Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 512
________________ वनस्पति घारको हो विवक्षा है। इस कारण वनस्पतिकायिक जीवोमे बादर निगोदोंसे प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित जीवोंका ग्रहण नहीं किया गया। वनस्पतिकायिक जीवोके ऊपर 'निगोदजीव विशेष अधिक है' ऐसा कहनेपर बादर निगोद जीवोंसे प्रतिष्ठित बादर वनस्पतिकायिक प्रत्येक शरीर जीवोसे विशेष अधिक है। प्रश्न- बादर निगोद जीवोसे प्रतिष्ठित अतिष्ठित जीनोंके 'निगोद' संज्ञा कैसे घटित होती है। उत्तर- नहीं, क्योंकि आधारमें आधेयका उपचार करनेसे उनके निगोद सिद्ध होता है प्रश्न समस्पति नामकर्मके उद सब जीवोंके 'वनस्पति' सज्ञासूत्रमें देखी जाती है । बादर निगोद जीवोसे प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित जोवोके यहाँ सूत्रमें वनस्पति संज्ञा क्यों नहीं निर्दिष्ट की। उत्तर- इस शकाका उत्तर गोतमसे पूछना चाहिए। हमने तो 'गौतम बादर निगोद जीवोसे प्रतिष्ठित जीवोंके वनस्पति संज्ञा नही स्वीकार करते' इस प्रकार उनका अभिप्राय रहा है। ७. साधारण जीवको ही निगोद जीव कहते है मो. जी / सूव जी / ११९ / ४२६ साहारगोदमेश गोदसरी हस सामण्णा ||१११४- निगोदशरीरं येषां ते निगोदरीश इति लक्षणसिद्धत्वात् । = साधारण नामकर्मके उदयसे निगोद शरीरको - धारण करनेवाला साधारण जीव होता है। निगोद (दे० वनस्पति / २१) ही है शरीर जिनका उनको निगोदरीश कहते है। का, अ /टी./१२५/६३ साधारणनामकर्मोदयात् साधारणा. साधारणनिगोदा | = साधारण नामकर्मके उदयसे साधारण वनस्पतिकायिक जीव होते हैं, जिन्हे निगोदिया जीव भी कहते है । ८. विग्रहगतिमें निगोदिया जीव साधारण ही होते हैं। प्रत्येक नहीं घ. १४/५,६,११/०९/१० विग्गहगदोए वट्टमाणा बादर- सुहुम णिगोद जोवा पत्तेयसरीरा न होंति, निगोदाम कम्मोदयगते निगाहगदीए वि एगधगमद्वाण राजीवसमूहतादो विहगदी सरीरणाम कम्मोदयाभावादी ण पत्तेयसरीरत्तं ण साहारणसरीरत्तं । तदो ते पत्तेयसरीर-बादर-सुहुमणिगोदवग्गणासु ण कत्थ विबुत्ते वच्चदेण एस दोस्रो, विग्गहगदीए बादर-सुहुमणिगोदणामकम्माणमुदयद स तत्यविबादर-मणिगोदवनगाणमुक्त भादो एदेहितो मदिरित्ता जोवा महिदसरीरा अगहिदसरीश मापते सरीरम होंति । = विग्रहगतिमें विद्यमान बादर निगोद जीव और सूक्ष्म निगोद जोष प्रत्येक शरीरखाने नहीं होते है, क्योकि निगोद नामकर्म के उदयके साथ गमन होनेके कारण विग्रहगति मे भी एक बद्धनबद्ध अनन्त जीवोंका समूह पाया जाता है। प्रश्न- विग्रहगतिमे शरीर नामकर्म का उदय नहीं होता, इसलिए वहाँ न तो प्रत्येकशरीरपना प्राप्त होता है और न साधारण शरीरपना ही प्राप्त होता है। इसलिए वे प्रत्येक शरीर, बादर और सुक्ष्म निगोद वर्गणाओमेसे किन्ही में भी अन्तर्भूत नहीं होती है। उत्तर-यह कोई दोष नही है, क्योंकि विग्रहगतिमें बादर और सूक्ष्म निगोद नामकमका उदय दिखाई देता है, इसलिए वहॉपर भी बादर और सूक्ष्म निगोद वर्णगाएँ उपलब्ध होती है। और इनसे अतिरिक्त जिन्होने शरोरोको ग्रहण कर लिया है या नहीं ग्रहण किया है वे सब जीव प्रत्येकशरीर वर्ग होते है। ९. निगोदिया जीवका आकार दे० अवगाहना / १/४ ( प्रथम व द्वितीय समयवर्ती तद्भवस्थ सूक्ष्म निगोदियाका आकार आयत चतुरस्र होता है, और तृतीय समयवर्ती तद्भवस्थ सूक्ष्मनिगोदका आकार गोल होता है। ५०५ भा० ३-६४ Jain Education International ३. प्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर परिचय १०. सूक्ष्म व बाद निगोद वर्गणाएँ व उनका लोकमें भवस्थान १४/५/नं व टोका / ४६२-४१४ मादरविगोदवागगाए जह णियाए आवलियाए असखेजदिभागमेत्तो णिगोदाणां । ६३६ | 'सुहुमणिगोदवग्गणाए जहणियाए आवलियाए बस सेजदिभागमेती गोदा ॥