Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 509
________________ वनस्पति ५०२ १. बनस्पति व प्रत्येक बनस्पति सामान्य निर्देश साधारण शरीरमें जीवोंका उत्पत्ति क्रम निगोद शरीरमें जीवोंकी उत्पत्ति क्रमसे होती है। निगोद शरीरमें जीवोंकी उत्पत्ति क्रम व अक्रम दोनों प्रकारसे होती है। जन्म मरणके क्रम व अक्रम सम्बन्धी समन्वय -दे० वनस्पति/५/२। आगे पीछे उत्पन्न होकर भी उनकी पर्याप्ति युगपत् होती है। | एक ही निगोद शरीरमें जीदोंके आवागमनका प्रवाह चलता रहता है। बीजवाला ही जीव या अन्य कोई भी जीव उस योनि स्थानमें जन्म धारण कर सकता है -दे० जन्म/२। बादर व सूक्ष्म निगोद शरीरोमें पर्याप्त व अपर्याप्त जोवोंके अवस्थान सम्बन्धी नियम । अनेक जोवोका एक शरीर होनेमें हेतु। ७ अनेक जीवोंका एक आहार होनेमें हेतु । १. वनस्पति व प्रत्येक वनस्पति सामान्य निर्देश १, वनस्पति सामान्यके भेद प. व १/१,१/सू. ४१/२६८ वणप्फइकाइया दुविहा, पत्तेयसरीरा साधारणसरीरा । पत्तेयसरीरा दुविहा, पज्जत्ता अपज्जत्ता । साधारणसरीरा दुविहा, बादरा सुहुमा। बादरा दुविहा, पज्जत्ता अपज्जत्ता। मुहमा दुविहा, पज्जत्ता अपज्जत्ता चेदि ।४। वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके हैं.प्रत्येकशरीर और साधारणशरीर । प्रत्येक शरीर वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके हैं, पर्याप्त और अपर्याप्त । साधारणशरीर वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके है-बादर और सूक्ष्म । बादर दो प्रकारके है, पर्याप्त और अपर्याप्त। ष. वं १४/५.६/सू. ११६/२२५ सरोरिसरोरपरूवणाए अस्थि जीवा पत्तेय-साधारण-सरोरा ।११।-शरी रिशरीर प्ररूपणाको अपेक्षा जीव प्रत्येक शरीरवाले और साधारण शरीरवाले है। (गो. जी./जी प्र] १८५/४२२/३)। २. प्रत्येक वनस्पति सामान्यका लक्षण ध. १/१,२,४१/२६८/६ प्रत्येकंपृथक्शरीर येषा ते प्रत्येकशरीराः खदि रादयो वनस्पतय ।-जिनका प्रत्येक अर्थात् पृथक्-पृथक् शरीर होता है, उन्हे प्रत्येक शरीर जीव कहते है जैसे-खैर आदि वनस्पति । (गो. जी./जी प्र/८५/४२२/४)। ध ३/१.२,८७/३३३/१ जेण जीवेण एक्केण चेव एकसरीरट ठिएण मुहदुरखमणुभवेदवमिदि कम्ममुवज्जिदं सो जीवो पत्तयसरीरो। जिस जीवने एक शरीरमें स्थित होकर अकेले ही सुख दुखके अनुभव करने योग्य कर्म उपार्जित किया है, वह जीव प्रत्येकशरीर है। ध, १४/५,६,११६/२२५/४ एक्कस्सेव जोवस्स जं सरीर त पत्तेयसरीरं । तं सरीरं ज जीवाणं अत्थि ते पत्तेयसरीराणाम) अथवा पत्तेयं पुधभूद उरीर जेसि ते पत्तेयसरीरा। एक ही जीवका जो शरीर है उसकी प्रत्येक शरीर सज्ञा है। वह शरीर जिन जीवोके है वे प्रत्येक शरीरजीव कहलाते है । अथवा प्रत्येक अर्थात पृथक् भूत शरीर जिन जीवोंका है वे प्रत्येकशरीर जीव है। गो जो./जी. प्र/१८६/४२३/१४ यावन्ति प्रत्येकशरीराणि तावन्त एव प्रत्येकवनस्पतिजीवा तत्र प्रतिशरीरं एकै कस्य जीवस्य प्रतिज्ञानाद ।जितने प्रत्येक शरीर है, उतने वहाँ प्रत्येक वनस्पति जीव जानने चाहिए, क्योकि एक-एक शरीरके प्रति एक-एक जीवके होनेका नियम है। ३. प्रत्येक वनस्पतिके भेद का. अ/मू./१२८ पत्तेया वि य दुविहा णिगोद-सहिदा तहेव रहिया य । दुविहा होति तसा वि य वि-ति चउरक्खा तहेव पचवरवा ।