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लोक
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४. अन्य द्वीप सागर निर्देश
कूटोंपर उन आदृत युगल या वेणु युगलका परिवार रहता है। (ति. प//२१८४-२१६०), (रा. वा/३/१०/१३/१७४/१८)।
है कि दक्षिणवाले क्षेत्रोमें गंगा-सिन्धु नदियाँ बहती है (ति. प/४/२२६५-२२६६) मतान्तरसे उत्तरीय क्षेत्रोमें गंगा-सिन्धु व दक्षिणी क्षेत्रो में रक्ता-रक्तोदा नदियाँ है। (ति. प./४/२३०४ ); (रा. वा./३/१०/१३/१७६/२८, ३१+१७७/१०), (ह. पु./५/२६७-२६६); (त्रि. सा/4६२)। ३. पूर्व व अपर दोनो विदेहो में प्रत्येक क्षेत्रके सीता सीतोदा नदीके दोनो किनारों पर आर्यखण्डोमें मागध, बरतनु और प्रभास नामवाले तीन-तीन तीर्थस्थान है। (ति. प./४/२३०५-२३०६ ), (रा. वा./३/१०/१३/१७७/१२), (त्रि.सा./६७८) (ज, प./७/१०४)। ४. पश्चिम विदेहके अन्तमें जम्बूद्वीपकी जगतीके पास सीतोदा नदीके दोनो ओर भूतारण्यक वन है । (ति. प./४/२२०३,२३२५), (रा. वा /३/१०/१३/१७७/१); (ह. पु./५/२८१); (त्रि. सा./६७२)। इसी प्रकार पूर्व विदेहके अन्तमें जम्बूद्वीपकी जगतीके पास सीता नदीके दोनो ओर देवारण्यक वन है। (ति. प/४/२३१५-२३१६ ) । (दे.चित्र नं.१३)
१४. विदेहके ३३ क्षेत्र १. पूर्व व पश्चिमको भद्रशाल वनकी वेदियों (दे० लोक/३/१२.७ ) से आगे जाकर सीता सीतोदा नदीके दोनों तरफ चार-चार वक्षारगिरि और तीन-तीन विभंगा नदियाँ एक वक्षार व एक विभगाके क्रमसे स्थित है। इन वक्षार व विभंगाके कारण उन नदियोंके पूर्व व पश्चिम भाग आठ-आठ भागोंमे विभक्त हो जाते है। विदेहके ये ३२ खण्ड उसके ३२ क्षेत्र कहलाते हैं। (ति. प./४/२२००२२०६), (रा,वा /३/१०/१३/१७५/३०+१७७/५,१५,२४); (ह. पु/५/२२८, २४३, २४४); (त्रि, सा./६६५), (ज. प./का पूरा ८ वॉ अधिकार)। २. उत्तरीय पूर्व विदेहका सर्वप्रथम क्षेत्र कच्छा मामका है। (ति.प./४/२२३३), (रा. वा./३/१०/१३/१७६/१४); (ज. प./9/३३)। इनके मध्यमे पूर्वापर लम्बायमान भरत क्षेत्रके बिजयाविव एक विजया पर्वत है। (ति. प./४/२२५७); (रा. वा/१०/१३/१७६/१६) । उसके उत्तर में स्थित नील पर्वतकी वनवेदीके दक्षिण पार्श्वभागमें पूर्व व पश्चिम दिशाओं में दो कुण्ड है, जिनसे रक्ता व रक्तोदा नामकी दो नदियाँ निकलती हैं। दक्षिणमुखी होकर बहती हुई वे विजयार्धकी दोनों गुफाओमें-से निकलकर नीचे सीता नदी में जा मिलती है। जिसके कारण भरत क्षेत्रकी भॉति यह देश भी छह खण्डोमें विभक्त हो गया है। (ति.प/४/२२६२-२२६४), (रा, वा./३/१०/१३/१७६/२३); (ज.प/७/७२) यहाँ भी उत्तर म्लेच्छ खण्डके मध्य एक वृषभगिरि है, जिसपर दिग्विजयके पश्चात चक्रवर्ती अपना नाम अकित करता है। (ति. ५/४/२२६०-२२६१); (त्रि. सा./७१०) इस क्षेत्रके आर्यखण्डकी प्रधान नगरीका नाम क्षेमा है। (ति. प./४/२२६८); (रा, वा/३/१०/१३/१७६/३२) । इस प्रकार प्रत्येक क्षेत्र में दो नदियाँ व एक विजया के कारण छह-छह खण्ड उत्पन्न हो गये है। (ति. प./४/२२६२ ), ( ह पु/३/२६७), (ति. सा./६९१) । विशेष यह चित्र सं०-२७
