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वनस्पति
प्रमाण है । सो असख्यात लोक्मात्र समय प्रमाण जानना । जब तक वह स्थिति भारत पूर्ण नही होती, तत्रतक जोवोका मरना उत्पन्न होना रहा करता है।
५ वादर व सूक्ष्म निगोद शरीरोंमें पर्याप्त व अपर्याप्त जीवोंके अवस्थान सम्बन्धी नियम
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ष व १४/५.६/ सु. ६२-६३०/४८३ सव्त्रो बादरणिगोदो पज्जत्तो वा वामिस्सो वा ६२६| सु मणिगोदवग्गणाए पुण नियमा वा मिस्सो | ६३०१
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ध. १४/५,६, ६२६/४८३-४८५/१० खंडरावासपुल वियाओ अस्सिदूण एवं सिरी एम सरीरे पज्जन्तापज्जाजीवानाविरहादो। सब्वो बादरणिगोदो पज्जन्तो वा होदि । कुदो । वादरहितेहि सह लगवामविया उपमादरगिगोटापज्जत अतोहसे काले मिस्स मुवे सुद्धा बादरणिजता पेपरमाराणादो एसो हेट्ठा पुण चादरणिगोदो वामिस्सो होदि, खधडरावासपुलविग्रासु बादरणिगोद पज्जत्तापज्जत्ताणं अणताण सहावठाण दंसणादो ।
१४/५.६०/
गृहमणिमोदवनाए
या समति तेण सा पियमा पज्जचा समा होदि । किमवा समवदि सुमणि गोदापा पदेसकालसमाभाकादो एथ पसे रति चेन कालमुपती परी ण उप्पज्जति त्ति जेणे नियमो णत्थि तेण सा सम्बकाले वामिस्सा त्ति भणिद होदि । • सब बादर निगोद पर्याप्त है या मिश्र रूप है | ६| परन्तु सूक्ष्म निगोद वर्गणा में नियमसे मिश्र रूप है । ६१० । स्कन्ध] अण्डर आवास और पुलवियोंका आश्रय लेकर यह सूत्र कहा गया है. शरीरोका आश्रय लेकर नहीं कहा गया है. क्योकि एक शरीर मे पर्याप्त और अपर्याप्त जीबोका अवस्थान होनेमें विरोध है । सब बादर निगोद जोब पर्याप्त होते है, क्योकि बादर निगाद के साथ स्कन्ध, अण्डर, आवास, और पुलवियोमे उत्पन्न हुए अनन्त बादर निगाद अपर्याप्त जोवोके अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर सबके मर जानेपर वहाँ केवल बादर निगोद पर्याप्तकों का ही अवस्थान देखा जाता है। परन्तु इससे पूर्व बादर निगोद व्यामिश्र होता है, क्योकि स्कन्ध, अण्डर, आवास और पुलवियोमें अनन्त बादर निगोद पर्याप्त और अपर्याप्त वोंका एक साथ अवस्थान देखा जाता है । यत सूक्ष्म निगोद जाने पर्याप्त और अपको सर्वदा सम्भय है, इसलिए वह से पर्याप्त और अपर्याप्त जोवोसे मिश्र रूप होती है प्रश्न उसमें सर्वकाल किसलिए सम्भव है। उसकि सूक्ष्म निनोद पर्याप्त और अपर्याप्त जीवोकी उत्पतिके प्रवेश और कालका कोई नियम नही है। इस प्रदेशमें इतने हो काल तक उत्पत्ति होती है, आगे उत्पत्ति नहीं होती इस प्रकारका चूँकि नियम नहीं है इसलिए वह सूक्ष्म नगद वा रूप होती है।
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गीजी / जो प्र / १६३ / ४३२ / ३ अत्र विशेषोऽस्ति स च के एक्बादरनिगोदशरीरे सूक्ष्मनिगोदशरीरे वा अनन्तानन्ता साधारणजीवा, केला एवोपयन्ते पुनरपि एकदशरीरे पर्या
न च मिश्रा उत्पद्यन्ते तेषां समानकर्मोदयनियमात् । = इतना विशेष है कि एक बादर निगोद शरोरमें अथवा सूक्ष्म निगोद शरीर में अनन्तानन्त साधारण जीव केवल पर्याप्त ही उत्पन्न होते है, वहाँ अपयश नहीं उपजते और कोई शरीर में अपर्याप्त होते है वहाँ पर्याप्त नही उपजते । एक ही शरीर में पर्याप्त अपर्याप्त दोनो युगपत् नहीं उत्पन्न होते। क्योकि उन जीवोके समान कर्म के उदयका नियम है।
