Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 497
________________ लोक ३. पुष्करदीपकी नदियाँ नाम आदिम सामान्य नियम सर्व नदियों से चौगुनी विस्तार युक्त है (ति १२/२०८८) दोनो बाह्य विदेहोकी विभगाद्रवती व ऊर्मिमालिनी ग्रहवती व फेनमालिनी गम्भीरमालिनी व पंकावती दोनो अभ्यन्तर विदेहोकी विभंगाक्षीरोदा व उन्मत्तजना मत्तजला व सीतोदा तप्तजला व अन्तर्वाहिनी ८. मध्यलोककी वादियों व कुण्डोंका विस्तार १. जम्बूदीप सम्बन्धी नाम पुण्डरीक महापुण्डरीक देवकुरुके द्रह उत्तरकुरु द्रह नन्दनवन की वापियाँ सौमनमनकीबा दृष्टि स. १ दृष्टि सं. २ - - गंगा कुण्ड - दृष्टि सं. १ दृष्टि स. २ सं. ३ सिन्धुकुण्ड आगे सीतासीतोदा तक आगे रक्तारक्तोदा तक ३२ विवेक नदियों के कु विभंगाकुण्ड Jain Education International २०० ध. १५० १०० १००० 17 १९६१५७६२१५ २००१७५५३१ २०४१९३५२१ १४६१२५१३१४ १४२१०७२०४४ १३८०८९२३३ ५० यो. २५ " → महापद्मवत् → पद्मवत् ७५ " १०० ध. २० ध १५ " 19 १० .. १० ५० ५०० पद्मसे दुगुना → से चौगुना →तिनि गहराई पद्मद्रहवत् देवकुरुवत् ← २५ यो २५ " ५. यो. → नन्दनवनवत् ← गोलाईका व्यास १० यो. ६० ६२३,” उत्तर दक्षिण लम्बाई → गंगाकुण्डवत → उत्तरोत्तर दुगुना → उत्तरोत्तर आधा ६३ यो. १२० यो. ४९० लम्बाई चौड़ाई सामान्य नियम सरोवरोका विस्तार अपनी गहराई ३० गुना है./५/२००) होकी लम्बाई अपने-अपने पर्यटोकी ऊँचाई १० गुनी है. चौडाई ५ गुनी और गहराई दसवें भाग है । (त्रि. सा. / ५६८ ); (ज. प. / ३ / ७१ ) जम्बूद्वीप जगती मूलवासी | उत्कृष्ट मध्यम जघन्य पद्मद्रह महापद्म तिगिद्ध केसरी १० यो. १९६१८१५२१‍ २००१९९४३१२ २०४२१७४२२ १४६१०१३ १४२०८३३३३१ १३८०६५४३१२ ति. प / ४/ गा २३ मध्यम " 17 १६५८ १७२७ १०६१ २३२३ २३४४ २३५५ २०६० २१२६ १६४७ गहराई १० यो, २१६ + २२१ १० " २१८ १० २१६ १० यो. १० यो. जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश रा.वा./// वा. / पृ./प. ६. द्वीप क्षेत्र पर्वतो आदिका विस्तार (त.सू./३/१५-१६) १०/१३/१०४/३० १०/१३/१००/० २२/२/१८०/२५ २२/५/१८०/३२ २२/३-१८६ २२/६-१४/१८६ १०/१३/१७६/२४ १०/१२/१०६/१० For Private & Personal Use Only अन्तिम १९६२०५३३१२ २००२२३३,४४ २०४२४१२३ ૪૩૦૭૭૪૬ १४२०५९५२ १३८०४१५२१२ ह. पु. / ५/गा. १२६ १२६ 19 11 १६५ त्रि. सा./ TIT. १४२ दे० उपरोक्त सामान्य नियम ६५६ ति प /४/ गा ५७ २८५० २८५८ २८६६ २००६ २०६४ २६०२ ज. प./ अ. / गा सामान्य नियम 5 दे० उपरोक्त ६/५७ www.jainelibrary.org

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