Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 521
________________ वर्गणा ५१४ २. वर्गणा निर्देश एसा वि अगहणवग्गणा चेब, आहारतेजा-भासा-मण-कम्माणजोगत्तादो । (६५/२) । अदीदाणागद पट्टमाणकालेसु एदेण सरूवेण परमाणुपोग्गलसचयाभावादो धुवसुण्णदव्ववग्गणा त्ति अत्थाणुगया सण्णा । सपहि उकस्ससांतरणिरतरदव्यवग्गणाए उबरि परमाणुत्तरो परमाणुपोग्गलक्खधो तिसु वि कालेसु णस्थि । दुपदेसुत्तरो वि णत्थि । एव । तिपदेसुत्तरादिकमेण सव्वजोवेहि अणतगुणमेत्तमद्धाण गतूण पढमधुवसुण्णवरगणाए उक्कस्सवग्गणा होदि। एसा सोलसमी वग्गणा । सम्यकाल सुण्णभावेग अवठ्ठिदा । यह ध्र वस्कन्ध पदका निर्देश अन्तर्दीपक है। इससे पिछली सब वर्गणाएँ ध्र व ही है अर्थात् अन्तरसे रहित है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहाँसे लेकर आगे कही जानेवाली सब वर्गणाओमें अग्रहणपनेकी निरन्तर अनुवृत्ति करनी चाहिए । ( ६४/१)। जो वर्गणा अन्तरके साथ निरन्तर जाती है, उसकी सान्तर-निरन्तर द्रव्यवर्गणा सज्ञा है। यह सार्थक सज्ञा है। (६४/१२)। ग्रह भी अग्रहण वर्गणा ही है, क्योकि यह आहार, तेजस्, भाषा, मन और कर्म के अयोग्य है। (६/२)। अतीत अनागत और वर्तमान काल मे इस रूपसे परमाणु पुद्गलोंका संचय नहीं होता, इसलिए इसको ध्र वशून्य द्रव्यवर्गणा यह सार्थक सज्ञा है। उत्कृष्ट सान्तरनिरन्तर द्रव्यवर्गणाके ऊपर एक परमाणु अधिक परमाणुपुद्गलस्कन्ध तीनो ही कालोमें नही होता, दो प्रदेश अधिक भी नहीं होता, इस प्रकार तीन प्रदेश आदिके क्रमसे सब जोवोसे अनन्तगुणे स्थान जाकर प्रथम शून्य द्रव्यवर्गणा सम्बन्धी उत्कृष्ट वर्गणा होती है । यह सोल वी वर्गणा है जो सर्वदा शून्यरूपसे अबस्थित है। ध, १३/५.५,८२/३५१/१६ एरथ तेवीस वग्गणासु चदुसु धुवसुण्णवग्गणासु अवणिदासु एगूणवीस दिविधा पोग्गला होति । पादेक्कमणतभेदा। तेईस बर्गणाओमेसे चार ध व शून्यवर्गणाओके निकाल देनेपर उन्नीस प्रकारके पुद्गल होते है। और वे प्रत्येक अनन्त भेदोको लिये हुए है। विशेषार्थ- (शीष क स १ के अनुसार जबतक वर्गणाओमे एक प्रदेश या परमाणुकी वृद्धिका अटूट क्रम पाया जाता है, तबतक उनकी एक प्रदेशी व आहारक वर्गणा आदि विशेष सज्ञाएँ कही जाती है । ध्र प्रस्कन्धवर्गणा तक यह अटूट क्रम चलता रहता है। तत्पश्चात् एक वृद्धिक्रम भ ग हो जाता है। एक प्रदेश वृद्धिके कुछ म्यान जाने के पश्चात् एकदम सरूपात या अपरूयात प्रदेश अधिकवाली ही वर्गणा प्राप्त होती है, उससे कमकी नही। पुन एक प्रदेश अधिक्वालो और पुन स ख्यात आदि प्रदेश अधिकवाली वर्गणाएँ यातक प्राप्त होती रहती है, तबतक उनको सान्तरनिरन्तर वर्गणा सज्ञा है, क्योकि वे कुछ-कुछ अन्तराल छोडकर प्राप्त होती है। तत्पश्चात एकसाथ अनन्त प्रदेश अधिक वाली वर्गणा ही उपलब्ध होती है। उसमे कम प्रदेशोंवाली वगणा तीन कालमे भी उपलब्ध नही हातो। इसलिए यह स्थान नर्गणाओसे सर्वथा शून्य रहता है। जहाँ-जहाँ भी प्रदेश वृद्धिक्रममे ऐसा शून्य स्थान प्राप्त होता है, वहाँ-वहाँ हो ध व शुन्य वर्गणाका निर्देश किया गया है। यही कारण है कि इन ४ ५ बशन्य वर्गणाओको पुद्गलरूप नहीं गिना है। ये सत् रूप नहीं है। शेष १६ वर्गणाएँ सत रूप होनेसे पुद्गल सज्ञाको प्राप्त है)। ८. प्रत्येक शरीर व अन्य वर्गणाओंके लक्षण ध १४/५.