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लेश्या
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१
. भेद लक्षण व तत्सम्बन्धी शका समाधान
और क्रोधी जीव कृष्णलेश्याके साथ धूमप्रभा पृथिवीमे अन्तिम पृथिवी तक जन्म लेता है। रा वा/४/२२/१०/२३३/२५ अनुनयानभ्युपगमोपदेशाग्रहण वै रामोचनातिचपडत्व - दुर्मुखत्व - निरनुकम्पता-बलेशन - मारणा - परितोषणादि कृष्णलेश्या लक्षणम् । = दुराग्रह, उपदेशावमानन, तीच वैर, अतिक्रोध, दुर्मुख, निर्दयता, ग्लेश, ताप, हिसा, असन्तोष आदि परम ताममभान कृष्णलेश्याके लक्षण है।
२. नीललेश्या प. म./प्रा./१/१४६ णिहावंचश-बहुलो धण-धण्णे होड तिव्व-मण्णो
या लक्खणभेद भणियं समासदो णील-लेम्सस्स १२०२। - बहुत निद्रालु हो, पर वचनमे अतिदक्ष हो, और धन-धान्यके सग्रहादिमें तोब लालसावाला हो, ये सब सक्षेपसे नीललेश्यावालेके लक्षण कहे गये है।१४६। (घ १/१,१,१३६/गा २०२/३८६), (गो जी/
मू/५११/५६०), (एस/म./१/२७४)। ति. प /२/२१७-२६८ सियासत्तो विमदी माणी विण्णाणवज्जिदो मदो। अलसो भीरु मायापय च बहूलो य णिहाल २६७। परवचणपसत्तो लोहंधो धग सुहाकरखी। बहुमण्णा णीलाए जन्मदि त चेव धूमतं ।२६८ - विषयोमे आसक्त, मतिहीन, मानी, विवेक बुद्धिसे रहित, मन्द, आलसी, कायर प्रचुर माया प्रपचमे सलग्न, निद्राशील, दूसरोके ठगनेमें तत्पर, लोभमे अन्ध, धन-धान्यजनित सुखका इच्छुक और बहुसंज्ञायुक्त अर्थात् आहारादि सज्ञाओमे आसक्त ऐसा जीव नीललेश्याके साथ धूम्रप्रभा तक जाता है १२६७-२६८। रा वा./४/२२/११/२३६/२६ आलस्य - विज्ञानहानि - कार्यानिष्ठापनभीरुता-विषयातिगृद्धि-माया-तृष्णापतिमानवञ्चनानृतभाषण चापलातिलुब्धवादि मीन लेश्यालक्ष्णम् । आलस्य, मूवता, कार्यानिष्ठा, भीरुता, अतिविषयाभिलाष, अलिगृहि, माया, तृष्णा, अतिमान, वचना अनृत भाषग, चालता अतिलोभ आदि भाव नीललेश्याके लक्षण है।
३ कापोतलेश्या प. स /प्रा /२/१४७-१४८ रूसड णिदइ अण्णे दूसणबहनो य सोय-भयबहुलो । अमुबड परिभवड पर पस सह य अप्पय बहुसो ११४७। ण य पत्तियइ र सो अप्पाण पिब पर पि मण्ण तो। तसइ अइथुव्व तो ज य जागड हागि-बड् ढोओ।१४८। मरण पत्थेड रणे देइ सु बहुय पि शुन्चमाणो हु। ण गणइ कज्जाज्ज लक्रवणमेय तु काउस्स ।१४६। जो दूमरोके जार रोप करता हो, दूसरोकी निन्दा करता हो, दूषण बहुल हो, शोक बहुल हो, भय बहुल हो, दूसरोसे ईर्या करता हो, परका पराभव करता हो, नाना प्रकारमे अपनी प्रशमा करता हो, परका विश्वास न कता हो, अपने समान दूमरेको भी न मानता हो, स्तुति किये जाने पर अति सन्तुष्ट हो, अपनी हानि और वृद्धिको न जानता हो, रणमे मरणका इच्छुक हो, स्तुति या प्रशसा किये जानेपर बहुत धनादिक देवे और कर्तव्य-अतधको कुर भी न गिनता हो, ये सब कापोत लेश्यावातेके चिद है। (ति. प /२/२६६-३८१), (ध १/१,१,१३६/गा २०३-२०/३८१), गो जी //५१२-५१४/११०-६११): ( ८ स./ स/१/२६-२७७)। रा बा/४/२२/१०/२३६/२८ मात्सय - पशुन्य - परपरिभवात्माशसापरपरिणादवृद्विहान्यगणनात्मीयजो वितनिराशता प्रशस्यमानधनदानमुद्रमर मादि कारोतलेश्याल मणम् । = मात्सर्य, पै शुन्य, परपरिभा, रमाना, परपरिवाद, जोवन नराश्य प्रशसकको धन देना, युद्ध मरणाद्यम आदि कापात लेश्याके लक्षण है।
