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वणथली
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बनस्पति वणथली-वामनस्थलीका अपभ्रश है । सौराष्ट्रको जूनागढ़ स्टेट का
शरीर जलके बुलबुलेके समान विशरण स्वभाव है, दुखके कारणको एक कस्बा है। जूनागढसे लगभग ५ कोस दूर है। यहाँ वह स्थान ही ये अतिशय बाधा पहुंचाते है, मेरे सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और अब भी पाया जाता है, जहाँ कि विष्णुने तीन पैरसे-समस्त पृथिवी सम्यक चारित्रको कोई नष्ट नहीं कर सकता इस प्रकार जो विचार मापी थी। वही बामन राजाकी नगरी कही जाती है। (नेमि- करता है वह बसूलीसे छीलने और चन्दनसे लेप करने में समदर्शी चरित/प्र/प्रेमी जी)।
होता है, इसलिए उसके बध परीषह जय माना जाता है। (रा. वा./ वणिकर्म-३० सावद्य/२।
४/६/१८/६११/४ ): (चा सा./१२६/३)। वणिबग-वसतिकाका एक दोष-दे० वसतिका।
वध्यघातक विरोध-दे०विरोध । वत्स-१. भरतक्षेत्र मध्य आर्यखण्डका एक देश-दे० मनुष्य/४/1
वनक-दुसरे नरकका चौथा अथवा तीसरा पटल-दे० नरक/५ । २ प्रयागके उत्तर भागका मैदान । राजधानी कौशाम्बी/(म. पु./प्र. वनमाल-सनत्कुमार स्वर्ग का द्वि. पटल-दे० स्वर्ग/५। ४६/पं. पन्नालाल)।
वनमाला-१. प पु /३६/श्लोक-वैजयन्तपुरके राजा पृथिवीधरकी वत्समित्रा-सौमनस गजदन्तके कांचनकूटकी स्वामिनी देवी। पुत्री थी। बाल्यावस्थासे ही लक्ष्मणके गुणों में अनुरक्त थी ।१५। रामवत्सराज-परिहारवंशी वत्सराज अवन्तीका राजा था। इसीका
लक्ष्मणके वनवासका समाचार मुन आत्महत्या करने बनमें
गयी।१८,१६। अकस्मात् लक्ष्मणसे भेट हुई।४१.४४। २.ह.पु./१४/ एक पुत्र नागभट्ट नामका हुआ है। इसे कृष्णराज प्रथमके पुत्र धव
श्लो-वीरक सेठकी स्त्री थी कामासक्तिवश । (१७/८४) अपने राजने शक स ७०५ में परास्त करके इसका देश छीन लिया था।
पतिको छोड़ राजा सुमुख के पास रहने लगी। (१४/१४) । वज्रके इसका शासन अवन्ती व मालवा प्रान्तोंमें था। समय-शक सं.
गिरनेसे मरी । आहारदानके प्रभावसे विद्याधरी हुई। (१५/१२-१८) । ७००-७०५ ( ई० ७७८-७८३)। ( ह. पु/६६/५५-५३): (ह.पु./प्र.॥
इसी के पुत्र हरिसे हरिवंशकी उत्पत्ति हुई। (१५/५८)।-दे० पं० पन्नालाल ); (दे० इतिहास/३/४ ) राष्ट्रकूट वंश)।
मनोरमा। वत्सा -पूर्व विदेहका एक क्षेत्र-दे० लोक/५/२।
वनवास-कर्नाटक प्रान्तका एक भाग जो आजकल वनौसी कहलाता वत्सावती-१. पूर्व विदेहका एक क्षेत्र--दे० लोक:/२ | २. पूर्व है। गुणभद्राचार्य के अनुसार इसकी राजधानी बकापुर थी जो धारविदेहके वैश्रवण वक्षारका एक कूट व उसकी स्गमिनी देवी-दे० वाड जिले में है । (म पु./प्र.४६/प. पन्नालाल)। यह उत्तर कर्नाटकका लोक/४।
प्राचीन नाम है जो तुगभद्रा और वरदा नदियोके बीच बसा हुआ
है। प्राचीन काल में यहाँ कदंब वंशका राज्य था। जहाँ उसकी राजवदताव्याघात-स्ववचनबाधित हेत्वाभास |-दे० बाधित ।
धानी वनवासी स्थित थी, वहाँ आज भी इस नामका एक ग्राम वदन-मुख-first term in Arithematical series ( जं प./ विद्यमान है। (ध/पु.१/प्र, ३२/HL.Jain)| प्र. १०८).