६/सूत्र/पृष्ठ/यक्ति एककस्स जीवस्स एकम्हि देहे उबचिदकम्म ण कम्मायचा पत्ते यसरीरदयवरगणा णाम । (११/६५/१२) । बादरमुहूनणिगादेहि अस बजावा पत्ते यसरीरवाणा त्ति घेत्तव्या। । (११६/१४18)। चण्ह सरीरराण बाहिरवग्गणा त्ति सिद्धा सण्णा । ( ११७/२२३/४ )- एक-एक जीवके एक-एक शरीरमें उपचित हुए कमें और नो कमस्कन्धोको प्रत्येक शरीर द्रब्यवर्गणा सज्ञा है। बादर निमोद और सूर मनिगोदसे असम्बद्ध जीव प्रत्येकशरीर वर्गणा होते है। पॉच शरीरोको बाह्यवर्गणा यह संज्ञा सिद्ध होती है (दे० वर्गणा/२/६ )। दे. बनस्पति/१/७ ( प्रत्येकशरीरवर्गणा असरख्यात लोक प्रमाण है)। दे. बनस्पति/२/१०( बादर व सूक्ष्म निगोद वर्गणा आवलिके असंख्यात भागप्रमाण है)। ध. १४/५,६,७८/१८/९ परित्त-अपरित्तवग्गणाओ सुत्तु दिठाओ अण त पदेसियवग्गणासु चेव णिवदंति। अणंत अणंताणं तेहितो वदिरित्तपरित्तअपरित्ताणमभावादो-परीत और अपरीत वर्गणाएँ अनन्तप्रदेशी वर्गणाओमें ही सम्मिलित है, क्योकि, अनन्त व अनन्तानन्तसे अतिरिक्त वे उपलब्ध नहीं होती। २. वर्गणा निर्देश 1. वर्गणाओं में प्रदेश व रसादिका निर्देश ष ख. १४/५,६/ सूत्र ७५६-७८३/५५४-५५६ पदेसछाओरालियसरीरदव्ववग्गणाओ पदेसट्ठा अणं ताणत पदेसियाओ ।७५६। पंचवण्णाबो ७६०। पंचरसाओ ।७६१। दुगधाओ ७६२। अट्ठफासाओ 1७६३। वेउब्बियसरीरदव्यवग्गणाओ पदेसदाए अणंताणं तपदेसिया ओ।७६४। पचवण्णाओ (७६५। पंचरसाओ ॥७६६। दुगंधाओ ।७६७। अठ्ठफासाओ ।७६८४ आहारसरीरदव्ववग्गणाओ पदेसट्ठदाए अर्णताण तपदेसियाओ ७६। पचवण्णाओ७७०। पंचरसाओ ७७१। दुगंधाओ।७७२१ अट्ठफासाओ।७७३। तेजासरीरदव्यवग्गणाओ पदेस ठदाए अण ताणतपदेसियाओ ।७७४। पंचषण्णाओ १७७५ पंचरसाओ १७७६ दोगधाओ।७७७) चदुपासाओ १७७८। भासा. मण-कम्मइयसरीरदवग्गणाओ पदेसदाए अणं ताणंत पदेसियाओ।७७६। पचवण्णाओ७८०। पंचरसाओ (७८१॥ दुगंधाओ १७८२। चदुपासाओ ।७८३१ - (आहारकवर्गणाके अन्तर्गत) औदारिक, वै क्रियक व आहारक शरीरोकी वर्गणा अनन्तानन्त प्रदेशवाली है। पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध व आठ स्पर्शवाली है 1७५६-७७३। तैजस्, भाषा, मनो व कार्मण ये चारो वर्गणाएँ अनन्तानन्त प्रदेशवाली है । पाँच वर्ण, पाँच रस, दो गन्ध और चार स्पशवाली है १७७४ ७८३) ध/पु. १४/५,६,७२६/५४५/१० आहारवग्गगाए जहण्णवग्गणप्पर डि जाव महाक्रबंधदव्बवग्गणे त्ति ताव एदाओ अणंताणतपदेसियवग्गणाओ त्ति एत्य मुत्ते घेत्तव्बाओ । आहार वर्गणाकी जघन्य वर्गणासे लेकर महास्कन्ध द्रव्यवर्गणा तक ये सब अनन्तानन्तप्रदेशी वर्गणाएँ है, इस प्रकार यहाँ सूत्र में ग्रहण करना चाहिए। दे अन्पब हुत्व/३/४ -(औदारिक आदि तीन शरीरोकी वर्गणाएँ प्रदेशाथताकी अपेक्षा उत्तरोत्तर असंख्यात गुणी है । तथा इससे आगे तैजस्. भाषा, मन व कार्मण शरीर वर्गणाएँ उत्तरोत्तर अनन्तगुणी है। अवगाहनाकी अपेक्षा कार्मण, मनो, भाषा, तेजस्, आहारक, वै क्रियक व औदारिककी वर्गणाएँ क्रमसे उत्तरोत्तर असरख्यात गुणी है। औदारिक आदि शरीरोमें विससोपचौंका प्रमाण क्रमसे उनके जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्त उत्तरोत्तर अनन्तगुणा है। २. प्रदेशोंकी क्रमिक वृद्धि द्वारा वर्गणाओंकी उत्पत्ति ष ख १४/५,६/सूत्र/पृष्ठ-वग्गणपरूवणदाए इमा एयपदेसियपरमाणुपोग्गलदम्बवग्गणा णाम । (७६/५४ ) । इमा दुपदेसियपरमाणुपोग्गलदावग्गणा णाम । (७०/५५) । एवं तिपदे सय-चदुपदेसिय-पंचपदेसिय छप्पदेसिन सत्तपदेसिय-अठ्ठपदेसिय, वपदेसिय-सपदेसिय-सखे जपदेसिय-असखेज्जपदे सिय-परिसपदेसिय-अपरित्तपदे - सिप-अण तपदेसिय-अणं ताणं तपदेसियपरमाणुपोग्गल दव्य वग्गणा णाम (७८/५७)। अग ताणतपदेसियपरमाणुपोग्गलदब्बवग्गणाणमुवरि आहारद नवग्गणा णाम। (७६/५६)। आहारदव्यवग्गणाणमुवरि अगहणदयवग्गणा जाम। (८०/५६)। अग्गण दववग्गणाण जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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