४. पोत लेश्या प. स /प्रा/९/१५० जाणइ कज्जाज्ज सेयासेय च सव्वसमपासी।
दम-दाणरदो य विदू लवणमेय तु तेउस्स । १५०। =जो अपने कर्तव्य और अकर्तव्य, और सेव्य-असेव्यको जानता हो, सबमे समदर्शी हो, दया और दान में रत हो, मृदु स्वभावी और ज्ञानी हो, ये सब तेजोलेश्यावाले के लक्षण है ।१५० (ध १/१,१,१३६/गा. २०६/३८६), ( गो. जी /मू /५१६/६११), (प स./स /२/२७६), (दे आयु/३)। रा. वा /१/२२/१०/२२६/२६ दृढ मित्रता सानुक्रोशत्व-सत्यवाद दानशीलामोयकार्यसपादनपटुविज्ञानयोग - सर्वधर्मसमदर्शनादि तेजोलेश्या लक्षणम् । =-दृढता, मित्रता, दयालुता, सत्यवादिता, दानशीलत्व, स्वकार्य-पटुता ,सर्वधर्म समदर्शित्व आदि तेजालेश्याके लक्षण है। ५. पालश्या प.सं /प्रा /१/१५१ चाई भद्दो चोखो उज्जु प्रकम्मो य खमइ बहुय पि । साहुगुणपूणिरओ लवणमेयं तु पउमस्स :१५१। - जो त्यागी हो, भद्र हो, चोखा (सच्चा) हो, उत्तम काम करने वाला हो, बहुत भी अपराध या हानि होनेपर क्षमा कर दे, साधुजनोके गुणोके पूजनमें निरत हो, ये सब पद्मलेश्याके लक्षण है ।१५। (ध.१/१,१.१३६/२०६/३६०), (गो.जी /मू./११६/३१२). (पं सं/सं./१/१५१) । रा, वा /४/२२/१०/२३६/३१ सत्यवाक्यक्षमोपेत-पण्डित-सरिवकदानविशारद चतुरर्जुगुरुदेवतापूजावरणनिरतत्वादि पद्मालेश्यालक्षणम् । » सत्यवाक्, क्षमा. सात्विकदान, पाण्डित्य, गुरु देवता पूजनमे रुचि आदि पालेश्याके लक्षण है। ६. शुक्ललेश्या पं स /प्रा./१/१५२ ण कुणेइ पश्ववाय ण वि य णिदाणं समोय
सव्वेसु । णत्थि य राओ दोसो हो वि हु सुक्कलेसस्स 1१५२। जो पक्षपात न करता हो, और न निदान करता हो, सममे समान व्यवहार करता हो, जिसे परमे राग-द्वेष वा स्नेह न हो, ये सब शुक्ललेश्याके लक्षण है ।१५२। (ध १/१,१,१३६/२०८/३६०), (गो.जी /मू । ५१७/६१२), (प.स /स /१/२८१)। रा. वा ४/२२/१०/२३६/३३ वैररागमोहविरह-रिपुदोषग्रहणनिदानवर्जनसार्व-सावद्यकार्यारम्भौदासीन्य-श्रेयोमार्गानुष्ठानादि शुक्ल लेश्याल - णम् । निर्वैर, वीतरागता, शत्रु के भी दोषो पर दृष्टि न देना, निन्दा न करना, पाप कार्योसे उदासीनता, श्रेयोमार्ग रुचि आदि शुक्ल लेश्याके लक्षण है।
५. अलेश्याका लक्षण १ स /प्रा./१/१५३ किण्हाइलेसरहिया ससार बिणिग्गया अण तसुहा। सिद्विपुरीस पत्ता अलेसिया ते मुयना ।१५३) - जो कृष्णादि छहो लेश्वासे रहित है. पंच परिवर्तन रूप संसारसे विनिर्गत है, अनन्त सुग्बी है, और आत्मोपलब्धि रूप सिद्धिपुरीको सम्प्राप्त है, ऐसे अयोगिकेवली और सिद्ध जीवो को अलेश्य जानना चाहिए ।१५३। (ध १/१,१,१३६/२०६/३६० ), (गो. जी /म् ५५६), (प. सं स | १/२८३)। ६. लेश्याके लक्षण सम्बन्धी शंका १. 'लिम्पतीति लेश्या' लक्षण सम्बन्धी ध १/१,१,४/१४६/६ न भूमिलेपिकयातिव्याप्तिदोष कर्मभिरात्मानमित्याध्याहारापेक्षित्वात् । अथवात्मप्रवृत्तिसश्लेषणकरी लेश्या । नात्रातिप्रसइदोष प्रवृत्ति शब्दस्य कर्म पर्यायत्वात् । प्रश्न-- (लिम्पन करती है वह लेश्या है यह लक्षण भूमिलेपिका आदिमे
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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