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वर्गणा
२ वर्गणा निर्देश
३. ऊपर व नीचेकी वर्गणाओं के भेद ब संघाउसे वर्गणाओंकी उत्पत्ति प्रमाण-प. स्व. १४/५.६॥सू. १८-११६/१२०-१२३ । संकेत-भेद-ऊपरके द्रव्यके भेद द्वारा उत्पत्ति।
संघात-नीचे के द्रव्यके सघात द्वारा उत्पत्ति । भेदसंघात स्वस्थानमें भेद व सघात द्वारा।
सं०
सूत्र सं०
वर्गणाका नाम
उत्पत्ति विधि | भेद | संघात | भेदसघात
ध.१४/५,६,७२६/५४५/११ तत्थ आहार-तेज-भासा-मणकम्मइयवग्गणाओ गणपाओग्गाओ अवसेसाओ अगहण पोओग्गाओ त्ति घेत्तव्य । - एक प्रदेशी, द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी, सख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रवेशी और अनन्तप्रदेशी वर्गणाएँ तो नियमसे ग्रहणके अयोग्य है। परन्तु अनन्तानन्तप्रदेशी वर्गणाओंमें कुछ ग्रहणयोग्य है और कुछ ग्रहण के अयोग्य । सूत्र ७२०-७२६ । उनमेंसे आहारवर्गणा, तेजस्वर्गणा, भाषावर्गणा, मनोवर्गणा और कार्मणवर्गणा ये (तो) ग्रहणप्रायोग्य है, अवशेष (सर्व) अग्रहणप्रायोग्य है ऐसा ग्रहण करना चाहिए। (और भी दे० अगला शीर्षक)।
५. अव्यवहार्य भी अन्य वर्गणाओंका कथन क्यों किया ध. १४/५,६,८८/६४/७ 'आहार-तेजा-भासा-मणकम्मइयवग्गणाओ चैव एस्थ परूवेदधाओ, बंधणिज्जत्तादो, ण सेसाओ, तासि बंधणिज्जत्ताभावादो। ण, सेसवग्गणपरूवणाए विणा बंधणिज्जवग्गणाणं परूवणोवायाभावादो वदिरेगावगमणेण विणा णिच्छिदण्णयपच्चयउत्तीए अभावादो वा ।प्रश्न-यहाँपर आहार, तंजस्, भाषा, मनो, और कार्मण ये पाँच वर्गणा ही कहनी चाहिए, क्योकि वे बन्धनीय है। शेष वर्गणाएं नहीं कहनी चाहिए, क्योकि, वे बन्धनीय नही है। उत्तर-नहीं, क्योकि, शेष वर्गणाओका कथन किये बिना बम्धनीय वर्गणाओंके कथन करनेका कोई मार्ग नही है। अथवा व्यतिरेकका ज्ञान हुए बिना निश्चित अन्वयके ज्ञान में वृत्ति नही हो सकती, इसलिए यहाँ अन्धनीय व अबन्धनीय सत्र वर्गणाओका निर्देश किया है।
६८-६१
| एक प्रदेशी २१००-१०३ संख्यात प्रदे०
असंख्यात प्रदे०
अनन्त प्रदेशी १०४-१०५ आहार वर्गणा
[प्रथम अग्राह्य तेजस् वर्गणा द्वि० अग्राह्य ३० | भाषा वर्गणा तृ० अग्राह्य वर्ग मनो वर्गणा चतु अग्राह्य वर्गणा
| कार्मण वर्गणा | १०६-१०८ | वस्कन्ध वर्गणा
| सान्तरनिरन्तर व०
प्र० भ्र वशून्य वर्ग -११० | प्रत्येक शरीर वर्गणा ____x द्विध्र वशून्य व० ११९-११२ बादरनिगोद वर्गणा
तृ०५ क्शून्य वर्ग २१ | ११३-११४ सूक्ष्म निगोद वर्गणा | २२ x | चतुर्थ ध वशून्य व० २३ | ११५-११६ महास्कन्ध व०
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दे० स्कन्ध-(सूक्ष्मस्कन्ध तो भेद, संघात व भेदसघात तीनों प्रकारसे
