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यश:कीति
१राज
यथातथानुपूर्वी
उसी प्रकारके यथाजात रूपको जो धरता है, वही यथाजातरूपधर अर्थात समस्त परिग्रहोंसे रहित हुआ कहा जाता है। यथातथानुपूर्वी-दे० आनुपूर्वी। 'यथार्थ-न्या.वि././१/२८/२८२/११ यो येन स्वभावेन स्थितोऽर्थ.
स यथार्थस्तमिति । -जो पदार्थ जिस स्वभावसे स्थित है, उसको यथार्थ कहते हैं। यदु-हरिवंशका एक राजा था, जिर. यादव वंशकी उत्पत्ति हुई
थी। (ह. पू./१८/५-६) (वे. इतिहास/१०/१०)। यवृष्ट-आलोचनाका एक दोष-दे० आलोचना/२। यम-१.० लोकपाला। २. भोग व उपभोग्य वस्तुओंका जो
जीवन पर्यन्त के लिए त्याग किया जाता है उसको यम कहते है। (दे० भोगोपभोग परिमाणवत: ३. कालाग्नि विद्याधरका पुत्र था। (प.पु./८/११४) इन्द्र द्वारा इसको किष्कपुरका लोकपाल बनाया है। (प. पु./८/९९५) फिर अन्तमें रावण द्वारा हराया गया था। (प.पू./८/४८१-४८५)। ४. देवैवस्वत यम। यमक-विदेह क्षेत्रके उत्तरकुरु व देवकुरुमें सीता व सोतोदा नदीके दोनों तटॉपर स्थित चित्रकूट, विचित्रकूट, यमकूट व मेधकूट नामवाले
चार कूटाकार पर्वत ।-दे० लोक/३/८। यमदंड-रावणका मन्त्री था (प. पृ/६६/११.) । यमदग्नि-एक बाल ब्रह्मचारी तापसी था। पक्षी वेशधारी दो देवोंके कहनेसे एक छोटीसी लड़कीको पालकर पीछे उससे विवाह किया, जिससे परशुरामकी उत्पति हुई। (बृ. क. को./कथा/५६/ पृ.१६-१०३)।
यवमुरजक्षेत्र-(ज. प./३१ यह आकृति क्षेत्रके उदग्र समतल द्वारा प्राप्त छेद (Verticalsection) है। इसका विस्तार राजु यहाँ चित्रित नहीं है। यहाँ मुरजका क्षेत्रफल (रा. + १रा)
२}x१४ रा. = {x ३}x१४=३४६३ वर्गराजु इसलिए, मुरजका धनफल %D३४७ = ४३ धनराजु२२०३ धनराजु । एक यवका क्षेत्रफल-(रा.२)x राजु-३ x** वर्गराजु, इसलिए, २५ यवका क्षेत्रफल - २४१-३५ घनराजु-१२२३ । घनराजु।
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हटा०
११राज
नराजु-१२२६ MOM
यशःकोति-१. नन्दीसघ बलात्कारगणकी गुर्वावलीके अनुसार (दे० इतिहास ) आप लोहाचार्य ततीयके शिष्य तथा यशोनन्दिके गुरु थे। समय-श-सं१५३-२११(ई.२३१-२६६)।-दे० इतिहास५/१३ । २.काष्ठासंघकी गुर्वावलीके अनुसार आप क्षेमकीतिके गुरु थे। समय-वि. १०३० ई० ६७३ (प्रद्युम्नचरित्र/प्र. प्रेमी); (ला. सं./ १४६४-७०)-दे० इतिहास/५/६। ३. ई..श. १३ में जगत्सुन्दरी प्रयोगमालाके कर्ता हुए थे। (हि जै. सा. इ./३०/कामताप्रसाद )। ४. आप ललितकोर्तिके शिष्य तथा भद्रबाहूचरितके क्र्ता रत्ननन्दि न०२ के सहचर थे। आपने धर्मशर्माभ्युदयको रचना की थी। समय-वि०१२६६ ई०१२३६.1 (भद्रबाह चरित/प्र/७/कामता) धर्म, शर्माभ्युदय/प्र.प पन्नालाल । चन्दयह चरिउकेरी अप'श
वि।समय-वि.श.११ का अन्त १२ का प्रारम्भ । (ती./४/१७८)' ६. काष्ठासंघ माथुर गच्छ के यशस्वी अपभ्रंश कवि। पहले गुण कीति भट्टारक (वि. १४६८-१४८६) के सहधर्मा थे, पीछे इनके शिष्य हो गये। कृतिय-पाण्डव पुराण, हरिव श पुराण, जिणत्ति कहा। समय-वि.१४८६-१४६७) ई. १४२६-१४४०) । (ती./३/३०८)। ७. पद्यनन्दि के शिष्य क्षेमकीर्ति के गुरु । लाटीसंहिता की रचना के लिए पं राजमाल जी के प्रेरक । समय-बि ६१६(ई १५५६).
