Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 510
________________ वनस्पति आदि, जाबोजने हो उ जैसे चावल, गेहूँ आदि होती है. वे ब्रोज कहलाती है। और को नियत बीज आदिकी अपेक्षासे रहित, केवल मट्टी और जल के सम्बन्धसे उत्पन्न होती है, उनको सम्मछिम कहते है । जैसे- फूई, काई आदि । ये मूलादि सम्मूर्छिम वनस्पति प्रतिक्षित प्ररयेक और अप्रतिष्ठित प्रत्येक दोनो प्रकारकी होती है और समको सब सन्मूमि ही होती हैं, गर्भज नहीं। ६. प्रत्येक शरीर नामकर्मका लक्षण ससि / ८ / ११ / ३६९/- शरीर नामकर्मोदयानिर्वर्त्यमानं शरीरमेकारमपभोगकारण यतो भवति तत्प्रत्येक शरीर नाम । (एक्मेकमात्मानं प्रति प्रत्येक प्रत्येक शरीरं प्रत्येकशरीरम् (रा. वा) शरीर नामकर्म के उदयसे रचा गया जो शरीर जिसके निमित्तसे एक आत्माके उपभोगका कारण होता है, वह प्रत्येक शरीर नामकर्म है। ( प्रत्येक शरीर के प्रति अर्थात एक एक शरीरके प्रति एक एक आत्मा हो, उसको प्रत्येकशरीर कहते है रा. वा) (रा. वा. / ०/११/११/ ८७८/१८) (गो. क / जी. प्र / ३३/३० / २ ) । घ. ६/९.१ १.२८/८२/८ जस्स कम्मस्स उदरण जोबो पत्तेयसरी होदि. तस्स कम्मस्स पत्तेयस्रीरमिदि सण्णा । जदि पत्तेयसरीरणामकम्म ण होज्ज, तो एक्कम्हि सरीरे एगजीवस्सेव उवलंभो ण होज्ज । ण च एवं णिज्वाहमुक्त भा। जिस कर्म के उदयसे जीन प्रत्येक शरीरी होता है, उस कर्म की प्रत्येकहशरीर वह संज्ञा है। यदि प्रत्येक शरीर नामकर्म न हो, तो एक शरीरमें एक जीवका ही उपलम्भ न होगा । किन्तु ऐसा नहीं है, क्योकि प्रत्येक शरीर जीवोंका सद्भाव वाघारहित पाया जाता है । घ. १३/५.५.१०१/३६६/८ जस्स कम्मस्तुवरण एडसरीरे एक्को पेव जीवो जीवदितं कम्मं पत्ते यसरीरणामं । - जिस कर्म के उदयसे एक शरीरमे एक ही जीव जीवित रहता है, वह प्रत्येक शरीर नामकर्म है। ७. प्रत्येक शरीर वर्गणाका प्रमाण घ. १४/५.६.९१६/९४४/२ बट्टमानकाले पतेयसरीरवग्गणाओ उस्मेण अज्जोगसी पेन होति ति नियमायो । वर्तमानकासमें प्रत्येक शरीर वर्गणाऍ उत्कृष्ट रूपसे असंख्यात लोक प्रमाण ही होती है, यह नियम है। २. निगोद निर्देश १. निगोद सामान्यका लक्षण घ. १४/५.६.६३/२/१३ के णिगोदा गाम पुलवियाओ चिगोदा भिपंति प्रश्न- निगोद किन्हे कहते है। उत्तर- सवियोंको निगोद कहते है । विशेष दे० वनस्पति /३/७ । (ध. १४/५.६.५८२/४७०/१) । गो. जो/जी/९१९/४२६/१५ साधारण नामकर्मोदयेन जीवा निगोदशरीरा भवन्ति । नि-नियतां गा-भूमि क्षेत्रं निवास, अनन्तानन्तजोजाना दशति इति निगोद निगोहरीर येषां से निगोदशरीरा इति लक्षणसिद्धत्वात । साधारण नामक नामकर्मके उदयसे जोव निगोद शरीरी होता है। नि अर्थात् अनन्तपना है निश्चित जिनका ऐसे जोमोको 'गो' अर्थात् एक ही क्षेत्र, '' अर्थात देता है, उसको निगोद कहते है। अर्थात जो अनन्तो जोवोंको एक निवास दे उसको निगोद कहते है । निगोद हो शरीर है जिनका उनको निगोद शरीरी कहते है। २. निगोद जीवोंके भेद घ. १४/५,६,१२८/२३६/५ र दिउदा जोवा से दुनिहा चउग्गइणिगोदा णिच्चणिगोदा चेदि । निगोदोमें स्थित जोव दो Jain Education International ५०३ २. निगोद निर्देश प्रकारके है - चतुर्गतिभिगोद और निव्यनिगोद ( ये दोनो मादर भी होते है सूक्ष्म भी का अ.) (का. अ./मू./१२५)। ३. नित्य व अनित्य निगोदके लक्षण १. नित्यनिगोद १४/५/१०/२३३ अस्थि अनंता जोवा जेहि न पक्षी तसाग परिणामो भावकल कअपउरा णिगोदवासं ण सुचति ॥ १२७॥ - जिन्होंने अतीत कालमे अभावको नहीं पाया है ऐसे अनन्त जीन है, क्योंकि वे भाव कलंक प्रचुर होते हैं, इसलिए निगोदवासको नहीं त्यागते | १२०१ (नू. जा / १२०२), ( स ) प्रा./१/८५), (घ. १ / १.२.४१ / मा. १४८/२७१), (ध ४/१,५,३१०/गा. ४२ / ४७७), (गो. जी./मू / १६४ / ४४१) ( प सं . / स./१/१९१०), (का. अ /टी./ १२५ ) । रा. वा./२/१२/२०/१४३/२० त्रिष्वपि कालेषु प्रसभावयोग्या न भवन्ति ते निव्यनिगोता । जो कभी पर्यायको प्राप्त करनेके योग्य नहीं होते, वे नित्य निगोद है। घ. १४/५.६.१२०/२३६. त्य निच्चनिगोदा गाम मे सम्मकाल णिगोदेसु चैव अच्छति ते णिच्चणिगोदा णाम । =जो सदा निगोदोमें ही रहते है ये नित्य निगोद है। २. अनित्य निगोद रा. वा. / २ / ३२/२७/१४३ / २१ त्रसभावमवाप्ता अवाप्स्यन्ति च ये ते अनिष्यनिगोता। जिन्होने जस पर्याय पहले पायी थी अथवा पायेगे वे अनित्य निगोद है । घ. १४/५.६.१२०/२३६/६ जे देव-र-तिरिक्ल-मर से सूपनियण पुणे गोपविसिय अच्छति ते चद्रगहण गिगोदा नाम जो देव नारकी, तियंच और मनुष्यों में उत्पन्न होकर पुन 9 निगादो मे प्रवेश करके रहते है वे चतुर्गतिनिगोद जीव कहे जाते है । (गो. जी. जी. प्र./१६७/२४१/१४)। ४. सूक्ष्म वनस्पति तो निगोद ही है, पर सूक्ष्म निगोद वनस्पतिकायिक ही नहीं है . . ७/२.१०/ सु. २१-२२/२०४ मणदिका मनिोद जीवपज्जत्ता सम्बजीवाणं केवडिओ भागो । ३१ । संखेज्जा भागा ॥ ३२ ॥ घ. ७/२.१.३२/५/०४/११ विकाइए भणि पुणो मणिगोदजी विध भदि देण णव्त्रदि जधा सबवे सुहुमवणप्फदिकाइया चैनमणिगोदजीवा न होंति ति जदि एवं तो सध्ये सुहुमव फदिकाइया णिगोदा चेवेत्ति एदेण वयणेण विरुज्झदि त्ति भणिदे विरु मणिगोदामणदिकाश्या महारणा भावादो। कामेदं वदे। बादरणिगोदजीवा शिगोदपदिठिदा अप्पज्जन्त्ता असं ज्यगुणा (१.७/२.११/०६/५४५) शिगोद पदिदिणं बादरणिगोदजीवा ति पिसावा, बादरवणदि काइयाणमुत्ररि णिगोदजीवा विसेसाहिया' (ष. ख. ७/२,११/ सू.७५/ २३) मिणा च । घ. ७/२.११.७५/२११/११ ए चोदगो फिलमे सु फविकारहितो धदणिगोदामामभादो न च वफदिति विकाइयादि गिगोदा स्थिति आएर याणामुवदेसो जेणेदस्स वयणस्स सुत्तत्तं पसज्जदे इदि । एत्थ परिहारो वृच्चदेहो णाम तुम्भेहि युचस्स सच्चतं बहुपत् अणकदी उतरि गिगोदपदस्त अनसभादो निगोदाणामुवर -- दिकायाणं पढणस्तुवल भावो महुएहि आहरिएहि संमदचादी कि तु एतमेव होदिति पावहार कार्ड जु। सो एवं भणदि जो चोदसपुव्वधरो केवलणाणी वा । तदो थप्पं काऊण वे जैनेन्द्र सिद्धान्त कोषा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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