होते हैं, पर स्थूलस्कन्ध भेदसंघातसे होते है) दे० वर्गणा/२/८ (ध बशून्य तथा बादर व सक्ष्म निगोद वर्गणाएँ भी
ऊपरी द्रव्यके भेद व नीचेके द्रव्यके सघात द्वारा उत्पन्न होने सम्भव है।)
१. शरीरों व उनकी वर्गणाओमें अन्तर ध. १४/५,६,११७/२२४/१ पुव्वुत्ततेवीसवग्गणाहितो पंचसरीराणि पुधभूदाणि त्ति तेसि बाहिरववएसो। त जहाण ताव पचसरीराणि अचित्तबग्गणासु णिवदंति, सचित्ताण मचित्तभाव विरोहादो। ण च सचित्तबग्गणासु णिवदति, विस्सासुवचएहि विणा पचण्ह सरीराण परमाणूण चेत्र गहणादो। तम्हा पंचण्हं सरीराण बाहिरवग्गणा त्ति सिद्धा सण्णा । तेईस वर्गणाओमें से पाँच शरीर पृथग्भुत है, इसलिए इनकी बाह्य संज्ञा है। यथा-पॉच शरीर अचित्त वर्गणाओगें तो सम्मिलित किये महीं जा सकते, क्योकि, सचित्तोको अचित्त मानने मे विरोध आता है। उनका सचित्त वर्गणाओं में भी अन्तर्भा नहीं होता, क्योंकि, विस्वसोपचयो के बिना पॉच शरीरोके परमाणुओका ही सचित्त वर्मणाओमें ग्रहण किया है। इसलिए पाँच शरीरोकी बाह्य वर्गणा यह संज्ञा सिद्ध होती है। ७. वर्गणाओं में जाति भेद सम्बन्धी विचार १ वर्गणाओमें जाति भेदका निर्देश गो. जी /जी प्र./५६४-५६५/१०३३। पर उत श्लोक-मूतिमत्सु पदार्थेषु ससारिण्यपि पुद्गल । अर्मकर्मनाकर्म जातिभेदेषु वर्गणा ॥१॥ मूर्तिमान पदार्थो व स सारी जीमो मे पुदगन शब्द वर्तता है और कर्म, अकर्म व नोकर्मकी जाति भेदवाले पुदगलों में वर्गणा शब्दकी प्रवृत्ति होती है। २ तीनों शरीरोंकी वर्गणाओमें कथचित् भेदाभेद ध.१४/५,६,७३१/५४७/८ जदि एदेसि तिष्ण सरीराण बग्गणाओ ओग्गाहणभेदेण सखाभेदेण च भिण्णाओ ता आहारदानग्गणा एको चेवे त्ति किमठ्ठ उच्चदे । ण, अगहणवग्गणाहि अतराभाव पड्डच्च तासिमेगत्तु वएसादो। ण च संग्बाभेदो असिद्धो, अपरिभण्णमाणअप्पाबहुएणेव तस्स सिद्धोदो।प्रश्न-यदि (औदारिक, बै क्रियक व आहारक) इन तीन शरीरो की वर्गणाएं अवगाहनाके भेदसे और
४. पाँच वर्गणाएँ ही व्यवहार योग्य हैं अन्य नहीं प.व.१४/५.६/सू.७२०-७२६/५४४ अगहणपाओग्गाओ इमाओ एयपदेसिय
सञ्चपरमाणुपोग्गलदबवग्गणाओ।७२०। इमा दुपदेसियपरमाणुपोगल इनवग्गणा णाम किं गहणपाओग्गाओ किमगहणपाओग्गाओ।७२१॥ अगहणपाश्रोग्गाओ ।७२२॥ एवं तिपदेसिय-चदुपदेसिय-पचपदेसियछप्पदेसिय-सत्तपदेसिप-अठ्ठपदे सिय-गवपदेसिय-दसपदेसिय-सखे - ज्जपदेसिय-असंखेज्जादेसिय-अण तपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्बवग्गणा णाम किं गहगपाओग्गाओ किमगहणपाओग्गाओ।७२३। अगहणपाओसाओ ७२४। अग ताणंतपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्यवग्गणा णाम कि गहणपाओग्गाओ किमगहण पोओग्गाओ।७२५॥ काओ चि गहणपाओ. ग्गाओ काओ चि अगहणपाओग्गाओ७२६।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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