Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 500
________________ लोहागल लोहावल - -विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक नगर-दे० विद्याधर । लोहाचार्य - १ सुधर्माचार्यका अपरनाम था- दे० सुधर्माचार्य ॥ २ मूलसघ की पट्टावली में इनकी गणना अष्टांगधारियों अथवा आचारांगधारियो में की गई है। इसके अनुसार इनका समय बी. नि ५१५-५६५ (ई. पू १२-३८) प्राप्त होता है। (दे. इतिहास / ४ /४ ) ( पु / ३ / पं पन्नालाल ), ( स सि / ८ / १ फूलचन्द), (कोश परिशिष्ट २३ मारकर की पहली के अनुसार ये उमास्वामी के शिष्य तथा यश कीर्ति के गुरु थे समय - शक सं. १४२-१५३ (ई, २२०-२३१) । (दे इतिहास / ७ /१.२) । लोहित-समुदस्य दिपर्वतका स्वामी देव दे०/ ६, २ सौधर्म स्वर्गका २४ वॉ पटल व इन्द्रक - दे० स्वर्ग /५/३ । लोहिताक्ष 1 १ गन्धमादन विजयार्ध पूर्वस्थ एक कूट- दे० /२/२२ दिवस पर स्वामी देव-दे० डोन /२/१२ मानुषोत्तरस्थ एक फूट०१००४ रुक एक० लोक/२/१३२ स्वर्ग पट० वर्ग ३/३)। लौंच - दे० केश लौच । - लौकांतिक देव स सि / ४ / २४/२५५ / १ एत्य तस्मिन् लीयन्त इति आलय आवास' । लोक आयो से लोकाया लोकालिका देना वेदितव्या । ब्रह्मलोको लोक' तस्यान्तो लोकान्त तस्मिन्भवा लौकान्तिका इति न सर्वेषा ग्रहणम् । 'अथवा जन्मजरामरणाकीर्णो लोक संसार, तस्यान्तो लोकान्त । लोकान्ते भवा लौकान्तिका !" , सि./४/२२/२६/७ एते सर्वे स्वतन्त्रा हीनाधिकरणाभावाविषय रतिविरहाङ्गदेवय इतरेषा देवानामर्धनीया चतुर्दशपूर्वरा [सततं ज्ञानभावनावहितमनस ससारा नित्यमुद्विग्ना अभिया शरणाद्यनुप्रेक्षासमाहितमानसा, अतिविशुद्धसम्यग्दर्शनाः, रा. वा. ] तीर्थंकर निष्क्रमण प्रतिबोधनपरा वेदितव्या । १. आकर जिसमें लयको प्राप्त होते है, वह आलय या आवास कहलाता है । ब्रह्मलोक जिनका घर है वे ब्रह्मलोक में रहने वाले लोकान् देव जानने चाहिए। लौकान्तिक शब्द में जो लोक शब्द है उससे ब्रह्म लोक लिया है और उसका अन्त अर्थात् प्रान्त भाग लोकान्त कहलाता है। यहाँ जो होते हैं वे लोकान्तिक कहते है। (४/२५/१/२४२ / २५ ) । २. अथवा जन्म जरा और मरणसे व्याप्त संसार लोक कहलाता है और उसका अन्त लोकान्त कहलाता है । इस प्रकार संसारके अन्तमें जो है वे लोकान्तिक है। ( ति प /८/६१५ ), ( रा. वा /४/२४/१-२ / २४२ / २५); ३. ये सर्व देव स्वतन्त्र है. क्योकि होनाधिक्ताका अभाव है विषय रतिसे रहित होनेके कारण देव ऋषि है। दूसरे देव इनकी अर्चा करते है। चौदह पूर्वीके ज्ञाता है । [ सतत ज्ञान भावनामे निरत मन, ससारसे उद्विग्न, अनित्यादि भावनाओके भाने वाले, अति विशुद्ध सम्यग्दृष्टि होते है । रावा, ] वैराग्य कल्याणकके समय तीर्थंकरोको सम्बोधन नेमे तत्पर हैं ( ति प /-/ ६४९-६४६), राया /४/२५/३/२४४/४) (त्र सा/२३-५४० ) । .. २. लौकान्तिक देवके भेद .. - 1 सारस्वताविमरुण तीय चितायामाचारिताय Jain Education International सू४/२५ ॥