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वनस्पति
प. १४/५.६ ६३१/४८६/६ एक्कमिह सरीरे उप्पज्जमाणवादर णिगोदा किमकमेण उप्पज्जति आहो कमेण । जदि अक्कमेण उप्पज्जति तो मेव मरमेण वि होदव्वं एक म्हि मरते सते असि मरणाभावे साहारणतमिरोहा। वह कमेण अससेज्जगुणहीणाए सेडीए उत्पज्जति तो मरण पि जवमज्झागारेण ण होदि, साहारणत्तस्स विकाससंगादो सिए परिहारो पदे असज्जनही जाए कमेण वि उप्पज्जंति अक्कमेन वि अणता जीवा एगसयए उपज्जति । ण च फिट्टदि । एदीय गाहाए भणिदलक्खणाणमभावे साहारणत्तविणासदो । तदो एगसरोरुप्पण्णाण मरणकमेण णिग्गमो होदित्ति एवं पिण विरुज्भदे । ण च एगसरीरुप्पण्णा सव्वे समाणाउवा चेत्र होति त्ति नियमों णत्थि जेग अक्कमे तेसि मरण होज्ज । तम्हा एगसरीर ठिदाणं पि मरणजवमज्झ समिलाजवमज्झ च होदि त्ति घेत्तव्वं । - - जो निगोद जघन्य उत्पत्ति कालके द्वारा बन्धको प्राप्त हुआ है उन बादर निगोदोका उस प्रकारसे बन्ध होनेपर मरणके क्रमानुसार निर्गम होता है । ६ ३१ प्रश्न- एक शरीर में उत्पन्न होनेवाले बादर निगोद जीव क्या अक्रमसे उत्पन्न होते है या क्रमसे ? यदि अक्रमसे उत्पन्न होते है तो अक्रमसे हो मरण होना चाहिए, क्योकि एकके मारनेपर दूसरोका मरण न होनेपर उनके साधारण होने में विरोध आता है | यदि क्रमसे असख्यातगुणी होन श्रेणी रूपसे उत्पन्न होते है, तो मरण भी यत्रमध्यके आकार रूपसे नहीं हो सकता है, क्योकि साधारणपनेके विनाशका प्रसंग आता है। उत्तर-असंख्यातगुणी होन श्रेणिके क्रमसे भो उत्पन्न होते है, और अक्रमसे भी अनन्तजोव एक समयमे उत्पन्न होते हे। और साधारणपना भी नष्ट नही है । ( साधारण आहार व उच्छवासका ग्रहण साधारण जोवोका लक्षण है- दे० वनस्पति /४/२ ) । इस प्रकार गाथा द्वारा कहे गये लक्षणो के अभाव में ही साधारणपनेका विनाश होता है। इसलिए एक शरीरमे उत्पन्न हुए निगोदोका मरणके क्रमसे निर्गम होता है इस प्रकार यह कथन भो विरोधको प्राप्त नही होता है । और एक शरीर में उत्पन्न हुए सन समान युवाले ही होते है, ऐसा कोई नियम नहीं है, जिससे अक्रमसे उनका मरण होवे, इसलिए एक शरीरमें स्थित हुए निगोदोका मरण मध्य और शामिला यवमध्य है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए।
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३. आगे-पीछे उत्पन्न होकर मी उनकी पर्याप्ति युगपत् होती है
ध १४/५,६,१२२/२२१/२ एक्कम्हि सरीरे जे पढमं चेत्र उप्पण्णा अणता जीवा जे च पच्छा उप्पण्णा ते सवे समग वक्क्ता णाम । कथ भिका जवान समगतं सुजदे ग एनसरीरसमण तेसि सव्वैमि पि समगत पडिविरोहाभावादो। एक्कम्हि सरीरे पच्छा उप्पज्जमाणा जीवा अत्थि, कथ तेसि पठम चैत्र उप्पत्ती होदि । ण, पढमसमए उप्पण्णाण जीवाणमणुग्गणफनस्स पच्छा पणजीव उवल भादो । तम्हा एगणिगोदमरीरे उत्पज्जमाणसजीवाण' पढमममए चैव उप्पत्ती एदेण णाएण जुज्जदे । ध १४/५,६,१२२/२२७/२ एदम्स भावण्यो सजणेण पज्जत्तिकाले जदि पुम्बु पण्गणिगोदजोत्रा सरीरपज्जत्ति इंदियपज्जत्तिआहार - आण गणपज्जतोहि पज्जतपदा होति तम्हि सरीरे तेहि समुपण्णमदजोगि शिगोदजीवा वि तेणेत्र कालैग एदाओ पज्जत्तीओ समाणे ति, अण्णा आहारगहणादोण साहारणत्ताणुवत्तदा । जदि दहकालेन पणजीमा बनारसी मनायेति तो तह सरोरे पच्छा उपणजोबा तेणेव कालेण ताओ पज्जत्तीओ समाणे ति त्ति भणिदं होदि । सरोरिदियाज्जत्तीर्ण साहारणत्त किरण परूविद। ण अहारणावणिद्द े सो देसामासिओ न्ति तेसि पि एस्थेव अतभावा = १ एक शरीरमे जो पहले उत्पन्न हुए अनन्त जीव
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५. साधारण शरीरमे जीवोका उत्पत्ति क्रम
