Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 460
________________ लोक ४५३ ३. जम्बूद्वीप निर्देश ईशान व नैऋत्य दिशावाले विद्युत्प्रभ व माल्यवान गजदन्तोके मूलमे सीता व सीतोदा नदियोके निकलनेके लिए एक-एक गुफा होती है। (ति, प /४/२०५५,२०६३)। ३ देवकुरु व उत्तरकुरुमें सीतोदा व सीता नदीके दोनो तटोपर एक यमक पर्वत है (दे० आगे लोक/३/१२)। ये गोल आकार वाले है। (दे० लोक/६/४ में इनका विस्तार)। इनपर इन-इनके नामवाले व्यन्तरदेव सपरिवार रहते है । (ति. प/४/२०८४), (रा. वा./३/१०/१३/१७४/२८)। उनके प्रासादों का सर्वकथन पद्मद्रहके कमलोंवत् है । (ज.प/६/१२-१०२) । ४ उन्ही देवकुरु व उत्तरकुरुमें स्थित द्रहोके दोनो पार्श्वभागो में काचन शैल स्थित है। (दे० आगे लोक/३/१२)। ये पर्वत गोल आकार वाले है। (दे० लोक/६/४ मे इनका विस्तार)। इनके ऊपर काचन नामक व्यन्तरदेव रहते है। (ति. प./४/ चित्र सं०-२३ यमक व कांचन गिरि यमक देव जी काचनदेव जान ५०० यो के ७५० यो. AMANMata.OOR -१००० यो १०० यो ९. दह निर्देश १. हिमवान पर्वतके शीषपर बीचोबीच पद्म नामका द्रह है। ( दे० लोक/३/४ )। इसके तट पर चारो कोनों पर तथा उत्तर दिशा में ५ कूट है और जल में आठो दिशाओं मे आठ कूट है। (दे० लोक/४/३) ह्रदके मध्यमे एक बडा कमल है, जिसके ११००० पत्ते है । (ति, प./१६६७, १६७०), (त्रि सा./५६६); (ज, प./३/७५); इस कमल पर 'श्री' देवी रहती है (ति.प./४/१६७२); (दे० लोक ३/१.६)। इस प्रधान कमलकी दिशा-विदिशाओमें उसके परिवारके अन्य भी अनेको कमल है। कल कमल १४०११६ है। तहाँ वायव्य, उत्तर व ईशान दिशाओमे कुल ४००० कमल उसके सामानिक देवोके है। पूर्वादि चार दिशाओमें से प्रत्येकमे ४००० ( कुल १६०००) कमल आत्मरक्षकोके है। आग्नेय दिशामें ३२००० कमल आभ्यन्तर पारिषदोके, दक्षिण दिशामें ४०,००० कमल मध्यम पारिषदोके, नैऋत्य दिशामें ४८००० कमल बाह्य पारिषदोके है। पश्चिममें ७ कमल सप्त अनीक महत्तरोके है। तथा दिशा व विदिशाके मध्य आठ अन्तर दिशाओमे १०८ कमल त्रायस्त्रिशों के है। (ति. प,/४/१६७५-१६८१), (रा वा /३/१७-१८५/११); (त्रि. सा./१७२-५७६ ). (ज, प./३/११-१२३)। इसके पूर्व पश्चिम व उत्तर द्वारोसे क्रमसे गंगा, सिन्धु व रोहितास्या नदी निकलती है। (दे० आगे शीर्षक ११) । (दे० चित्र सं. २४, पृ. ४७०)। २. महाहिमवान् आदि शेष पाँच कुलाचलों पर स्थित महापद्म, तिगिंछ, केसरी, महापुण्डरीक और पुण्डरीक नामके ये पाँच द्रह है । (दे० लोक/३/४ ), इन ह्रदोका सर्व कथन कूट कमल आदिका उपरोक्त पद्मदवत हीजानना । विशेषता यह कि तन्निवासिनी देवियो के नाम क्रमसे ही,धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी है। (दे० लोक/३/९८६) । व कमलोकी संख्या तिगिछ तक उत्तरोत्तर दूनी है। केसरीकी तिगिछवत्, महापुण्डरीकको महापद्मवत और पुण्डरीककी पद्मवत् है ।(ति.