१२। -प्रत्येक वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकारके होते है-एक निगोद सहित, दूसरे निगोद रहित । ११२८। (गो.जो /जी.प्र /१८५/४२२/५) । गो, जी /जो.1/८१-८३/२०१/१३ तृणं बल्ली गुरुम' वृक्ष' मूलं चेति पञ्चापि प्रत्येकवनस्पतयो निगोदशरीरै प्रतिष्ठिता-प्रतिष्ठितभेदादश। -तृण, बेलि, छोटे वृक्ष, बडे वृक्ष, कन्दमूल ऐसे पाँच भेद प्रत्येक बनस्पतिके है। ये पाँचों वनस्पतियाँ जब निगोद शरीरके आश्रित हों तो प्रतिष्ठित प्रत्येक कही जाती है, तथा निगोदसे रहित हों तो अप्रतिष्ठित प्रत्येक कही जाती है। (और भी दे० बनस्पति /३/५)। ४, वनस्पतिके लिए ही प्रत्येक शब्दका प्रयोग है ध,११,१,४१/२६८/६ पृथिवोकायादिपञ्चानामपि प्रत्येकशरीरव्यपदेशस्तथा सति स्यादिति चेन्न इष्टत्वात । तहि तेषामपि प्रत्येकशरीरविशेषण विधातव्यमिति चेन्न, तत्र वनस्पतिष्विव व्यवच्छेद्याभावात । -(जिनका पृथक् पृथक शरीर होता है, उन्हे प्रत्येक शरीर जीव कहते है-दे० बनस्पति ११३) --प्रश्न-प्रत्येक शरीरका इस प्रकार लक्षण करनेपर पृथ्वीकाय आदि पाँचो शरोरों को भी प्रत्येक शरीर संज्ञा प्राप्त हो जायेगी। उत्तर-यह आशंका कोई आपत्तिजनक नहीं है, क्योंकि पृथ्वीकाय आदि के प्रत्येकशरीर मानना इष्ट ही है। प्रश्नतो फिर पृथ्वीकाय आदि के साथ भी प्रत्येक शरीर विशेषण लगा देना चाहिए। उत्तर-नही, क्योकि, जिस प्रकार वनस्पतियोंमें प्ररयेक वनस्पतिसे निराकरण करने योग्य साधारण वनस्पति पायी जाती है, उस प्रकार पृथिवी आदिमें प्रत्येक शरीरसे भिन्न निराकरण करने योग्य कोई भेद नही पाया जाता है, इसलिए पृथिवी आदिमें अलग विशेषण देनेको आवश्यकता नहीं है। (ध ३/१-२,८,७/३३१/४ )। ५. मूल बीज अग्रबीज आदिके उदाहरण गो. जी./जो, प्र १८६/४२३/४ मूल बीज येषां ते मूलबीजा' । ( येषा मूल प्रादुर्भवति ते) आर्द्रकहरिद्रादय । अग्र बीज येषा ते अग्रबीजा' ( येषा अग्र प्ररोहयति ते ) आर्यकोदोच्यादय । पर्व बीजं येषां ते पर्व बीजा' इक्षुवेत्रादय । कन्दो बीज येषां ते कन्दबीजा पिण्डालसूरणादय । स्कन्धो बोज येषां ते स्कन्धबीजा सक्लकीकण्टकीपलादयः। बीजात् रोहन्तीति बीजरुहा' शालिगोधूमादय । संमूर्छ समन्तात् प्रसृतपुद्गलस्कन्धे भवा सम्मूछिमा मूलादिनियतबीजनिरपेक्षा । एते मूलबोजादिसमूछिमपर्यन्ता' सप्रतिष्ठिताप्रतिष्ठितप्रत्येकशरीरजोवास्तेऽपि संमूछिमा एव भवन्ति ।-१ जिनका मूल अर्थात् जड ही बीज हो (जो जड़के बोनेसे उत्पन्न होती है । वे मुलबीज कही जाती है जैसे-अदरख, हल्दी आदि। २. अग्रभाग ही जिनका बीज हो (अर्थात टहनी की क्लम लगानेसे वे उत्पन्न हो ) वे अग्रबीज है जैसे-आर्यक व उदीची आदि । ३, पर्व ही है बीज जिनका वे पर्वबौज जानने। जैसे-ईख, बेत आदि। ४. जो कन्दसे उत्पन्न होती है, वे कन्दबीजी कहो जाती है जैसे-आलू सूरणादि । ५ जो स्कन्धसे उत्पन्न होती है वे स्कन्धबीज है जैसे सल रि, पलाश जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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