नाम। गोत्र परिवर्तन सम्बन्धी -दे० वर्ण व्यवस्था/३/३ । वर्णव्यवस्था निर्देश | वर्णव्यवस्थाकी स्थापनाका इतिहास । २ / जैनाम्नायमें चारों वर्णोंका स्वीकार ।
केवल उच्चजाति मुक्तिका कारण नहीं है। ४ वर्णसाकर्यके प्रति रोकथाम ।
उच्चता व नीचतामें गुणकर्म व जन्मकी ___ कथंचित् प्रधानता व गौणता कथंचित् गुणकर्मकी प्रधानता। गुणवान नीच भी ऊँच है। | सम्यग्दृष्टि मरकर उच्चकुलमें ही उत्पन्न होता है।
-दे० जन्म/३१॥ उच्च व नीच जातिमें परिवर्तन । कथंचित् जन्मकी प्रधानता। गुण व जन्मकी अपेक्षाओंका समन्वय । | निश्चयसे जीवमें ऊँच नीचके भेदको स्यान नही।
शूद निर्देश शुद्रके भेद व लक्षण। नीचकुलं नके घर साधु आहार नहीं लेते उनका । स्पर्श होनेपर स्नान करते है। -दे० भिक्षा/३ । * नीच कुलीन व अस्पृश्यके हाथके भोजनपानका निषेध
-दे० भक्ष्याभक्ष्य/१ । रपृश्य शूद्र ही क्षुल्लक दीक्षाके योग्य है। कृषि सवोत्कृष्ट उद्यम है
-दे० सावद्य/६।
१.गोत्रकर्म निर्देश
१. गोत्रकम सामान्यका लक्षण स सि //३.४ पृष्ठ/पंक्ति गोत्रस्योच्चैर्नीचै स्थानसशब्दनम्। (३७६/ २)। उच्चैर्नीचैश्च गूयते शब्द्यत इति वा गोत्रम् । (३८१/१)।
१. उच्च और नीच स्थानका सशब्दन गोत्रकर्मकी प्रकृति है। (रा. वा/८/३/४/५६७/५)। २. जिसके द्वारा जीव उच्च नीच गूयते अर्थात कहा जाता है वह गोत्रम है। रा वा./६/२५/५/५३१/६ गूयते शब्द्यते तदिति गोत्रम्, औणादिकेन
वटा निष्पत्ति । - जो गूयते अर्थात् शब्द व्यवहारमें आवे वह गोत्र है। ध६/१,६१,११/१३/७ गमग्रत्युच्चनीचकुलमिति गोत्रम् । उच्चनीचकुलेसु
उप्पादओ पोग्गलक्वधो मिच्छत्तादिपच्चएहि जीवसबद्धो गोद मिदि उच्चदे। - जो उच्च और नीच कुलको ले जाता है, वह गोत्रकर्म है। मिथ्यात्व आदि बन्धकारणोके द्वारा जीवके साथ सम्बन्धको प्राप्त, एवं उच्च और नोच कुनोमे उत्पन्न करानेवाला पुद्गलस्कन्ध गोत्र'
इस नामसे कहा जाता है।। ध ६/१,६-१,४५/७७/१० गोत्र कुल वंश सतानमित्येकोऽर्थ -गोत्र ___ कुल, वंश, और सन्तान ये सत्र एकार्थवाचक नाम है। ध १३/५,५,२०/२०६/१ गमयत्युच्चनीच मिति गोत्रम् । जो उच्च
नोचका ज्ञान कराता है वह गोत्र कर्म है। गो. क./मू /१३/६ सताणकमेगागयजीवायरणस्स गोद मिदि सण्णा। ...१३-सन्तानकमसे चला आया जो आचरण उसकी गोत्र
संज्ञा है। द्र. स /टी/३३/१३/१ गोत्रकर्मण का प्रकृति । गुरु-लघुभाजनकारककुम्भकारवदुच्चनीचगोत्रकरणता।-छोटे बडे घट आदिको बनानेवाले कुम्भकारको भॉति उच्च तथा नीच कुलका करना गोत्रकर्मकी प्रकृति है।
२. गोत्रकर्म के दो अथवा अनेक भेद । ष. रख /६/१,६-१/सू. ४५/७७ गोदस्स कम्मस्स दुवे पयडीओ, उच्चागोदं
चेव णिचागोद चेव ॥४॥ = गोत्रकर्मकी दो प्रकृतियाँ है---उच्चगोत्र और नीचगोत्र । (ष ख १३/५.सु १३५/३८८), (मू. आ./१२३४), ( त सू./८/१२), (प.स/प्रा/२/४/४८/१६), (घ १२/४,२,१४,१६/४८४/१३), (गो क /जी प्र./३३/२७/२)। ध. १२/४,२,१४,१६/४८४/१४ अवातरभेदेण जदि वि बहुआवो अस्थि तो वि ताओ ण उत्ताओ गथबहुत्त भएण अस्थावत्तीए तदवगमादो। = अवान्तर भेदसे यद्यपि वे ( गोत्रकर्मको प्रकृतियाँ ) बहुत है, तो भी ग्रन्थ बढ जानेके भयले अथवा अपित्ति से उनका ज्ञान हो जानेके कारण उनको यहाँ नही कहा है।
३. उच्च व नीचगोत्रके लक्षण स सि./८/१२/३६४/१ यस्योदय लोक्पूजितेषु कुलेषु जन्म तदुच्चैगर्गोत्रम् । यदुस्याइगर्हितेषु कुलेषु जन्म तनोचर्गोत्रम् । = जिसके उदयसे लोक पूजित कुलो में जन्म होता है यह उच्चगेत्र है और जिसके उदयसे गर्हित कुलो मे जन्म होता है वह नीचगोत्र है। (गो.
क /जी प्र./१३/३०/१७) । रा.वा./८/१२/२ ३१५८०/२३ लोपूजितेषु कुलेषु प्रथितमाहात्म्येषु इक्ष्वाकुनकुरहरिज्ञातिप्रभृतिषु जन्म सर योदयाद्भवति तदुच्चे गोत्रमवसेयम् ।२। गर्हितेषु दरिद्राप्रतिज्ञातदु वाकुलेषु यत्त प्राणिना जन्म तन्नोगौत्र प्रत्येतव्य ।। रा वा /६/२५/६/५३१/७ चे स्णाने येनारमा क्रिगते तन्नीचैर्गोत्रम् ।
- जिसके उदपले महत्नशानो अर्थात् इक्ष्वाकु उग्र, बुरु, हरि और ज्ञाति आदि व शो में जन्म हो ह उच्चगोत्र है। जिसके उदय
| तीन उच्चवर्ण ही प्रव्रज्या के योग्य है।
-दे० प्रव्रज्या /१/२।।
जनन्द्र सिद्धान्त कोश
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