Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 504
________________ वक्रग्रीव * अम्ब सम्बन्धित विषय २. जीवको वक्ता कहनेको विवक्षा २. प्रामाणिकता से वचनकी प्रामाणिकता ३. दिगम्बराय व गृहस्थावायों को उपदेशव आदेश देनेका अधिकार है ४ हित मित व कटु सभाषण सम्बन्धी ५ व्यर्थ सभाषणका निषेध ६ वाद-विवाद करना योग्य नहीं पर भ-हानिके अवसरपर बिना बुलाये बोले * Jain Education International १ वचनसामान्य निर्देश १-२ अभ्याख्यान आदि १२ भेद व उनके लक्षण । ३ गहित सावध व अप्रिय वचन | कर्कश आदि तथा आमन्त्रणी आदि भेद २ वक्रग्रीव - १. कुन्दकुन्द ( ई १२७-१७९ ) का अपर नाम (दे, कुन्द कुद विभाजन के अन्तर्गत पात्र (ई.बा.७) के शिष्य और बज्रनन्दि नं. २ (बि. श. ६) के शिष्य । समयलगभग ई. श. ६-७ / ई. ११२५ के एक शिलालेख में अकलंक देव के पश्चात् सिनन्दि का और उनके पश्चात वक्रग्रीव का नाम आता है०१६ (२/१०१ १ २ ३ - वक्रांत - पहले नरकका ११ वॉ पटल-वे० नरक / ११ तथा रत्नप्रभा । वक्षार - पूर्व और विदेहके कक्षा आदि ३२ क्षेत्रोने विभाजित करनेवाले २६ पर्वत है।- ३० लोक ३/१४० वचन - दे०जी०/२/३ दे० आगम/१६। हित मित तथा मधुर कटु सभाषण सत्य व असत्य वचन मोपाचन चोरीमै अन्तर्भूत नहीं है। द्रव्य व भाव वचन तथा उनका मूर्त वचनकी प्रामाणिकता सम्बन्धी वचनयोग निर्देश भा० ३-६३ -दे० आचार्य/२ -- दे० सत्य / ३ । -- दे० सत्य / ३१ - दे० ४९७ १० वाद - दे० भाषा । -- दे० सत्य / २ । - दे० वह वह नाम । -३०] [मूर्त/२/३ । - १० आगम ५-६ वचयोग सामान्यका लक्षण । वचनयोगके भेद | वचनयोगके भेदोंके लक्षण । शुभ अशुभ वचन योग 1 वचन योग व वचन दण्डका विषय - दे० योग । मरण या व्यापातके साथ ही वचन योग भी समाप्त हो जाता है - दे० मनोयोग / ७ | केवली के वचनयोगकी सम्भावना - दे० केवली / ५ । वचनयोग सम्बन्धी गुणपरपान मार्गेणा स्थानादि २० प्ररूपणाएँ - दे० सव | सत् संख्या आदि ८ प्ररूपणाएँ - दे० वह वह नाम ! वचनयोगी के कर्मोका बन्ध उदय सत्व - दे० वह वह नाम । १. वचन सामान्य निर्देश १. चचनके अभ्याख्यान आदि १२ भेद १२/४,२८/१०/२८५ अन्भवा-र-रहि-नियदि-भाग-माय-मोसम मिच्या सण-पोपच्चए - अभ्याख्यान, कलह, पैशुन्य, रति, अरति, उपधि, निकृति, मान, मेय, मोष, मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और प्रयोग इन ज्ञानातरणीय वेदना होती है। रा. बा /१/२०/१२/०३/१० मा प्रयोग शुभेत लक्षणोपयते अभ्या पापात परस्परप धनिकृष्यगमिषसम्म मियाना भाषा साधाभ और अशुभके भेदसे वाक्प्रयोग दो प्रकारका है । अभ्याख्यान, कलह, पैशुन्य, असबद्ध परति वरति उपचि निति, प्रगति, मोच, सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शनके भेदसे भाषा १२ प्रकारकी है । (ध. १,१.२/११६/१० ), ( घ / ६/४, १.४५/२१७/१ ); ( गो, जी/जी १/३६५/७७८/२०)1 वचन २. अभ्याख्यान आदि भेदोंके लक्षण रा, वा /१/२०/१२/७५/१२ हिंसादे कर्मण: कर्तृविरतस्य विरताविरतस्य वायमस्य कर्तेत्यभिधानम् अभ्याख्यानम् । कलह प्रतीत । पृष्ठतो दोषाधिकरण पेय धर्मार्थकाममोक्षासनमा बाग् असंबद्धप्रलाप | शब्दादिविषयदेशादिषु रत्युत्पादिका, रतिवाक् । तेष्वेवारत्युत्पादिका अरतिवाक् या वाच श्रुत्वा परिग्रहाजंनरक्षगाविवासते सोपधिवाहारे यामधा निति = आमा भवति या निकृतिवाक् या श्रुष्य तपोविज्ञानाधि च्वपि न प्रणमति सा अप्रगतिवान् । या श्रुत्वा स्तेये वर्तते सा सम्मोपदेष्ट्री सम्यदर्शनाद्विपरीता मियादर्शनवान्। हिसादिमिर पुनि या को हिसादिका दोष लगाना अभ्याख्यान है ( विशेष दे० अभ्याख्यान ) । कलहका अर्थ स्पष्ट ही है ( विशेष दे० कलह ) । पीठ पीछे दोष दिखाना शुन्य है (विशेष दे० धर्म मन मोह हम चार पुरुषार्थी के सम्बन्ध से रहित वचन असम्बद्ध प्रलाप है । इन्द्रियोंके शब्दादि विषयों में या देश नगर आदिमें रति उत्पन्न करनेवाला रतिवाक् है । इन्होंमें अरति उत्पन्न करनेवाला अरतिवाक है। जिसे सुनकर परिग्रहके अर्जन, रक्षण आदिमें आसक्ति उत्पन्न हो वह है व्यापार मे उगनेको प्रोत्साहन मिले ह निकृतिया है। जिसे सुनकर तपोनिधि या गुणी जोवोके प्रति अविनयकी प्रेरणा मिले है। जिसमें प्रवृत्ति हो वह देश सम्पदर्शनया है और मिथ्यामार्ग प्रवर्तक उपदेश मिथ्यादर्शनवाक् है । ( ध. १/१.१. २ / ११६/१२); ( घ ६/४, १,४५ / २१७/३ ) ; ( गो. जो / जी. प्र. / ३६५/ ७७८/१६) (विशेष दे० वह वह नाम ) । । है ३. गर्हित सावद्य व अप्रिय वचन आ./३०-३२ विधा ज किचि विप्लव कहिद्रवयणं समासेण । ८३०) जत्तो पाणवाघादी दोसा जायति सावज्जवयणं च । अविचारिता येणं येणत्ति जमादी |१| परुस कडुय वयणं वेर कलह च ज भयं कुणइ । उत्तासण च होलणमपियवयर्ण समासे ३२ कर्कश वचन, निष्ठुर भाषण, पैशुन्यके वचन, उपहासका वचन, जो कुछ भी बडबड करना, ये सब सक्षेपसे गर्हित वचन है । ८३०| [ छेदन-भेदन आदिके ( पु सिउ )] जिन वचनोसे प्राणिवध आदि दोष उत्पन्न हो अथवा बिना विचारे बोले गये, प्राणियोको हिसा के कारणभूत जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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