Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 411
________________ रामल्य ४०४ रुचिर रामल्य-दे० स्थूलभद्र। १३ को पारणा, १४ को उपवास, १५ को पारणा करे। इसे ८ वर्ष पर्यन्त करे तथा नमस्कार मन्त्रकी त्रिकाल जाप्य करे। (वतविधान रामानुज वेदांत-अपरनाम विशिष्टाद्वैत-दे. वेदांत/४ । स./पु. १४)। रामसेन-१. इन्होंने मथुरा नगरमें माथुरसघ चलाया।वीरसेन के रुक्मपात्रांकित तीर्थमंडलयंत्र-दे० यन्त्र । शिष्य । समय-वि, ८८०-६२८ (ई. ८२३-८६३) । (दे. इतिहास/ रुक्मपात्रांकित वरुणमंडल यंत्र-दे० यन्त्र । ७/११) । २. सेन सघी आचार्य । गुरु-नागसेन (ई. १०४७)। शिक्षा रुक्मपात्रांकित व्रजमंडलयंत्र-यन्त्र। गुरु-बीरचन्द, शुभदेव, महेन्द्रदेव, विजयदेव, रामसैन । कृतितत्वानुशासन । समय-ई. श. ११ का उत्तरार्ध । (ती/३/२३२-२३८) रुक्मि -१. रा. वा./३/११/४/१८३/२८ रुक्मसद्भावाद्गुरुमीत्यभिधा३. काष्ठासंघ के अनुसार क्षेमकीर्ति के शिष्य, रत्नकीर्ति के गुरु । नम् । = (रम्यक क्षेत्रके उत्तर में स्थित पूर्वापर लम्बायमान वर्षधर समय-वि १४३१ (ई. १३७४) । (दे. इतिहास/७/)। पर्वत है) क्योकि इसमें चॉदी पायी जाती है इसलिए इसका रुक्मि रायचद-गुजरात देशमें राज्यान्तरगत ववणिया गॉवमें खजी भाई नाम रूढ है। २ रुक्मिपर्वत के विस्तारादिके लिए-दे० लोक/६/४। पंचाणभाई मेहताके पुत्र थे। माताका नाम देवाबाई था। कार्तिक ३. रुक्मि पर्वतस्थ एक कूट-दे० लोक ५/४,४. रुक्मि पर्वतस्थ रुक्मि शु. १५ वि. सं. १९२४ (ई. १८६७) में आपका जन्म हुआ। आपको कूटका स्वामी-दे० लोक/५/४५. कुण्डिनपुरके राजा भीष्मका पुत्र जाति स्मरण था, तथा आप शतावधानी थे। केवल ३४ वर्षकी आयु था। बहन रुक्मिणोके कृष्ण द्वारा हर लिये जानेपर कृष्ण से युद्ध में चैत्र कृ. वि. स. १९५७ को आपका स्वर्गवास हो गया । समय किया, जिसमें बन्दी बना लिया गया (ह पु./४२/६५) १६०० (का अ./प्र.१/गुणभद्र जैन)। रुक्मिणों-ह पु/सर्ग/श्लोक नं. भीष्म राजाकी पुत्री थी। रायधू-दे० रइधू। (४२/३५) कृष्ण द्वारा हरकर विवाह ली गयी (४२/३४) जन्मते ही इसका प्रद्य म्न नामका पुत्र हर लिया गया थ (४३/४२)। अन्त में रायमल-१. मुनि अनन्तकीर्तिके शिष्य थे। हनुमन्तचरित व दीक्षा धारण कर ली (६१/४०) । भविष्यदत्तचरित्रकी रचना की थी। समय-वि. १६१६-१६६३ (हिं. जै. सा.ई/८४ कामता)। २. सकलचन्द्र भट्टारकके शिष्य थे। रुचक-सौधर्म स्वर्गका १५ वॉ पटल व इन्द्रक -दे० स्वर्ग/५/३ । हुमड जातिके थे। वि. १६६७ में भक्तामर कथा लिखी। (हि जै. रुचक कांता-रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवी-दे० सा. इ/१० कामता)। ३ एक अत्यन्त विरक्त श्रावक थे। २२ वर्षकी लोक/१३ । अवस्थामें अनेक उत्कट त्याग कर दिये थे। आप पं टोडरमलजीके अन्तेवासी थे। आपकी प्रेरणासे ही प, टोडरमलजीने गोम्मट्टसारकी रुचककोतिरुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवी-दे० टीका लिखी थी। फिर आपने प. टोडरमलजीका जीवनचरित लोक/५/१३ । लिखा । समय–वि. १८११-१८३८ (मो. मा. प्र./प्र./१२/परमानन्दशा) रुचक गिरि-पुष्कर द्वीपवत् इसके मध्य भागमें भी एक कुण्डलारावण-प.