Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 469
________________ लोक ४६२ ४. अन्य द्वीप सागर निर्देश ४/२४३५-२४३६), (ह. पु./२/४४) पातालोंमें जल व वायुकी इस वृद्धिका कारण नीचे रहनेवाले भवनवासी देवोका उच्छवास नि'श्वास है। (रा वा/३/३२/४/१९३/२०)। ५. पातालो में होनेवाली उपरोक्त वृद्धि हानिसे प्रेरित होकर सागरका जल शुक्ल पक्षमें प्रतिदिन ८००/३ धनुष ऊपर उठता है, और कृष्ण पक्षमे इतना ही घटता है। यहाँ तक कि पूर्णिमा को ४००० धनुष आकाशमें ऊपर उठ जाता है और अमावस्याको पृथिवी तलके समान हो जाता है। (अर्थात ७०० योजन ऊँचा अवस्थित रहता है । ) ति.प./४/२४४०, २४४३) लोगायणीके अनुसार सागर ११००० योजन तो सदा ही पृथिवी तलसे ऊपर अवस्थित रहता है। शुक्ल पक्षमें इसके ऊपर प्रतिदिन ७०० योजन बढ़ता है और कृष्णपक्षमें इतना ही घटता है। यहाँ तक कि पूर्णिमाके दिन ५००० योजन बढकर १६००० योजन हो जाता है और अमावस्याको इतना ही घटकर वह पुनः ११००० योजन रह जाता है। (ति. प./४/२४४६): (रा. वा./३/३२/३/१९३/१०); (ह. पु./५४४३७); (त्रि. सा./800); (ज.प. १०/१८)। ६. समुद्रके दोनों किनारोपर चित्र - ३४ उत्कृष्ट पाताल मागध द्वीप, जगतीके अपराजित नामक उत्तर द्वारके सम्मुख बरतनु और रक्ता नदीके सम्मुख प्रभास द्वीप है। (ति. प./४/२४७३-२४७५); (त्रि सा./६११-६१२), (ज.प/१०/४०)। इसी प्रकार ये तीनों द्वीप जम्बूहीपके दक्षिण भागमें भी गंगा सिन्धु नदी व वैजयन्त नामक दक्षिण द्वारके प्रणिधि भागमें स्थित है। (ति.प./४/१३११, १३९६+१३१८) आभ्यन्तर वेदीसे १२००० योजन सागरके भीतर जानेपर सागरकी वायव्य दिशामें मागध नामका द्वीप है। (रा वा. ३/३३/८/१६४/८); (ह पु./५/४६६) इसी प्रकार लवण समुद्र के बाह्य भागमें भी ये द्वीप जानना। (ति, प./४/२४७७) मतान्तरकी अपेक्षा दोनो तटोसे ४२००० योजन भीतर जानेपर ४२००० योजन विस्तार वाले २४,२४ द्वीप है। तिनमें ८ तो चारो दिशाओ व विदिशाओके दोनों पार्श्वभागोंमें है और १६ आठो अन्तर दिशाओके दोनो पार्श्व भागोंमें । विदिशावालोंका नाम सूर्यद्वीप और अन्तर दिशावालोंका नाम चन्द्रद्वीप है (त्रि. सा./१०६) 18 इनके अतिरिक्त ४८ कुमानुष द्वीप है । २४ अभ्यन्तर भागमे और २४ बाह्य भागमें । तहाँ चारों दिशाओं में चार, चारो विदिशाओंमें ४, अन्तर दिशाओमे ८ तथा हिमवान्, शिखरी व दोनों विजयाध पर्वतोके प्रणिधि भागमें है। । ति, प./४/२४७८-२४७६+ २४८७-२४८८); (ह पृ.। १/४७१-४७६+७८१); (त्रि.सा./६१३) दिशा, विदिशा व अन्तर दिशा तथा पर्वतके पासवाले, ये चारों प्रकारके द्वीप क्रमसे जगतीसे ५००, ५००, ५५० व ६०० योजन अन्तरालपर अवस्थित है और १००, ५५.५० व २५ योजन विस्तार युक्त है। (ति.प./४/२४८०-२४८२); (ह.