१३१' – एसा जहणिया मणिगोदवाते पत्ते आगारी वा होदि व्यासभाषणमाभावादो। 'सहमगिगोवग्गणाए उकास्सिमाए बबलियाए अस लेष्ण विभागमेो णिगोदाणं ६२ - एसा पुण मणिगोदुग्गया महामच्यसरीरे चेन होति ण अण्णस्थ उवदेसाभावादो। 'बादरणिगोदवग्गणाए उक्कस्सियाए सेडीए असखेज्जदि भागमेत्तो णिगोदाण | ६३६ | - मूलयथूहलयादिसु सेडीए अस खेज्जदिभागमेत्त पुलवीओ अनंतजीवावुरिद अजोगसराओ घेतु बादरणिगी दुखणा होदि 'एदेखि चैत गोदाणं महारट्ठामाणि ६४० ि गोवामिदि से सम्वादर विगोशन मंदि पेमगिगोदा किण्ण गहिदा । ण, एत्थेव ते उप्पज्जति अण्णस्थ ण उप्पज्जति त्ति नियमाभावादो। - 'जघन्य बादर निगोद वर्गणामें निगोदका प्रमाण आवलिके असंख्यातवें भागमात्र होता है । ६३६ ।' 'जघन्य सूक्ष्म निगोद वर्गणामें निगोदोका प्रमाण आवलिके असंख्यातवे भागमात्र है | ६३७|'---यह जघन्य सूक्ष्म निगोद वर्गणा जलमें, स्थल में और आकाश में होती है, इसके लिए द्रव्य क्षेत्र, काल और भावका कोई नियम नही है । 'उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोद वर्गणामें निगोदोंका प्रमाण आवलिके असंख्यात भागमात्र है । ६३८१ - यह उत्कृष्ट सूक्ष्म निगोद वर्गणा महामत्स्यके शरीर में ही होती है, अन्यत्र नहीं होती, क्योकि. अन्यत्र होती है ऐसा उपदेश नही पाया जाता। 'उत्कृष्ट बादरनिगोद वर्गणामे निगोदोंका प्रमाण जगश्रेणिके असंख्यातवे भागमात्र है ६३ |' मूली, धूवर और आर्द्रक आदिमें अनन्त जीवोसे व्याप्त असख्यात लोकप्रमाण शरोरवाली जगश्रेणी के असख्यातवे भाग प्रमाण पुलवियों (पुसवियोको लेकर उत्कृष्ट मादर निगोद वर्गवार ) होती है । 'इन्ही सब निगोदोका मूल महास्कन्धस्थान है | ६४०॥ सब निगादोका ऐसा कहनेपर सब बादर निगोदोका ऐसा ग्रहण करना चाहिए। प्रश्न- सूक्ष्म निगोदोका ग्रहण क्यों नहीं किया है । उत्तर- नहीं, क्योंकि यहाँ ही वे उत्पन्न होते है, अन्यत्र उत्पन्न नही होते ऐसा कोई नियम ही है । ३. प्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर परिचय १. प्रतिष्ठित अप्रतिष्ठित प्रत्येकके लक्षण गो जी जो / ९८६/४९१ / २ प्रतिष्ठित साधारणशरीरमाभितं प्रत्येक शरीर मेवासे प्रतिष्ठित प्रत्येकशरोरा तेनातिशरीश अप्रतिष्ठितप्रत्येकशरीरा स्यु । एवं प्रत्येकजोवाना निगोदशरीरे प्रतिष्ठिताप्रति ष्ठयभेदेन द्विविध उदाहरणदर्शनपूर्वक व्याख्यार्त प्रतिष्ठित अर्थात् साधारण शरीरके द्वारा आश्रित किया गया है। प्रत्येक शरीर जिनका, उनकी प्रतिष्ठित प्रत्येक सज्ञा होती है । और साधारण शरीरोके द्वारा आश्रित नहीं किया गया है शरोर जिनका उनको अप्रतिष्ठित प्रत्येक सज्ञा होती है। इस प्रकार सर्व प्रत्येक वनस्पतिकार्मिक जीव निगोद शरीरोंके द्वारा प्रतिष्ठित और अप्रतिष्ठित के भेद से दो-दो प्रकार के उदाहरण पूर्वक बता दिये गये । २. प्रत्येक वनस्पति बादर ही होती है प. ९/११.४९/२/१ प्रत्येकशरीरवनस्पतयो बादरा एवं न सूक्ष्म साधारणशरीरेष्यिम उत्सर्गविधिमा कालादविधेरभावाद प्रत्येक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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