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लौकिक
दक्षिणापरकोणे गर्दतोय विमानम्, अपरस्या दिशि तुषितविमानम्, उत्तरापरस्यां दिशि अस्थाना विमानम् उत्तरस्यां दिशि अरिष्टनमानम् । तेषामन्तरेषु द्वौ देवगणौ । - इन लौकान्तिक देवोके विमान ब्रह्मलोक के प्रान्त भागमें ( किनारे पर ) स्थित आठ राजियों ( Sectors ) के अन्तराल में ( ति प. ) है। पूर्व उत्तर आदि आठों ही दिशाओमें क्रमसे ये सारस्वत आदि देवगण रहते है ऐसा जानना चाहिए। यथा- पूर्वोत्तर कोणमें सारस्वतों के विमान पूर्व दिशामें आदित्योंके विमान पूर्व बहिदेोके विमान दक्षिण दिशामें अरुण के विमान, दक्षिण-पश्चिम कोने में गर्दतीय के विमान पश्चिम दिशा में तुषितके विमान उत्तर-पश्चिम दिशा में अभ्यासाधके विमान और उत्तर दिशामें अरिष्ट विमान है। इनके मध्य में दो दो देवगण है । (उनकी स्थिति व नाम दे० लौकांतिक / २ ), ०/६१६- ६१८ (रामा/४/२३/३/२४२ / १५ ). ६२४-१८)
( ति प /(जि. सा/
५. लौकान्तिक देव एक भवावधारी हैं।
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ससि /४/२५/२५६/७ सौकान्तिका सर्वे परीतसंसाराः उतरता एक गर्भावासं प्राप्य परिनिर्वास्यन्तीति । लौकान्तिक देव क्योंकि संसारके पारको प्राप्त हो गये है इसलिए वहाँसे व्युत होकर और एक बार गर्भ में रहकर निर्माणको प्राप्त होगे (ति. प./-/६०६), (रा. मा. ४/२४/२४२/१० ) ।
* अन्य सम्बन्धित विषय
१. द्विचरम शरीरका स्पष्टीकरण ।
२. कैसो योग्यता वाला जीव लीकान्तिक दे जाता है।
२. लोक
लौकिक १ लौकिक जन सगतिका विधि निषेध - दे० 'संगति' । २.सा./२५१ २१ मासा ( शुद्धात्मवृत्तिशुण्यजनसभाषण ( त प्र ) ] | २५३॥ णिग्गंथ पब्बइदो वट्टदि जदि एहिगेहि कम्मे हि । सो लोगिगो त्ति भणिदो संजमत संपजुत्तो वि ॥२६॥ | - लौकिक जन संभाषण अर्थात् शुद्धात्म परिणति शून्य लोकों के साथ बातचीत....२(३३ जो (जीव) निर्मन्थ रूपसे दीक्षित होने के कारण संयम तप सयुक्त हो उसे भी यदि वह ऐहिक कार्यों (ख्याति लाभ पूजाके निमित्त ज्योतिष मन्त्र वादिव आदि 'तान) सहित हो तो कहा गया है |२६| लौकिक-दूसरे का मापदे०/२/११ लौकिक प्रमाण दे०प्रमाण ६
- दे० चरम ।
- दे० जन्म / ५१ -दे० स्वर्ग |
लोकोसर
लौकिक बाद लौकिक शुचि -- दे० शुचि ।
लौगक्षि भास्कर — मीमासा दर्शनका टीकाकार। - दे० मीमांसा
दर्शन।
[व]
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वंग - दे० बग |
दंगा - मध्य आर्य खण्डकी एक नदी- दे० मनुष्य /४ ।
वंचना --- दे० माया ।
वंदना
- श्रुत
वंदनाद्वादशाके १४ पूर्वमें से तीसरा पूर्व ३०
ज्ञान / III/R
वंदना १. कृतिकर्मके अर्थ में
