Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 505
________________ २. वचनयोग निर्देश वचन सावध वचन है । जैसे- ( इस सडै सरोवर मे ) इस भैसको पानी पिलाओ ||३१| परुष वचन जेसे- तु दुष्ट है, कटु वचन, वैर उत्पन्न करनेवाले वचन, कलहकारी वचन, भयकारी या त्रासकारी वचन, दूसरीको अवज्ञा - कारी होलन वचन, तथा अप्रिय वचन सक्षेप से असत्य वचन हैं । ( पुसि उ. / ६६-६८ ) । ४. मोषवचन चोरीमें अन्तर्भूत नहीं है ध १२ / ४२, ८, १०२८६ / ३ मोष' स्तेय' । ण मोसो अदत्तादाणे पविस्सदि. हृदपदिदमुहादामिम्मि अस्सादामम्मि एइरस पसमोषका अर्थ चोरी है यह नोष अदत्तादानमे प्रविष्ट नहीं होता, क्योंकि इस पतित, प्रमुक्त और निहित पदार्थ के ठाणविषयक अदत्तादान में इसके प्रवेश विशेष है। विरोहादो २. वचनयोग निर्देश १. वचनयोग सामान्यका लक्षण ४९८ स.सि./६/९/३१८/६ शरीरनामकर्मोदयापादितवाग्बर्गणालम्बने सति नीयन्तरायमपराधावरणक्षयोपशमापादिताभ्यन्तरमा पिका निध्येयापरिणानाभिमुखस्यात्मन प्रदेशपरिस्पन्दो वाग्योग - शरीर नामकर्मके उदयसे प्राप्त हुई वचनवर्गणाओका बालम्बन होनेपर तथा भीर्यान्तराय और मत्यक्षरादि द्वावरण के क्षयोपशम से प्राप्त हुई भीतरी वचन लब्धि के मिलने पर वचनरूप पर्याय के अभिमुख हुए आत्माके होनेवाला प्रदेश परिस्पन्द वचनयोग कहलाता है (रा. मा/६/१/१०/५०४/१३) । घ १/९.१.४०/२७१/२ वपस समुत्पश्यर्धप्रयो तज्जनितमीयेंवचनकी उत्पत्तिके घ १/१.१.६५/३०८/२ चतुर्णा वचसा सामान्यं यच णात्मप्रदेश परिस्पन्दलक्षणेन योगो वाग्योग । लिए जो प्रयत्न होता है, उसे वचनयोग कहते है । अथवा सत्यादि चार प्रकारके वचनों में जो अन्वयरूपसे रहता है, उसे सामान्य वचन कहते है । उस वचन से उत्पन्न हुए आत्मप्रदेश परिस्पन्द लक्षण वीर्यके द्वारा जो योग होता है उसे वचनयोग कहते है । ध ७/२.१,३३/७६/७ भासावग्गणापोग्गलखधे अवलंबिय जीवपदे साण सोचविकोचो सो अभियोगों णाम भाषावर्गेणासम्बन्धी पुद्गलस्कन्धोके अवलम्बनसे जो जीव प्रदेशोका संकोच विकोच होता है वह वचनयोग है । ( ध. १०/४, २, ४, १०५ / ४३७ /१० ) । २. वचनयोगके भेद पत्र १/११/ सूत्र (२/२८६ लोगो व्यहोराचनचजोगी मोरावचिजोगो समोसवचिजोगो असच्चमोसवचिजोगो चेदि ॥५२॥ वचनयोग चार प्रकारका है-सत्य वचन योग, असत्य वचनयोग, उभयवचन योग और अनुभय वचन योग | ५२ | (भ आसू / १११२ / ११८८ ), ( मू. आ./३१४ ); ( रा. वा./१/७/११/६०४/२ ); ( गो. जी. सू / २९७/४०४). स. / टी / १३/३०/७ ) । ३. वचनयोगके भेदोंके लक्षण प से प्रा/१/११-१२ इस हिसच्चे वय जो जोगी सो दुचिज गो । तब्बिवरीओ मोमो जाणुभयं सचमोस चि । ६१| जो व सच्चमोसो त जाण असुञ्चमोसवचिजोगो । अमणाणं जा भासा सण्णीणामतणीयादी || दस प्रकार के सत्य वचनमें (दे० सत्य ) बचनवर्गणा के