Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 499
________________ लोक प्रतर ४. वैमानिक इन्द्रो लोकपालका परिवार ति.प./८/२८७-२६ सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, लातव, महाशुक्र, सहसार और आनतादि चार इन सब इन्द्रोके चार चार लोकपाल है - सोम, यम, वरुण व कुबेर । इन चारो का परिवार क्रमसे निम्न प्रकार है -१ देवियाँ - प्रत्येकको ३३ करोड २. आभ्यन्तर परिषद् ४०,००,६१,००३ मध्यम परिषद् - ४००, ४००, ५००,६००, ४ बाह्य परिषह ५००,५००,६००,७००३ चारीके ही अनीको मैं सामन्त अपने-अपने इन्द्रो की अपेक्षा क्रमसे ४०००, ४०००, १०००, १००० ५००, ४००,३००, २००, १०० है । ६ सभी इन्द्रोके चारो ही लोकपालोकी प्रथम कक्षा सामान्य = २८०००, और शेष कक्षाओ में उत्तरोत्तर नेचुने है। वृषभादि २५२६००० कुल अनोक-२४०१२००० । ६. विमान 4६६६६६६ । ५. सौधर्म इन्द्रके लोकपाल द्विचरम शरीरी हैं सि.प./८/२००५-२०१६ को सहग्गमहिसी सतीयवासी नियमा दुचरिमदेहा "झामहिषी और लोकपासोसहित सौधर्म इन्द्र नियमसे द्विचरम शरीर है। ★ अन्य सम्बन्धित विषय १. लोकपाल देव सामान्यके १० विकल्पों में से एक है- दे० देव / १ | २. भवनवासी व वैमानिक इन्द्रोके परिवारोंमें लोकपालका निर्देशादि - दे० भवनवासी आदि भेद । ३. जन्म, शरीर, आहार, सुख, दुःख, सम्यक्त्व, आदि विषयक - दे० देव / II / २ । लोक प्रतर - (७) १ - ४६ 1 - दे. गणित 1/२/७ लोक विभाग प्रन्थ सो स्वरूपका वर्णन करता है। मूल ग्रन्थ प्राकृत गाथाबद्ध आ० सर्वनन्दि द्वारा ई० ४५८ मे रचा गया था। पीछे आ० सिहसूरि ( ई. श. ११ के पश्चात् ) द्वारा इसका संस्कृत रूपान्तर कर दिया गया। रूपान्तर ग्रन्थ ही उपलब्ध है मूल नहीं। इसमें ११ प्रकरण है और २००० श्लोक प्रमाण है । लोक श्रेणी----७ राजू । लोकसेनस्तूपसंघकी गुर्वावलीके अनुसार ( दे० इतिहास ) आप आचार्य गुणभद्र के प्रमुख शिष्य थे । राजा अकालवर्ष के समकालीन राजा सोकादिव्यकी राजधानी बापुरमे रहकर, आचार्य गुणभद्र रचित अधूरे उत्तर पुराणको श्रावण कृ. ५ श. ८२० मे पूरा किया था । तदनुसार इनका समय-ई ८६७-१३० ( जीबन्धर चम्पू प्र. / ८/A, N, Up.); (म पू. / प्र २५/१ पन्नालाल ) - २० इतिहास / ७ /01 लोकादित्य-उत्तर पुराणको अन्तिम प्रशस्तिके अनुसार राजा अकालीन थे। इनकी राजधानी बेकार थी तथा राजा बंकेय के पुत्र थे । आचार्य लोकसेनने इनके समयमे ही उत्तरपुराणको पूर्ण किया था । तदनुसार इनका समय-श ८२० (ई. आता है। (म. पु / प्र.४२ / पन्नालाल ) | लोकायत -- दे० चार्वाक । लोकेषणा - दे० राग / ४ । - लोकोत्तर प्रमाण - वर्ष श्रेणी आदि ) - दे० प्रमाण/२ | लोकोत्तरवाद घ. १२/५.६.