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रा. वा / ६ / २४/१२/५३०/१३ वन्दना त्रिशुद्धि द्वासना चतु शिरोऽवनति द्वादशावर्तना । मन, वचन, कायकी शुद्धि पूर्वक खड्गासन या पद्मासन से चार सर शिरोनति और बारह आवर्त पूर्वक वन्दना होती है। - (विशेष दे० कृतिकर्म ) 1 भ.आ./वि./५०१/७२८/१३ वन्दनीयगुणानुस्मरणं मनोवन्दना । वाचा तद्गुणमाहात्म्य प्रकाशन परवचनोच्चारणम् । कायेन वन्दना प्रदक्षिणीकरण कृतानतिरच वन्दना करने योग्य गुरुओ बादिके गुणोंका स्मरण करना मनोवन्दना है, वचनोंके द्वारा उनके गुणोंका महत्व प्रगट करना यह वचन वन्दना है और प्रदक्षिणा करना, नमस्कार करना यह कायवन्दना है।- ( और भी दे० नमस्कार / १) । क. पा. १ / १-१ / ६ / १११/५ एयरस्स तित्थयरस्स णमसण वंदना णाम । - एक तीर्थंकरको नमस्कार करना वन्दना है। (भा. पा./ टी / ७७/ २२१/१४ ) ।
घ. ८/२.४१/०४/३ उहाजिय लहडमाणादितित्थयरागं भरहादिकेपली आहरिय-पतालमादी मे काउण णमोकारो गुणगणमल्लीणो सयकलावाउलो गुणाणुसरणसरूवो वा वंदना णाम । घ. ८/२, ४२/१२/४ तुहुं निविट्ठकम्मो केवल दि धम्मुम्मुहसिगोट्ठीए पुट्ठाभयदाणो सिटूट्ठपरिवालओ दुट्ठणिग्गहकरो देव त्ति पसंसाबंदणा णाम । - ऋषभ, अजित वर्धमानादि तीर्थंकर, भरतादि केवली, आचार्य एवं चैत्यालयादिकों के भेदको करके अथवा गुणगण भेदके आश्रित शब्द बाप या गुणानु स्मरण रूप नमस्कार करनेको वन्दना कहते हैं । ८८| 'आप अष्ट कमको नष्ट करनेवाले, केवलज्ञान से समस्त पदार्थोंको देखनेवाले, धर्मोन्मुख शिटोकी गोष्ठी में अभयदान देनेवाले शिष्ट परिपालक और दुष्ट निग्रहकारी देय है ऐसी प्रशंसा करनेका नाम बन्दना है। भ. आ /वि./ ११६/२७५/१ वन्दना नाम रत्नत्रयसमन्वितानां यतीनां आचार्योपाध्यायश्वर्तकस्य विराणां गुणातिशयं विज्ञाय श्रद्धापुरसरेण विनये प्रवृत्ति । रत्नत्रयधारक यति, आचार्य, उपाध्याय. प्रवृद्धसाधु इनके उत्कृष्ट गुणोंको जानकर श्रद्धा सहित होता हुआ विनयो में प्रवृत्ति करना, यह वन्दना है । - ( दे० नमस्कार / १) । २. निश्चय वन्दनाका लक्षण
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यो सा. २४६ पवित्रदर्शन ज्ञानपारिश्रममुच अमानं मन्य मानस्य बन्दनाकfथ कोविदैः ॥४६॥ =जो पुरुष पवित्र दर्शन ज्ञान और चारित्र स्वरूप उत्तम आत्माकी वन्दना करता है, विद्वानोने उसी वन्दनाको उत्तम बन्दना कहा है।
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१. वन्दना भेद व स्वरूप निर्देश
भा./वि./९९/२०५/२ वंदना अभ्युत्थानप्रयोगभेदेन द्विविधे विनये प्रवृत्ति प्रत्येक तयोरनेकमेवता अस्थान और प्रयोग के भेद से दो प्रकार विनय में प्रवृत्ति करना वन्दना है। इन दोनोंमें से प्रत्येक के अनेक भेद है। (तिनमें स्थान जिनम तो आचार्य माधु आदिके समझ पड़े होना. हाथ जोडना, पीछे-पीछे चलना आदि रूप है। इसका विशेष कथन 'विनय' प्रकरण में दिया गया है और प्रयोग विनय कृतिकर्म रूप है। इसका विशेष कथन निम्न प्रकार है । ।
* मन वचन काय वन्दना दे० नमस्कार ।
अनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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३. वन्दना आवश्यक अधिकार
भ, आ /वि/११६/२७५/२ कर्त्तव्यं केन, कस्य, कदा, कस्मिन्कति वारानिति । अभ्युत्थानं केनोपदिष्टं किंवा फलमुद्दिश्य
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