Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 518
________________ वरतनु ५११ वरतनु - लवण समुद्रकी दक्षिण व उत्तर दिशामें स्थित द्वो व उनके स्वामी देव दे० लोक /४/१ 1 वरवर - म पु / सर्ग / श्लोक - 'पूर्व भय से ७ में लोलुप नामक हलवाई था । ( ८ / २३४) । पूर्व भव स ६ में नकुल हुआ । (८/२४१) | पूर्व में उत्तरकुरूमै ननुष्य हुआ। (२/२०) । पूर्व भव स * ४ मे ऐशान मनोरथ मामक देवा (१/९८०) पूर्व भन सं ३ में प्रभजन राजाका पुत्र प्रशान्त मदन हुआ । ( १०/१५२ ) । पूर्व भव सं. २ मे अच्युत स्वर्ग मे देव हुआ । ( १०/१७२ ) । पूर्ववाले भय मे अपराजित स्वर्ग मे अहमिन्द्र हुवा (११/१०)। अथस सर्वार्थसिद्धिमें अहमिन्द्र हुआ। ( ११/१६० ) और वर्तमान वरवीर हुआ। ( १६ / ३)। जिसका अपरनाम जयसेन भी था । ( ४७ / ३७६ ) |- [ युगपत् समरत भत्रा के लिए दे० (४७/३७६-३७७)] । यह ऋषभदेव के पुत्र भरतका छोटा भाई था । १६ / ३ ) । भरत द्वारा राज्य माँगनेपर दीक्षा ले ली। ( ३४ / १२६ ) पश्चात् मोक्ष सिधारे। ( ४७ / २६६ ) । ( । भरत के मुक्ति जाने के वररुचि - १ शुभचन्द्राचार्य व कवि कालिदासके समकालीन एक विद्वान् । समय-ई १०२१-१०५५ । (ज्ञा प्र १० प बाकलीवाल ) । २ एक प्रसिद्ध व्याकरणकार समय ई. ( प / ११ / A. N. Up ) पन्नालाल ५०० वरांगकुमार पराग परित्र / सर्ग / श्लोक समपुर के भोज गो राजा धर्मसेनका पुत्र था । (२/२) । अनुपमा आदि १० कन्या लोका पाकिया (२०) मुनिदर्शन ( २३/२२.११/०२ ) । अणुव्रत धारण । ( ११ / ४३ | राज्यप्राप्ति (११ / ६५) । सौतेले भाइयोका द्वेष (१११८२) । यो यन्त्र करके कुशिक्षित पर सार कराया । ( १२ / ३७ ) | घोडेने अन्ध कूपमें गिरा दिया। यहाँसे लता पकडकर बाहर निकला । ( १२/४६ ) | सिंहके भयमे सारी रात वृक्षवर बसेरा ( १२ / २६ ) । हाथी द्वारा सिहका हनन । ( १२/६६ ) सरोवर में स्नान करते हुए नक्रने पॉव पकड लिया (१३/३ ) | देवने रक्षा को । देवीके द्वारा विमाही प्रार्थना की जानेपर अपने उपर रह रहा। (१३/३८ )। भीलो द्वारा बाँधा गया । ( १३/४६ ) । देवीपर बलि चढानेको ले गये। भीलराजके पुत्रके सर्प काटेका विष दूर करनेसे हाँसे छुटकारा मिला। (१३/६५) पुन एकसने पकड लिया । ( १३ / ७८ ) | दोनो मे परस्पर प्रेम हो गया। भीलोके साथ युद्ध कौशल दिखाया। पूज्यता प्राप्त हुई। (१४/०९)। श्रेष्ठी पद प्राप्ति ( १४ / ८६) । राजा देवत्सेन के साथ युद्ध तथा विजय प्राप्ति ( १८ / १०३) । राजकन्या सुनन्दासे विवाह । ( १६ / २० ) । मनोरमा कन्या के मोहित होनेपर दूत भेजना पर शोलपर दृढ रहना । (१६ / ६१) मनोरमाके साथ विवाह । ( २०/४२ ) । पिता धर्मपर शत्रुकी चढाई सुनकर अपने देशमे गये । उनके जाते ही शत्रु भाग गया । (२०६०) | राज्य प्राप्ति । ( २०/६५ ) धर्म व न्यायपूर्वक राज्यकार्य की सुव्यवस्था । ( सर्ग २१-२७ ) । पुत्रोत्पत्ति ( ( २८/५) | दीक्षा धारण । (२१/००) सर्वार्थ सिद्धि देव हुए (२९/१०१) । बराटक कोडी - ३० नि वराह - विजयार्ध की उत्तर श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । बहिर राजा विक्रमादित्य नयनो में से एक प्रसिद्ध कवि थे। समय - ई ५०५-५८७ ( न्यायावतार 1प्र1 सतीशचन्द्र विद्याभूषण) (भाचरित १४ पं उदयलाल ) | Jain Education International वगंणा वरुण - १ लोकराज देनोका एक भेद-दे० लोकपाल । २ मल्लिनाथ का शासक गक्ष -- दे०तीर्थकर ५/३ । ३. दक्षिण वारुणीवर द्वीपका रक्षक देव दे० पस्तर ४४ विजया दक्षिणमे स्थित एक पर्वत–२० मनुष्य ॥