निमित्तसे जो योग होता है, उसे सत्य वचनयोग कहते है । बस से विपरीत योगको मृषा वचनयोग कहते है । सत्य और मृषा वचनरूप योगको उभयवचनयोग कहते है । जो वचनयोग न तो सत्यरूप हो और न मृषारूप ही हो, उसे असत्यमृषावचनयोग कहते है। अमज्ञी जीवोकी जो अनक्षररूप भाषा है और सज्ञो जीवोंकी जो Jain Education International वज्रघोष आमन्त्रणी आदि भाषाएँ है ( दे. भाषा ) उन्हे अनुभय भाषा जानना चाहिए ( वा / २९४), ( २/१.१.२२/ १५८-१५१ / २०६). (गो. जी / मु./२२०-२२९ / ४४० ) । १/१,१.५२ / २६ चतुर्विधमनोभ्यः समुत्पन्नवचनानि चतुर्विधान्यपि तद्व्यपदेश प्रतिनभन्ते तथा प्रतीयते च । चार प्रकारके मनसे उत्पन्न हुए चार प्रकारके वचन भी उन्ही सज्ञाओको प्राप्त होते है, और ऐसी प्रतीति भी होती है । गो, जी / जी. प्र / २१७/४७५/५ सत्याद्यर्थे सहयोगात् - सबन्धात् खलु स्फुटं ता मनोवचनप्रवृचय, उद्योगा -राध्यादिविशेषणविशिष्टा, चमारो मनोयोगाचारी माग्योगाश्च भवन्ति सत्यादि पदार्थ सम्बन्ध जो मन वचनकी प्रवृत्ति होती है. वह सत्यादि विशेषण से विशिष्ट चार प्रकारके मनोयोग व वचनयोग है । - विशेष दे० मनोयोग / ४ । ४. शुभ-अशुभ वचनयोग = आ. अ / ५२५५ मतिरायचोरकहाओ मण वियाण असहनिदि || सारछेदकरणययण वयमिदि जिहि ॥२३॥-भोजनकथा, स्त्रीकथा, राजकथा और चोरकथा करनेको अशुभवचनयोग और मसारका नाश करनेवाले वचनोको शुभ वचनयोग जानना चाहिए । दे० विधान ( निरर्थक अशुद्ध वचनका प्रयोग दुष्ट प्रविधान है।) रावा /६/३/१२/१०/पंक्ति अनृतभाषणपरु नासत्यवचनादिर शुभो वाग्योग 1 (२०६ / ३२) सत्यभाषणादिशुभयोग (५०७/२ । == असत्य बोलना, कठोर बोलना आदि अशुभ वचनयोग है और सत्यहित मित बोलना शुभ वचनयोग है। (स. सि /६/३/६१६/११ ) । वचनगुप्ति - दे० गुप्ति | वचनबल - १ १० प्राणोमे से एक ३० प्राय २. एक ऋद्धि । -३० जूद्धि । वचनवाधित० बाधित। वचनयोग - दे० वचन | २ | वचन विनय-दे० विनम वचन शुद्धि - दे० समिति । वचनातिचार -- दे० अतिचार | वचनोपगत- दे० निक्षेप / ५ । वज्र - १ नन्दनवन, मानुषोत्तर पर्वत व रुचक पर्वत पर स्थित कुटोका नाम ०/२२ सौधर्म रख पटत २० सर्ग/शर बौद्ध मतानुयायी एक राजा जिसने नालन्दा मठका निर्माण कराया। समय ई श ५ | मध्य वज्र ऋषभ नाराच दे० सहनन । बज्र खंडिक भरतले मनुष्य / ४ । वज्रघोष - - म पु / ७३ / श्लोक नं. - पार्श्वनाथ भगवान्का जोव बडे भाई कमठ द्वारा मारा जानेपर सल्लकी बनमे बज्रवोष नामका हाथी हुआ ।११-१२। पूर्वजन्मका स्वामी राजा साम लेकर ध्यान करता था। उसपर उपसर्ग करनेको उद्यत हुआ, पर पूर्वभवका सम्बन्ध जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only खण्ड एक देश – ६० - दे० www.jainelibrary.org

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