पश्चिम --पूर्व विदेहका कच्छा क्षेत्र दक्टिो-फाई आचार्य गगा सिन्धुके स्थानपर रक्ता रक्तोदा दिया कहते है।
४. अन्य द्वीप सागर निर्देश
१. लवण सागर निर्देश १ जम्बूद्वीपको घेरकर २००,००० योजन विस्तृत वलयाकार यह प्रथम सागर स्थित है, जो एक नावपर दूसरी नाव मुधी रखनेसे उत्पन्न हुए आकारवाला है। (ति./४/२३६८-२३६६); (रा. वा/३/३२/३/ १६३/८), (ह पु/५/४३०-४४१), (त्रि सा./१०१); (ज. प./१०/ चित्र सं०-३३
सागर तलव पाताल
दृष्टिनर २०००
पूर्णिमा का जल तल द्रष्टिनं. --------- कोस 10.00 यो
- अवस्थित जल तल
Todam.
-200.000-गौ
--
--
चित्रा प्राथवा
-50
--
-
खिर भागका दूसरा पटल
दक्षिणा
नीलपर्व
०-२१
() गंगा कण्ड
गिरि
धूप गिरि देच्छ रसाड मेच्छ रखण्ड
तिमिरर गुफा
बासुकच्क्षा कूट
मेच्छ खण्ड ग्यण्ड प्रपात गुफा
ला
२-४) तथा गोल है। (त्रि. सा/८६७) । २. इसके मध्यतलभागामें चारो ओर १००८ पाताल या विवर है। इनमें ४ उत्कृष्ट, ४ मध्यम
और १००० जघन्य विस्तारवाले हैं। (ति प/४/२४०८,२४०६), (त्रि, सा./८६६ ); ( ज प १०/१२ ) । तटोंसे १५००० योजन भीतर प्रवेश करनेपर चारो दिशाओमें चार ज्येष्ठ पाताल है। १६५०० योजन प्रवेश करनेपर उनके मध्य विदिशामें चार मध्यय पाताल और उनके मध्य प्रत्येक अन्तर दिशामे १२५.१२५ करके १००० जघन्य पाताल मुक्तावली रूपसे स्थित है। (ति, प/४/२४११+२४१४ + २४२८); (रा वा/३/३२/४-६/१९६/१३,२५,३२); ( ह. पु/५/४४२,४५१,४५६) १००,००० योजन गहरे महापाताल नरक सीमन्तक बिलके ऊपर सलग्न है। (ति.प./४/२४१३)। ३. तीनों प्रकारके पातालोकी ऊँचाई तीन बराबर भागोंमें विभक्त है। तहाँ निचले भागमें वायु, उपरले भागमे जल और मध्यके भागमें यथायोग रूपसे जल व वायु दोनो रहते है। (ति. प./४/२४३०), (रा. वा./३/३२/४-६/१६६/१७, २८,३२); (ह. पु./५/४४६-४४७), (त्रि. सा./८ ), (ज.प./१०/ ६-८) ४ मध्य भागमें जल व वायुको हानि वृद्धि होती रहती है। शुक्ल पक्षमें प्रतिदिन २२२२३ योजन वायु बदती है और कृष्ण पक्ष में इतनी ही घटती है । यहाँ तक कि इस पूरे भागमें पूर्णिमाके दिन केवल बायु ही तथा अमावस्याको केवल जल ही रहता है । ( ति. ५./
मेळ खण्ड
आर्य खण्डलेच्छ खण्ड
चित्रकूटवार
क्षेमा नगरी
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६६५३यो -
यो
५० यो.
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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