१/४/१७२८-१७२६,१७६१- १७६२:२३३२-२३३३, २३४५-२३६१)। अन्तिम पुण्डरीक दहसे पद्मद्रहवद रक्ता, रक्तोदा व सुवर्णकूला ये तीन नदियाँ निकलती है और शेष द्रहोसे दो-दो नदियाँ केवल उत्तर व दक्षिण द्वारोसे निकलती है। (दे० लोक/३/१७ व ११)। । ति. प. मे महापुण्डरीकके स्थानपर रुक्मि पर्वतपर पुण्डरीक और पुण्डरीकके स्थानपर शिखरी पर्वत पर महापुण्डरीक दह कहा है-(दे० लोक/३/४ )। ३. देवकुरु व उत्तरकुरुमें दस दह हैं। अथवा दूसरी मान्यतासे २० द्रह है। (दे० आगे लोक/३/१२) इनमें देवियोके निवासभूत कमलो आदिका सम्पूर्ण कथन पद्मद्रहवत् जानना (ति. प./४/२०६३, २१२६), (ह. पु./२/१६८-१६६); (त्रि. सा./६५८), (ज. प /६/१२४-१२६)। ये दह नदोके प्रवेश व निकासके द्वारोसे संयुक्त है। (त्रि. सा./६५८)। ४ सुमेरु पर्वतके नन्दन, सौमनस व पाण्डुक वनमें १६, १६ पुष्करिणी हैं, जिनमें सपरिवार सौधर्म व ऐशानेन्द्र क्रीडा करते है। तहाँ मध्यमे इन्द्रका आसन है। उसकी चारो दिशाओमें चार आसन लोकपालोके है, दक्षिणमें एक आसन प्रतीन्द्रका, अग्रभागमें आठ आसन अग्रमहिषियोके, वायव्य और ईशान दिशामे ८४००,००० आसन सामानिक देवोके, आग्नेय दिशामे १२००,००० आसन अभ्यन्तर पारिषदोसे, दक्षिणमें १४००,००० आसन मध्यम पारिषदोके, नैऋत्य दिशामें १६००,००० आसन बाह्य पारिषदोके, तथा उसी दिशामै ३३ आसन त्रायस्त्रिशों के, पश्चिममें छह आसन महत्तरोके और एक आसन महत्तरिकाका है। मूल मध्य सिहासनके चारों दिशाओमें ८४००० आसन अंगरक्षकोके है। (इस प्रकार कुल आसन १२६८४०५४ होते है )। (ति. प./४/१६४६-१६६०), (ह. पु./५/३३६-३४२) । १००० यो २०६६), (हपु/३/२०४), (त्रि. सा./६५६) । ५. देवकुरु व उत्तरकुरुके भीतर व बाहर भद्रशाल वनमें सीतोदा व सीता नदीके दोनो तटोपर आठ दिग्गजेन्द्र पर्वत है (दे० लोक/३/१२)। ये गोल आकार वाले है (दे० लोक/६/४ में इनका विस्तार)। इनपर यम व वैश्रवण नामक वाहन देवोंके भवन है। (ति प/४/२१०६, २१०८, २०३१)। उनके नाम पर्वतोंवाले ही है (ह पु/१/२०६), (ज, प/२/८१)। ६ पूर्व व पश्चिम विदेहमें सीता व सीतोदा नदोके दोनो तरफ उत्तर-दक्षिण लम्बायमान, ४,४ करके कुल १६ बक्षार पर्वत है। एक ओर ये निषध व नील पर्वतोको स्पर्श करते है और दूसरी ओर सीता व सीतोदा नदियोको। (ति प./४/२२००, २२२४, २२३०), (ह.पु /५/२२८-२२२) (और भी दे० आगे लोक/३/१४) । प्रत्येक वक्षार पर चार चार कूट है; नदीकी तरफ सिद्धायतन है और शेष कूटोंपर व्यन्तर देव रहते है। (ति.प./४/ २३०६-२३११); (रा. वा./२/१०/१३/१७६/४), (ह. पू./५/२३४२३५)। इन कूटोका सर्व कथन हिमवान पर्वतके कूटोंवत् है। (रा. वा /३/१०११३/१७६/७)। ७. भरत क्षेत्रके पाँच म्लेच्छ खण्डौमें से उत्तर वाले तीनके मध्यवर्ती खण्डमें बीचों-बीच एक वृषभ गिरि है, जिसपर दिग्विजयके पश्चात चक्रवर्ती अपना नाम अंकित करता है (दे० लोक/३/३)। यह गोल आकार वाला है। (दे०लोक/६/४ में इसका विस्तार) इसी प्रकार विदेहके ३२ क्षेत्रोमें-से प्रत्येक क्षेत्र में भी जानना (दे० लोक/३/१४।। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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