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६ सनेक जी एक शरीर होनेमे हेतु
गलविपाकवादा
१ / ०.१,४५ / २१६/- प्रतिनियतीप्रति हारवर्गणाधाना का याकारपरिणमनहेतुभिरौदारिककर्मस्वन्धै. क्थ भिन्नजीव फलदातृभिरेक शरीर निष्पाद्यते विरोधादिति चेन्न, पुद्गलानामेक देशावस्थितानामेक देशावस्थित मिथ समवेतजीवसमवे ताना तस्याशेपाणिमयेकरीदन न frea' साधारणकारणतसमुत्पन्न कार्यस्य साधारणत्वादि कारणानु रूप कार्यमिति न निषेध पाते याचिका - प्रश्न- जीवोंमे अलग-अलग बँधे हुए, पुद्गल विपाकी होनेसे आहार-वर्गणाके स्कन्धोंको शरीरके आकार रूपसे परिणमन कराने में कारण रूप और भिन्न-भिन्न जीवको भिन्न-भिन्न फल देनेवाले औदारिक कर्म धोके द्वारा अनेक जीवोके एक-एक शरीर कैसे उत्पन्न किया जा सकता है, क्योकि ऐसा माननेमें विरोध आता है । उत्तर- नहीं, क्योंकि, जो एक देश में अवस्थित है और जो एक देश में अवस्थित तथा परस्पर सम्बद्ध जीवोके साथ समवेत हैं, ऐसे पुद्गल वहॉपर स्थित सम्पूर्ण जीव सम्बन्धी एक शरीरको उत्पन्न करते है, इसमें कोई विरोध नही आता है क्योकि, साधारण कारणसे उत्पन्न हुआ कार्य भी साधारण होता है। कारणके अनुरूप ही कार्य होता है. इसका निषेध भी तो नहीं किया जा सकता है, क्योकि यह बात सम्पूर्ण नैयायिक लोगो प्रसिद्ध है।
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• अनेक जीवका एक आहार होने हेतु ४. १४/४६. १२२ / २२० कथमेण जीवे गहिदो बाहारो त तत्थ अनंताणं जीवाण जायदे ण, तेणाहारेण जणिसत्तीए पच्छा उप्पण्णजीवाणं उप्पणपढमसमए चेव उवल मादो। जदि एव तो आहारो साहारणो होदि बाहर दिसती साहारणे मितव्य न एस दोस्रो कारोवारेण आहारजविसली विहारयएस सिद्धीओ। प्रश्न- एक जीवके द्वारा ग्रहण किया गया आहार उस कालमें वहाँ अनन्त जीवोका कैसे हो सकता है। उत्तर-नहीं, क्योकि उस आहारसे उत्पन्न हुई शक्तिका बादमें उत्पन्न हुए जीवोके उत्पन्न होनेके प्रथम समय में ही ग्रहण हो जाता है। प्रश्न- यदि ऐसा है तो 'आहार साधारण है इसके स्थान में 'आहार जनित शक्ति साधारण है' ऐसा कहना चाहिए। उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योकि कार्य में कारणका उपचार करें लेनेसे आहार जनित शक्तिके भी आहार संज्ञा सिद्ध होती है ।
वनीपक- आहार सम्बन्धी एक दोष- दे० आहार /11/४/४ |
वह्नि - १. अग्नि सम्बन्धी विषय- दे० अग्नि । लौकान्तिक देवीका एक भेद - दे० लौकान्तिक ।
ब] दे० शरीर
चत्र
अपर निदेहका एक क्षेत्र-दे० लोक / २२ बरि वक्षारका एक कूट व उसका स्वामो देव-दे० लोक /५/४ |
वप्रवान १. अपर विदेएक क्षेत्र०/०२ सुर वक्षारका एक कूट व उसका स्वामी - दे० लोक /७ ।
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वय प्र.सा./ता / २०३ / २०६/१ शुद्धात्मसमितिविनाशकार वातयौवन' ब्रेकअप वरचेति शुद्ध आत्मा के संवेदनको विनाश करनेवाली, वृद्ध, बालक व यौवन अवस्थाके उसे उत्पन्न होनेवाली बुद्धिको विकलतासे रहित वय होती है ।
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