Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 503
________________ वंश ४९६ वक्ता वश-१. ऐतिहासिक राज्यवंश-दे० इतिहास/३ । २. पौराणिक केवली आरातीयश्चेति । वक्ता तीन प्रकारके है-सर्वज्ञ तीर्थ कर राज्यवश -दे० इतिहास/७१३. जैन साधुओके वश या सघ -दे० या सामान्य केवली, श्रुतकेवली और आरातीय । इतिहास/४,५॥ ३. जिनागमके वास्तविक उपदेष्टा सर्वज्ञ देव ही हैं वंशपत्र- दे० योनि। दे० आगम/५/५ ( समस्त वस्तु-विषयक ज्ञानको प्राप्त सर्वज्ञ देवके निरूवंशा-नरककी दूसरो पृथिवी। अपर नाम शर्कराप्रभा। -दे० पित होनेसे ही आगमकी प्रमाणता है।) शराप्रभा तथा नरक ! दे० दिव्यध्वनि/२/१५ ( आगमके अर्थकर्ता तो जिनेन्द्रदेव है और ग्रन्थवंशाल--विजया की उत्तर श्रेणीका एक नगर । -दे० विद्याधर। कर्ता गणधर देव है।) द पा/टो/२२/२०/८ केवलज्ञानिभिर्जिनभणितं प्रतिपादितम् । केवलवक्तव्य-१ वस्तु कथचित् वक्तव्य है और कथं चित् अवक्तव्य ज्ञानं विना तीर्थ करपरमदेवा धर्मोपदेशनं न कुर्वन्ति । अन्यमुनी-दे० सप्तभ गी/६ । २. शब्द अल्प है और अर्थ अनन्त -दे० नामुपदेशस्त्वनुवादरूपो ज्ञातव्य । - केवलज्ञानियोके द्वारा कहा आगम/४। गया है। केवल ज्ञान के बिना तीर्थकर परमदेव उपदेश नही करते । वक्तव्यता अन्य मुनियोका उपदेश उसका अनुवादरूप जानना चाहिए। ध१/१,१,१/८२/५ वत्तव्वदा तिविहा, ससमयवत्तव्वदा परसमयवत्तब्बदा तदुभयवत्तव्वदा चेदि । जम्हि सत्यम्हि स-समयो चेव ४. धर्मोपदेष्टाकी विशेषताएँ वणिज्जदि परूविज दि पण्णाविज्जदि तं सत्थं ससमयवत्तव्वं, तस्स भावो ससमयवत्तव्वदा। पर समयो मिच्छत्तं जम्हि पाहूडे अणि कुरल/अधि /श्लो, भो भो' शब्दार्थवेत्तार' शास्तार' पुण्यमानसा. । योगे वा बणिज्जदि परूविज्जदि पण्णाविस्जदि त पाहुडमणि- श्रोतृणां हृदय बोक्ष्य तदहाँ ब त भारतीम् ॥ (७२/२) । विद्वद्योगो बा परसमयवत्त व्वं, तस्स भावो परसमयवत्तव्वदा णाम । गोष्टया निजज्ञानं यो हि व्याख्यातुमक्षम । तस्य निस्सारता जस्थ दो वि परूवेऊण पर-समयो दूसिज्जदि स-समयो थाविज्जदि याति पाण्डित्य सर्वतोमुखम् । (७३/८) । =ऐ शब्दोका मूल जानने वाले पवित्र पुरुषो। पहले अपने श्रोताओकी मानसिक सत्थ सा तदुभयवत्तव्यदा णाम भवदि ! वक्तव्यताके तीन प्रकारस्वसमय वक्तव्यता, परसमय वक्तव्यता और तभय वक्तव्यता। स्थितिको समझ लो और फिर उपस्थित जनसमूहकी अवस्थाके अनुसार अपनी बक्तता देना आरम्भ क्रो। (७२/२)। जो लोग जिस शास्त्र में स्वसमयका ही वर्णन किया जाता है, प्ररूपण किया जाता है, अथवा विशेष रूपसे ज्ञान कराया जाता है, उसे विद्वानोंको सभामे अपने सिद्धान्त श्रोताओके हृदय में नहीं बिठा स्वसमय वक्तव्य कहते है और उसके भात्रको अर्थात् उसमें रहने सकते उनका अध्ययन चाहे कितना भी विस्तृत हो, फिर भी वह वाली विशेषताको स्वसमय वक्तव्यता कहते है। पर समय निरुपयोगी ही है। (७३/८) । मिथ्यात्वको कहते है, उसका जिस प्राभूत या अनुयोगमें आ. अनु/५-६ प्राज्ञ प्राप्तसमस्तशास्त्रहृदय' प्रव्यक्तलोकस्थितिः, वर्णन किया जाता है, प्ररूपण किया जाता है या विशेष ज्ञान प्रास्ताश' प्रतिभापर' प्रशमवान् प्रागेव दृष्टोत्तर'। प्राय' प्रश्नसह