है, और जो बाद मे उत्पन्न हुए अनन्त जीव है वे सब एक साथ उत्पन्न हुए कहे जाते है। प्रश्न-भिन्न काल में उत्पन्न हुए जीवोंका एक साथपना कैसे बन सकता है। उत्तर-नहीं, क्योंकि, एक शरीर के सम्ब न्धसे उन जीवोंके भी एक साथपना होनेमें कोई विरोध नहीं आता है । प्रश्न- एक शरीर में बादमें उत्पन्न हुए जीव है, ऐसी अवस्था में उनको प्रथम समय में ही उत्पत्ति कैसे हो सकती है। उत्तर- नही, क्योकि प्रथम समयमें उत्पन्न हुए जीवोंके अनुग्रहणका फल बादमें उत्पन्न हुए जीवोमें भी उपलब्ध होता है, इसलिए एक निगोट शरीरमें उत्पन्न होनेवाले सब जीबोकी प्रथम समय में ही उत्पत्ति इस न्याय के अनुसार बन जाती है। २ इसका तात्पर्य यह है कि- सबसे जघन्य पर्याप्ति कालके द्वारा यदि पहले उत्पन्न हुए निगोद जीव शरीर इन्द्रियपर्याप्ति आहारपर्याप्त और उच्छ्वास निश्वास पर्याप्त से पर्याप्त होते है, तो उसी शरीर में उनके साथ उत्पन्न हुए मन्दयोगवाले जोव भी उसी कालके द्वारा इन पर्याप्तियोंको पूरा करते है, अन्यथा आहार ग्रहण आदिका साधारणपना नहीं बन सकता है । यदि दीर्घ कालके द्वारा पहले उत्पन्न हुए जीव चारो पर्याप्त प्राप्त करते है तो उसी शरीर मे पीछेसे उत्पन्न हुए जीव उसी काल के द्वारा उन पर्याप्तयोको पूरा करते है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। प्रश्न - शरीर पर्याप्त और इन्द्रिय पर्याप्ति ये सबके साधारण है ऐसा ( सूत्र ) क्यो नही कहा। उत्तर- नहीं, क्योंकि गाथा सूत्र में 'आहार' और आनपानका ग्रहण देशामर्शक है, इसलिए उनका भी इन्ही अन्तर्भाव हो जाता है।
४. एक ही निगोद शरीरमें जीवोंके आवागमनका प्रवाह चलता रहता
ध. १४/५,६,५८३/४७०/५ एगसमएण जहि समए अनंतजीवा उप्पज्जति सहि चैन समए सरीरस्स सविया च उत्पत्ती होदि तेहि मिया सिमुप्यन्तिविरोहादी कर विविया पिउत्पत्ती होदि, अणेगसरीराधारतादो। जिस समयमें अनन्त जीव उत्पन्न होते है उसी समय शरीरकी और पुतनिकी उत्पति होती है, क्योकि इनके बिना अनन्त जीवोकी उत्पत्ति होनेमें विरोध है । कहीपर सविकी पहले भी उत्पति होती है क्योंकि वह अनेक शरीरोका आधार है।
गो. जी. / जी प्र / १६३ / ४३१/१६ यन्निगोदशरीरे यदा एको जीव स्वस्थितिक्षयवशेन म्रियते तदा तन्निगोदशरीरे समस्थितिका. अनन्तानन्ता जीवा सहैव म्रियन्ते । यन्निगोदशरीरे यदा एको जीव प्रक्रमति उत्पद्यते तथा तन्निगोदशरीरे समस्थितिका अनन्तानन्ता जीवाः सहैव प्रक्रामन्ति एमरण समकायमपि साधारणलक्ष शिर द्वितीयादिसमयोत्पन्नानामनन्दानवानामपि स्वस्थितिक्षये सहन मरणं ज्ञातव्य एवमेकनिगोदशरीरे प्रतिसमयमनन्तानन्तजीवास्तावत्सहैव म्रियन्ते सदैवात्पद्यन्ते यावदसंख्यातसागरोपमकोटिमात्री असंख्यातला कमात्र समयप्रमिता उत्कृष्ट निगोदकायस्थिति' परिसमाप्यते । एक निगोद शरोरमे जब एक-एक जीव अपनी आयुकी के पूर्ण होनेपर मरता है हम जिनकी आयु उस गिगोव शरीर में समान हो वे सब युगपत् मरते है । और जिस कालमें एक जब उस निगद शरीरमे जन्म लेता है, तब उस होके साथ समान स्थितिके धारक अनन्तानन्त जीव उत्पन्न होते है। ऐसे उपजने मरनेके समकालने को भी साधारण जीववा लक्षण कहा है (दे० वनस्पति/ ४ / २ ) और द्वितीयादि समयोमे उत्पन्न हुए अनन्तानन्त जीवोका भी अपनी आयुका नाश होनेपर साथ ही मरण होता है। ऐसे एक निगोद शरीर में अनन्तानन्त जीव एक साथ उत्पन्न होते हैं, एक साथ मरते है, और निगोद शरीर ज्योका त्यो बना रहता है। इस निगाद शरीरकी उत्कृट स्थिति असख्यात कोड़ाकोडी सागर
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