२५॥ स.सि./४/२५/२५६/३ सारस्वतादित्यान्तरे अग्न्याभसूर्याभाः । आदित्यस्य च वनेश्चान्तरे चन्द्राभसत्याभा' । बह्नचरुणान्तराले श्रेयस्करक्षेमंकराः । अरुणगर्द तोयान्तन्तराले पट- कामचारागर्द तुषितमध्ये निर्माणरजोदिगन्तरक्षिता । तुषितामध्ये आत्म ४९३ अन्यावाधारितरासे मरुसव रक्षितसर्वरक्षा सारस्वतान्तरा अरुण गोय । = सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अन्याचाच और अरिष्ट येसौकान्तिक देव है | २५ च शब्दसे इनके मध्य में दो-दो देवगण और है इनका संग्रह होता है यथा-सारस्वत और आदित्य के मध्यमे अग्न्याभ और सूर्याभ है। आदिश्य और वहिके मध्यम और सत्याभ है । वह्नि और अरुणके मध्यमे श्रेयस्कर और क्षेमंकर, अरुण और गर्दतोयके मध्य में वृषभेष्ट और वामचर, गर्दतोय और दुषितके मध्य निर्माणरजस् और दिगन्तरक्षित है और तुतियानाधने मध्यमे आत्मरक्षित और सर्प रक्षित, अन्या बाध और अरिष्टके मध्य में मरुत् और वसु है । तथा अरिष्ट और सारस्वतके मध्य में अश्व और विश्व है । ( रा वा /४/२५/३/२४३/१५) ( ति प / ८ /६१६-६२४) । ३. लौकान्तिक देवकी संख्या ति प / ८ /६२४ - ६३४ सारस्वत ७००, आदित्य ७०० वह्नि ७००७. अरुण ७००७, गर्हतोय १००६, तुषित ६००६, अव्याबाध ११०११, अरिष्ट ११०११, अग्न्याभ ७००७, सूर्याभ ६००६ चन्द्राभ ११०११, सत्याभ १३०१३, श्रेयस्कर १५०१०, क्षेमकर १७०१७, वृषभेष्ट १६०१६. कामचर २१०२९. निर्माणरज २३०२३, दिगन्तरक्षित २५०२५. आत्मरक्षित २७०२७, सर्व रक्षित २६०२६, मरुत, ३१०३१. व ३३०३३ अश्व ३५०३५, विश्व ३७०३७ है। इस प्रकार इन चालीस लोकान्तिकोकी समग्र सख्या ४०७८६ है । (रा.वा./४/२५/३/२४३/२०) | ति १८/६३६ लोक विभाग के अनुसार सारस्वतदेव ७०० है। लौकान्तिक लोक प्रस नाली में ऊपर की ओर से देखने पर Hot upal मारुत विमान ३३०३३ २० सर्वरक्षित विमान २२०२६. १६ आत्मरक्षित विमान २००३० ६ तुमित विंगान १८ दिगन्त रक्षित विमान२४०२५ १७ निर्माण ए स विमान २३०२३ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only ००००००००००० २१०२३ श्ादतीय विमान ६००६ लोकालिक देव १६ कानवर विमान १५ तृषष्ट विमान १३ श्रेयस्कर विमान १५०१५ २४ विश्व विमान ३७०३८ वायव्य उत्तर मृत्य दक्षिण रिस्टल विमान ७०० ६ अभ्यास विमान ७००७ १० सूर्याभ विमान ६००६ २ आदित्य विमान ७०० ईशान आग्नेय के || चन्द्राभ विमान ११०१ १२ सत्याभ विमान १३०१३ ३चह्नि विमान ८००५ ४. लौकान्तिक देवका अवस्थान स.सि./४/२४,२५/२५५/५ तेषा हि ( लौकान्तिकानां ) विमानानि मास्यान्तंस्थितानि । २४ अशस्वपि पूर्वोत्तरादिषु दि यथाक्रममेते सारस्वतादयो देवगणा वेदितव्या । तद्यथा-पूर्वोत्तर कोणे सारस्वत विमान पूर्वस्यां दिशि आदित्यविमान पूर्वदक्षिण दिशा दक्षिणस्या दिशि अरुणविमानस www.jainelibrary.org

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