कराया जाता है उस प्राभूत या अनुयोगको परसमय वक्तव्य कहते प्रभु' परमनोहारो परानिन्दया, ब्रयाद्धर्म का गणी गुणनिधि' है और उसके भावको अर्थात् उसमें होने वाली विशेषताको पर प्रस्पष्टमिष्टाक्षर ।। श्रुतम विकलं शुद्धा वृत्ति परप्रतिबोधने, परि समय वक्तव्यता कहते है। जहाँपर स्वसमय और परसमय इन तिरुरुद्योगो मार्ग प्रवर्तनसद्विधौ । बुधनुतिरनुत्सेको लोक्ज्ञता दोनोका निरूपण करके परसमयको दोषयुक्त दिखलाया जाता है मृदुतास्पृहा, यतिपतिगुणा यस्मिन्नन्ये च सोऽस्तु गुरु' सताम् ।। और स्वसमय की स्थापना की जाती है, उसे तदुभय वक्तव्य कहते -जो प्राज्ञ है, समस्त शास्त्रोके रहस्यको प्राप्त है, लोकव्यवहारसे है, और उसके भावको अर्थात् उसमें रहनेवाली विशेषताको तदुभय- परिचित है, समस्त आशाओसे रहित है, प्रतिभाशाली है, शान्त वक्तव्यता कहते है । (ध./४,१,४५/१४०/३ )। है, प्रश्न होनेसे पूर्व हो उसका उत्तर दे चुका है, श्रोताके प्रश्नों को सहन करनेमे समर्थ है, ( अर्थात उन्हे सुनकर न तो घबराता है २. जैनागममें कथंचित् स्वसमय व तदुभय वक्तव्यता और न उत्तेजित होता है ), दूसरोके मनोगत भावोंको ताडने बाला है, अनेक गुणोका स्थान है, ऐसा आचार्य दूसरोकी निन्दा न ध. १/१.१,१/०२/१० एत्थ पुण- जीवट्ठाणे ससमयबत्तबदा ससमयस्सेव करके स्पष्ट एव मधुर शब्दो में धर्मोपदेश देनेका अधिकारी होता परूवणादो। -इस जीवस्थान नामक (धवला ) शास्त्रमें स्वसमय है।५। जो समस्त श्रुतको जानता है, जिसके मन वचन कायकी वक्तव्यता ही समझनी चाहिए, क्योकि इसमें स्वसमयका ही निरू प्रवृत्ति शुद्ध है, जो दूसरोको प्रतिबोधित करने में प्रबोण है, मोक्षपण किया गया है। मार्गके प्रचाररूप समोचीन कार्य में प्रयत्नशील है, दूसरोके द्वारा क पा./२/१,१/ ८१/१७/२ तत्थ सुदणाणे तदुभयवत्तव्बदा, सुणयदुण्ण प्रशसनीय है तथा स्वय भी दूसरोकी यथायोग्य प्रशसा व विनय याण दोपहं पि परूवणाए तत्थ संभवादो। = श्र तज्ञानमें तदुभय आदि करता है, लोकज्ञ है, मृदु व सरल परिणामी है, इच्छाओसे वक्तव्यता समझना चाहिए, क्योकि, श्रुतज्ञानमें सुनय और दुर्न य रहित है, तथा जिसमे अन्य भी आचार्य पदके योग्य गुण विद्यमान इन दोनोंकी ही प्ररूपणा सभव है। है, वही सज्जन शिष्योका गुरु हो सकता है।६। वक्ता दे० आगम/1/8 (वक्ताको आगमार्थ के विषय में अपनी अरसे कुछ नहीं रा, वा./१/२०/१२/७५/१८ वक्तारश्चाविष्कृतवक्तृपर्याया द्वीन्द्रियादयः । कहना चाहिए)। --जिनमें वक्तृत्व पर्याय प्रगट हो गयी है ऐसे द्वीन्द्रियसे आदि। दे० अनुभव/३/१ ( आत्म-स्वभात्र विषयक उपदेश देने में स्वानुभवका लेकर सभी जीव वक्ता है । (ध १/१,१,२/११७/६). (गो जो/जी.प्र) ___ आधार प्रधान है।) ३६५/७७८/२४) । दे० आगम/६/१ (वक्ता ज्ञान व विज्ञानसे युक्त होता हुआ ही प्रमाणता को प्राप्त होता है।) २. वक्ताके भेद दे० लब्धि/३ (मोक्षमार्गक उपदेष्टा यास्त में सम्यग्दृष्टि होना चाहिए स सि /२/२०/१२३/१० त्रयो वक्तार -सर्वज्ञस्तीर्थ कर इतरो वा श्रुत- मिथ्यादृष्टि नही।) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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