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यमदेव-भद्रशाल वनस्थ नील दिग्गजेन्द्र, स्वस्तिक व अंजन
शैलोका रक्षक देव-दे. लोक/७ । यमलोक-भगवान वीरके तीर्थमें अन्तकृत केवली हुए हैं-दे०
अन्तकृत। यव-क्षेत्रका एक प्रमाण विशेष-दे० गणित/II/31 यवमध्य-दे० योग/१४ । यवमध्य क्षेत्र-(ज. प./प्र. ३१. ३२) यह आकृति, क्षेत्रके उदग्र समतल द्वारा प्राप्तछेद्र ( Verticalsection ) है। इसका आगे पीछे (उत्तर-दक्षिण) विस्तार ७ राजु यहाँ चित्रित नहीं है। यहाँ यवमध्यका क्षेत्रफल - (१.२)x १४ वर्ग राजु, इसलिए ३५
VPR/१३/१
चारशरा यजमध्यका क्षेत्रफल -६४३५ । -४६ वर्ग राजुः इस प्रकार ३५ V२८/२०/२२४ यवमध्यका धनफल-४६४७ धनराजु-३४३ षनराजु और एक यवमध्यका घनफल-३४३-१९३२५/20/२६VARVA मापन-उपप
व राजू श्रनसगराए क्नराजु। यवन-१.भरतक्षेत्र उत्तर आर्य खण्डका एक देश-दे० मनुष्य/ २. यूनानका पुराना नाम है। (म.पू./प्र.५०/पज्ञालाल)।
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यशःकोतिस.सि./9/११/३६२/६ पुण्यगुणल्यापनकारणं यश कीर्तिनाम। तत्प्रत्यनीकफलमयश कीर्तिनाम । -पुण्य गुणोंकी प्रसिद्धिका कारण यश-कीर्ति नामकर्म है। इससे विपरीत फलवाला अयश कीति नामकर्म है ( रा. वा./६/११-१२/१७४/३२); (गो. क जी.प्र./३१
३०/१६)। ध,4/१६-१.२८/६६/१ जस्स कम्मस्स उदएण संताणमसंताणं वा गुणाणमुम्भावणं लोगेहि कोरदि, तस्स कम्मस्स जसकित्तिसण्णा । जस्स कम्मस्सोदएण सताणमसताणं वा अवगुणाणं उन्भावणं जमेण कीरदे, तस्स कम्मस्स अजस कित्तिसग्णा। -जिस कमके उदयसे विद्यमान या अविद्यमान गुणोंका उद्भावन लोगों के द्वारा किया जाता है, उस कर्मकी 'यश-कीर्ति' यह संज्ञा है। जिस कर्मके उदयसे विद्यमान अवगुणोंका उद्भावन लोक द्वारा किया जाता है, उस कर्मकी 'अयशकीर्ति यह मंज्ञा है। (ध. १३/५,४,१०१/१५६/५)।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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