२०/२००३ लीक एवं लौकिक लोक्यन्त उपय यस्मिदीयाः स लोक स विविध मध्यलोक भेदेन । स लोकः कथ्यते अनेनेति लौकिकवाद सिद्धान्त । लोइय Jain Education International ४९२ लोलवत्म वादो त्ति गढ़ लोकोत्तर अलोक स उच्यते अनेनेति लोकोत्तरवाद | लोकोत्तरीयवादोत्ति गद । लौकिक शब्दका अर्थ लोक ही है। जिसमे जीवादि पदार्थ देखे जाते है अर्थात् उपलब्ध होते है उसे खोक कहते है वह तीन प्रारका मध्यलोक और अवलोक । जिसके द्वारा इस लाक्का कथन किया जाता है वह सिद्वान्त लौकिकवाद कहलाता है। इस प्रकार लौकिक्वादका कथन किया। लोकोत्तर पदका अर्थ अलोक है, जिसके द्वारा उसका कथन किया जाता है वह श्रुत लोकोत्तरवाद कहा जाता है, इस प्रकार लोकोत्तर गक्थन किया । गो क /म्/ ८६३ सइउट्टिया पसिद्धी दुव्वारा मेलिदेहिवि सुरेहि । मज्झिमवखित्ता माला पचसु विखित्तेव । = एक ही बार उठी हुई लोक प्रसिद्धि देवो भी मिलकर दूर नही हो सकती ओर की तो बात क्या जेसे कि द्रौपदीकर केवल अर्जुन-पाडवके गले मे डाली हुई मानाकी पोच पाठवोको पहनायी है ऐसी प्रसिद्धि हो गयी। इस प्रकार लोकवादी लोक प्रवृत्तिको सर्वस्व मानते है । और भी दे० सत्य / सवृत्ति व व्यवहार सत्य ) । लोभ१. आहारका एक दोष- दे० आहार / II / ४/४/२ वसतिकाका एक दोष- दे० वसतिका । रा. वा २५/०२/१२ अनुग्रहाय भिको कृमिराग-कल कई महरिद्वारागधि धन आदिकी तीव आकाक्षा या गृद्धि लोभ है । यह किरकिची रंग, काजल, कीचड और हलदी र गके समान चार प्रकारका हे । गर्हा या कांक्षाको लोभ घ १ / १.१,१११ / ३४२ / ८ गर्हा काइक्षा लोभ कहते है । ध. ६/१,६-१,२३/४१/५ लोभो गृद्धिरित्येकोऽर्थ । लोभ और गृद्धि एकार्थक है । घ. १२/४,२८,८/२८३/८ बाह्यार्थेषु ममेदं बुद्धिर्लोभ । बाह्य पदार्थों में जो 'यह मेरा है' इस प्रकार अनुरागरूप बुद्धि होती है वह लोभ है। निस९९२ स्थान तो निश्चयेन I निखिल परिवरिया निर जननिजपरमात्मस्वपरिग्रहास अन्यत् परमाणुमात्रद्रव्यस्वीकारो लोभ । योग्यस्थान पर धन व्ययका अभाव वह लोभ हैं; निश्चयसे समस्त परिग्रहका परित्याग जिसका लक्षण है, ऐसे निरंजन निज परमात्म तत्व के परिग्रहसे अन्य परमाणुमात्र द्रव्यका स्वीकार वह लोभ है । २. लोभके भेद 1 रा. बा./१/८/*/५६८/४ सोमश्च प्रकार जीवनलोभ बारोग्यलोभ इन्द्रियलोभ उपभोगलोभश्चेति, स प्रत्येकं द्विधा भिद्यते स्वपर विषयस्वात् । लोभ चार प्रकारका है - जीवनलोभ, आरोग्यलोभ, इन्द्रिय लोभ, उपभोगलोभ ये चारों भी प्रत्येक रव पर विषयके भेद दोदो प्रकार है (चा. सा./६२/५) (इनके लक्षण दे० शौच ★ अन्य सम्बन्धित विषय १. कोम कमायके अन्य मे २. लोक कषाय सम्बन्धी विषय ३ लोभ व परिग्रह सज्ञामें अन्तर ४. लोभ कषाय राग है ५. लोभकी इष्टता अनिष्टता जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only दे० मोहनीय /३ - दे० कषाय । - दे० सज्ञा । - दे० कषाय / ४ । - दे० राग /४ | लोल—दूसरे नरकका नयाँ पटल-दे० नरक/ ५ /११ | लोलक दूसरे मरका दस पटल-३० नरक/ २ / ११ । लोलवत्सदूसरे नरकका दसवाँ पटल- दे० नरक / ५ / ११ । www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572 573 574 575 576 577 578 579 580 581 582 583 584 585 586 587 588 589 590 591 592 593 594 595 596 597 598 599 600 601 602 603 604 605 606 607 608 609 610 611 612 613 614 615 616 617 618 619 620 621 622 623 624 625 626 627 628 629 630 631 632 633 634 635 636 637 638 639