प्र./सर्ग/श्लोक नं. रत्नश्रवाका पुत्र था (७/२०१) अपर कार पर्वत है। इस पर्वतपर चार या आठ चैत्यालय है । १३ द्वीप नाम दशानन था। लकाका राजा था (६/४६) सीताका हरण करने चैत्यालयोमे इनकी गणना है। इसपर अनेको कूट है, जिनपर कुमारी पर रामसे युद्ध किया। लक्ष्मण द्वारा मारा गया (७६/३४ ) यह प्वाँ देवियाँ निवास करती है जो कि भगवान के गर्भावतरण के लिए प्रतिनारायण था-(विशेष दे० शलाका पुरुष/५)। उनकी माताकी सेवा करती है-दे० लोक/४/७ । राशि-Aggregate (ध/प्र.२८) any number or num रुचक प्रभा-रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवी-दे० bers arranged in a difinite order as ११,१५.१६,५६,६५,७०. लोक/२/१३ । राष्ट्रकूट वंश-दे० इतिहास/३/४ । रुचक वर-मध्य लोकका तेरहवाँ द्वीप व सागर-दे० लोक/५/१। रासभ-मालवा (मगध) देशके राज्यवंशमें (ह पु/६०/४६०) मे गन्धर्व या गर्दभिन्लके स्थानपर रासभ नाम दिया गया है। अत. रुचकारुचक पर्वत निवासिनीदिवकुमारी महत्तरिका-दे० लोक ५/१३। गर्दभिल्लका ही दूसरा नाम रासभ था-दे० गर्द भिषल; इतिहास/३/३। रुचकाभा-रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी महत्तरि का रिक्कु-क्षेत्रका प्रमाण विशेष । अपर नाम किष्कु या गज -दे० ___-दे० लोक/५/१३ । गणित/I/१। रुचको-रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवी-दे० लोक/५/१३ । रिट्रनेमिचरिउ-कवि स्वयंभू ( ई०७३४-८४०) कृत, नेमिनाथ । रुचि-दे० निशंकित/१ (वस्तुका स्वरूप ऐसा ही है इस प्रकार का जीवन वृत्त । ११२ सन्धियों में विभक्त १८००० श्लोक प्रमाण ___ अकप रुचि होना निशकित अग है।) अपभ्रंश काव्य । (ती/४/१०१)। ध १/१,११/१६६/७ दृष्टि श्रद्धा रुचि प्रत्यय इति यावत् । - दृष्टि, रिण-Minus (ज. प /प्र./१०८)।-दे० गणित/11/१/४। श्रद्धा, रुचि और प्रत्यय ये पर्यायवाची है। रिणराशि-मुल राशिमेसे जिस राशिको घटाया जाता है। द्र, स /टी/०१/१६५/१ श्रद्वानं रुचिनिश्चय इदमेवेत्थमेवेति । =श्रद्धान, रुचि, निश्चय अथवा जो जिनेन्द्र ने कहा वही है । -दे० गणित/II/९/४ । पं.ध./उ/४१२ सात्म्यं रुचि । - तत्त्वार्थोके विषयमें तन्मयपना रिष्टक संभवा-आकासोपपन्नदेव-दे० देव/II/३। रुचि कहलाती है। रुक्मणिव्रत-प्रतिवर्ष भाद्रपद शु ७ को एकाशन ८ को उपवास, रुचिर-१ रुचक पर्वतस्थ एक कूट-दे० लोक/१३:२. सौधर्म को पारणा, १० को उपवास, ११ को पारणा, १२ को उपवास, स्वर्ग का १६ वाँ पटल व इन्द्रक-दे० स्वर्ग/५/३ । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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