४॥ ५ प पु / १६/५६ - ६१ रसातलका राजा था। रावणके साथ हनुमाने इसके सौ पुत्रोको बाँध लिया और अन्त में इसको भी पकड़ लिया। ६ भद्रशाल वनमे कुमुद व पलाशगिरि नामक दिग्गजेन्द्र पर्वतोके स्वामी देव - दे० लोक /३/१२/ वरुण डायिक वरुण प्रभउत्तर वारुणीवरही पका कन्तर / ४ । वर्ग 1 रावा./२/५/४/२०७/६ उदयप्राप्तस्य कर्मण प्रदेशा अभव्यानामनन्तगुणा सिद्धानामनन्त प्रमाणा । तत्र सर्वजघन्यगुण प्रदेश परिगृहीत, तरयानुभाग प्रज्ञाछेदेन तावद्धा परिच्छिन्न' विभागो न भवति ते अविभागपरिवेशः सर्वजीवानामनन्तगुणा एको राशि कृत । अपर एकाविभागपरिच्छेदाधिक; प्रदेश परिगृहीत' तमेव तस्याविभाग-परिच्छेद कृता । स एको राशिर्वर्न । उदय प्राप्त कर्मके प्रदेश अभव्योके अनन्त गुणे तथा सिद्धो के अनन्त भाग प्रमाण होते है। उनमें से सर्व जघन्य गुणवाले प्रदेश के अनुभागका बुद्धिके द्वारा उतना सूक्ष्म विभाग किया जाये जिससे आगे विभाजन न हो सकता हो। ये अविभाग प्रतिच्छेद सर्व जीवराशि अनन्त गुण प्रमाण होते है। एकके पीछे एक स्थापित करके इनकी एक राशि बनानी चाहिए। सर्व जघन्य गुणवाले प्रदेश के अविभाग प्रतिच्छेदोकी इस राशिको वर्ग कहते है। इसी प्रकार दूसरे-तीसरे आदि सर्व जवन्य गुणवाले प्रदेश के पृथक-पृथक वर्ग बनाने चाहिए। पुन एक अविभाग प्रतिच्छेद अधिक गुण वालोके सर्व जीवराशिके अनन्तगुण प्रमाण राशिरूप वर्ग बनाने चाहिए | ( रामान गुणवाले सर्व प्रदेशको वर्गराशिको वर्गणा कहते हैं (दे० वर्गणा ) ] (क. पा ५ / ४-२२ / ९५७३/३४४/१), (ध. १२/४,२,७,१६६/१२/८/ घ. १०/४,२, ४, १७८४४९/६ एगजावपदेसाविभागपरिच्छेदाण वग्गववएमादो। एक जीवप्रदेश के विभाग प्रति वर्ग यह संज्ञा है । आकाशोपपन्न देव दे० देव / I ! / ३ 1 ससा / ५२ शक्तिसमूहलक्षणो वर्ग । शक्तियोका अर्थात् अविभागमा समूह वर्ग है। गो जी //५६/११३/१४) रक्षक व्यन्तर देव-दे० २. जधन्य वगका लक्षण ल सा / भाषा / २२३/२७७/८ सबते थोरे जिस परमाणु विषै अनुभाग के अविभाग प्रतिच्छेद पाइए ताका नाम जघन्य वर्ग है। २. गणित प्रकरण में वर्गका लक्षण किसी राशिको दो बार मॉडकर परस्पर गुणा करनेसे ताका वर्ग होता है। अर्थात् Square विशेष दे० गणित 111/the) * द्विरूप वगधारा ६०/५/२ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश वर्गेण संवर्गण - दे० गणित / LI/२/६ वर्गणा- - समान गुणवाले परमाणुपिण्डको वर्गणा कहते है, जो ५ प्रधान जातिवाले सूक्ष्म स्कन्धोंके रूपमें लोकके सर्व प्रदेशोपर अवस्थित रहते हुए, जीवके सर्व प्रकार के शरीरो व लोकके सर्व स्थूल भौतिक पदार्थों के उपादान कारण होती है। यद्यपि वर्गणाकी For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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