वनवास्था -भरतक्षेत्रका एक नगर-दे० मनुष्य/४ । वद्दिग-दक्षिणके गंगाधर नामक देशका राजा था। पिताका नाम वनस्पति--१ जैन दर्शनमें वनस्पतिको भी एकेन्द्रिय जीवका शरीर (चालुक्यवशी ) अरिकेसरी था जो कृष्णराज तृ० के अधीन था । माना गया है। वह दो प्रकारका है-प्रत्येक व साधारण । एक जीवके 'यशस्तिल कचम्पू' नाम ग्रन्थ इसीकी राजधानीमें पूर्ण हुआ था। शरीरको प्रत्येक और अनन्तो जीवोके साझले शरीरको साधारण समय-ई०६७२ के लगभग। ( यशस्तिलकचम्पू/प्र. २०/प. सुन्दर- कहते है, क्योकि उस शरीरमें उन अनन्तो जीवोका जन्म, मरणलाल)।
श्वासोच्छ्वास आदि साधारणरूपसे अर्थात एक साथ समानरूपसे वध-स.सि./६/१२/३२६/२= आयुरिन्द्रियबलमाण वियोगकारणं वध'। होता है। एक हो शरीरमें अनन्तो बसते है, इसलिए इस शरीरको स. सि./७/२५/३६६/२ दण्डकशावेत्रादिभिरभिघात प्राणिनां बध, निगोद कहते है, उपचारसे उसमें बसनेवाले जीवोको भी निगोद न प्राणव्यपरोपणम्, ततः प्रागेवास्य विनिवृत्तत्वात । ४१. आयु,
कहते है । वह निगोद भी दो प्रकारका है नित्य व इतरनिगोद । जो इन्द्रिय और श्वासोच्छवासका जुदा कर देना बध है। ( रा बा./६/
अनादि कालसे आजतक निगोद पर्यायसे निकला ही नहीं, वह नित्य ११/३/५१६/२८), (प.प्र./टी /२/१२७)। २. डंडा, चाबुक और
निगोद है। और उसस्थावर आदि अन्य पर्यायों में घूमकर पापोदयबत आदिसे प्राणियों को मारना वध है। यह वधका अर्थ प्राणोका
वश पुन -पुन' निगोदको प्राप्त होनेवाले इतरनिगोद है। प्रत्येक शरीर वियोग करना नही लिया गया है, क्योकि अतिचारके पहले ही
बादर या स्थूल ही होता है पर साधारण बादर व सूक्ष्म दोनों प्रकारहिंसाका त्याग कर दिया जाता है। (रा. वा./७/२५/२५५३/१८)।
का । २ नित्य खाने-पीनेके काममें आनेवाली वनस्पति प्रत्येक शरीर
है । बह दो प्रकार है-अप्रतिष्ठित और सप्रेतिष्ठित । एक ही जीवके प. प्र./टी /२/१२७/२४३/४ निश्चयेन मिथ्यात्वविषयकषायपरिणाम
शरीरवाली वनस्पति अप्रतिष्ठित है, और असंख्यात साधारण रूपबध स्त्रकीयः ।। -निश्चयकर मिथ्यात्व विषय क्षाय परिणाम
शरीरोके समवायसे निष्पन्न बनस्पति सप्रतिष्ठित है। तहाँ एक-एक रूप निजघात ।
वनस्पतिके स्कन्धमे एक रस होकर अस ख्यात साधारण शरीर होते वध परिषह-स सि /8/8/४२४/६ निशितविशसनमुशलमुद्गरा- है, और एक-एक उस साधारण शरीरमें अनन्तानन्त निगोद जीव दिप्रहरणताडनपीडनादिभिर्व्यापाद्यमानशरीरस्य व्यापदकेषु मनागपि वास करते है। सूक्ष्म साधारण शरीर या निगोद जीव लोकमे सर्वत्र मनोविकारमकुर्वतो मम पुराकृतदुष्कर्मफलमिदमिमे वराका कि ठसाठस भरे हुए हैं, पर सूक्ष्म होनेसे हमारे ज्ञानके विषय नहीं है। कुर्वन्ति, शरीरमिदं जलबुद्बुद्वद्विशरणस्वभावं व्यसनकारणमेतै- सन्तरा, आम, आदि अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति है और आलू. बर्बाध्यते, संज्ञानदर्शनचारित्राणि मम न केनचिदुपहन्यते इति चिन्त- गाजर, मूली आदि सप्रतिष्ठित प्रत्येक । अप्रतिष्ठित प्रत्येक वनस्पति यतो वासिलक्षणचन्दनानुलेपनसमदर्शिनो वधपरिषहक्षमा मन्यते। पत्ते, फल, फूल आदि भी अत्यन्त कचिया अवस्थामें सप्रतिष्ठित - तीक्ष्ण तलवार, मूसर और मुद्गर आदि अस्त्रोके द्वारा ताडन प्रत्येक होते है-जैसे कोपल। पीछे पक जानेपर अप्रतिष्ठित हो जाते और पीडन आदिसे जिसका शरीर तोडा मरोडा जा रहा है तथापि है। अनन्त जीवोकी साझली काय होनेसे सप्रतिष्ठित प्रत्येकको मारने वालो पर जो लेशमात्र भी मन में बिकार नही लाता, यह मेरे अनन्तकायिक भी कहते है। इस जातिकी सर्व वनस्पतिको यहाँ पहले किये गये दुष्कर्म का फल है, ये बेचारे क्या कर सकते है, यह अभक्ष्य स्वीकार किया गया है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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