पु./५/४७७-४७८); (त्रि. सा./8१४); (ह. पु. की अपेक्षा इनका विस्तार क्रमसे १००, ५०, ५० व २५ योजन है) लोक विभागके अनुसार वे जगतीसे १००, ५५०, ५००,६०० योजन अन्तराल पर स्थित है तथा १००, ५०, १००,२५ योजन विस्तार युक्त है। (ति. प/४/२४६१-२४६४), (ज, प./१०/४६-५१ ) इन कुमानुष द्वीपोमें एक जाँधवाला, शशकर्ण, बन्दरमुख आदि रूप आकृतियों के धारक मनुष्य बसते हैं । (दे० म्लेच्छ/३ ) । धातकीखण्ड द्वीपकी दिशाओमे भी इस सागरमे इतने ही अर्थात् २४ अन्तर्वीप हैं। जिनमे रहनेवाले कुमानुष भी वैसे ही है। (ति. प/४/२४६०)। ५० यो जल माग १४३३३३३३३या FREE-2066065 (ASS: नयो पवन व जल ---------१००००० यो. - पवन भाग 33३३31यो। व शिवरपर आकाशमें ७०० योजन जाकर सागरके चारो तरफ कुल १४२००० वेलन्धर देवोंकी नगरियॉ है। तहाँ बाह्य व आभ्यन्तर वेदीके ऊपर क्रमसे ७२००० और ४२००० और मध्यमें शिखरपर २८००० है । (ति. प./४/२४४६-२४५४ ); (त्रि. सा /९०४ ), (ज, प./१०/३६-३७) मतान्तरसे इतनी ही नगरियॉ सागरके दोनों किनारों पर पृथिवी तल पर भी स्थित है। (ति, प./४/२४५६) सग्गायणीके अनुसार सागरकी बाह्य व आभ्यन्तर वेदीवाले उपरोक्त नगर दोनो वेदियोंसे ४२००० योजन भीतर प्रवेश करके आकाशमें अवस्थित है और मध्यवाले जलके शिखरपर भी। (रा. वा /३/३२/७/१९४/१), (ह पु./५/ ४६६-४६८)। ७.दोनो किनारोंसे ४२००० योजन भीतर जानेपर चारों दिशाओमें प्रत्येक ज्येष्ठ पातालके बाह्य व भीतरी पार्श्व भागोंमें एक-एक करके कुल आठ पर्वत है। जिनपर वेलन्धर देव रहते है। (ति. प./४/२४५७).(ह.पु./१/४५६); (त्रि, सा /१०५), (ज प./ १०/२७); (विशेष दे० लोक/५/8 में इनके व देवोके नाम)। ८ इस प्रकार अभ्यन्तर वेदीसे ४२००० भीतर जानेपर उपरोक्त भीतरी ४ पर्वतोंके दोनो पार्श्व भागोमें ( विदिशाओमें ) प्रत्येकमें दो-दो करके कुल आठ सूर्य द्वीप है। (ति. प./४/२४७१-२४७२ ), (त्रि. सा./808), (ज प./१०/३८ ) सागरके भीतर, रक्तोदा नदीके सम्मुख २. धातकीखण्ड निर्देश १. लवणोदको वेष्टित करके ४००,००० योजन विस्तत ये द्वितीय द्वीप हैं । इसके चारों तरफ भी एक जगती है। (ति, प,/४/२५२७-२५३१), (रा. वा/३/१३/५/५६५/१४), (ह.पु/४८६); (ज. प./११२)। २. इसकी उत्तर व दक्षिण दिशामें उत्तर-दक्षिण लम्बायमान दो इष्वाकार पर्वत है. जिनसे यह द्वीप पूर्व व पश्चिम रूप दो भागोमे विभक्त हो जाता है । (ति प./४/२५३२); (स. सि /३/३३/२२७/१); (रा.वा./३/३३/६/१६५/२५); (ह. पु./५/४६४); (त्रि सा./१२५), (ज.प/११/३) प्रत्येक पर्वतपर ४ कूट है। प्रथम कूटपर जिनमन्दिर है और शेषपर व्यन्तर देव रहते है। (ति. प/४/२५३६ ) । ३. इस द्वीपमें दो रचनाएँ है-पूर्व धातकी और पश्चिम धातकी। दोनों में पर्वत, क्षेत्र, नदी, कूट आदि सब जम्बूद्वीपके समान है। (ति. प | ४/२५४१-२५४५); (स. सि./३/३३/२२७/१), (रा. वा./३/३३/१/ १६४/३१), (ह. पु/५/१६५.४६६-४६७); (ज. प./११/३८ ) जम्बू व शाल्मली वृक्षको छोडकर शेष सबके नाम भी वही है। (ति. प / ४/२५५०), (रा, वा /३/३३/१/११/१९), सभीका कथन जम्बूद्वीपबत है। (ति.प./४/२७१५) । ४. दक्षिण इष्वाकारके दोनो तरफ दो भरत हैं तथा उत्तर इवाकारके दोनो तरफ दो ऐरावत है। (ति.प./४/२५५२), (स. सि /३/३३/२२७/४ ). ५ तहाँ सर्व कुल पर्वत तो दोनो सिरोंपर समान विस्तारको धरे पहियेके अरोंवत स्थित है और क्षेत्र उनके मध्यवर्ती छिद्रोंवत् है। जिनके अभ्यन्तर जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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