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लोक
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३. जम्बूद्वीप निर्देश
स्थित है। (रा. वा./३/१०/१३/१७६/१२)। प्रत्येक नदीका परिवार २८००० नदी प्रमाण है। (ति. प/४/२२३२); (रा.वा/३/१०/१३२/ १७६/१४)।
हुई वह सुमेरु पर्वत तक पहुंचकर उससे दो कोस इधर ही पश्चिमकी
ओर उसको प्रदक्षिणा देती हुई, विद्य त्प्रभ गजदन्तकी गुफामे से निकलती है। सुमेरुके अर्धभागके सम्मुख हो वह पश्चिमकी ओर मुड जाती है। और पश्चिम विदेहके बीचोबीच बहती हुई अन्तमें पश्चिम लवणसागर में मिल जाती है । (ति.प.४/२०६५-२०७३); (रा. वा./३/२२/७/१८८/३२),(ह. पु./५/१५७+ १६३ ). (दे० लोक/३/८)। इसकी सर्व परिवार नदियाँ देवकुरुमें ८४००० और पश्चिम विदेहमें ४४८०३८ ( कुल ५३२०३८ ) है (विभगाकी परिवार नदियाँ न गिनकर लोक/३/२/३ वद); (ति, प/४/२०७१-२०७२) लोक/३/११की अपेक्षा ११२००० है। ८.सीता नदीका सर्व कथन सीतोदावत् जानना । विशेषता यह कि नील पर्वतके केसरी द्रहके दक्षिण द्वारसे निकलती है। सीता कुण्ड में गिरती है। माल्यवान गजदन्तकी गुफासे निकलतो है। पूर्व विदेहमें से बहती हुई पूर्व सागरमें मिलती है। (ति. प.//४/२११६-२१२१), (रा. वा/ ३/२२/८/१८६/-); (ह. पु./१/१५६); (ज प/६/५५-५६); (दे० लोक/३/१.८) इसकोपरिवार नदियाँ भी सीतोदावत् जानना । (ति. प./४/२१२१-२१२२) ।६. नरकान्ता नदीका सम्पूर्ण कथन हरितवत है। विशेषता यह कि नीलपर्वतके केसरी द्रहके उत्तर द्वारसे निकलती है, पश्चिमी रम्यकक्षेत्रके बीच में से बहती है और पश्चिम सागरमे मिलती है। (ति प./४/२३३७-२३३६), (रा. वा./३/२२/६/ १८६/११); (ह. पु/१/१५६),(दे० लोक/३/१८)। १०. नारो नदी का सम्पूर्ण कथन हरिकान्तावत है। विशेषता यह कि रुक्मिपर्वतके महापुण्डरीक (ति. प. की अपेक्षा पुण्डरीक) द्रहके दक्षिण द्वारसे निकलती है और पूर्व रम्यकक्षेत्रमे बहती हुई पूर्वसागर में मिलती है। (ति. ५/४/२३४७-२३४६ ); ( रा. वा /३/२२/१०/१८६/१४ ): ( ह. पु./ ५/१५६), (दे० लोक/३/५८) ११. रूप्यकूला नदीका सम्पूर्ण कथन रोहितनदोबत है। विशेषता यह कि यह रुक्मि पर्वतके महापुण्डरीक हृदके (ति. प. की अपेक्षा पुण्डरीकके ) उत्तर द्वारसे निकलती है
और पश्चिम हैरण्यवत क्षेत्रमें बहती हुई पश्चिमसागरमें मिलती है। (ति. प/४/२३५२ ); ( रा. वा /३/२२/११/१८६/१८), (ह पू|
११५६);(दे० लोक/३/१८)। १२. सुवर्णकूला नदीका सम्पूर्ण कथन रोहितास्या नदीवत है। विशेषता यह कि यह शिखरीके पुण्डरीक (ति. प. की अपेक्षा महापुण्डरीक ) ह्रदके दक्षिणद्वारसे निकलती है और पूर्वी हैरण्यवत् क्षेत्रमे बहती हुई पूर्वसागरमें मिलजाती है। (ति. प/४/२३६२), (रा. वा /३/२२/१२/१८४/२१); (ह. पु./३/१५६);(दे० लोक/३/१.८)। १३-१४. रक्ता व रक्तोदाका सम्पूर्ण कथन गंगा व सिन्धुवत है। विशेषता यह कि ये शिखरी पर्वतके महापुण्डरीक (ति प. की अपेक्षा पुण्डरीक ) ह्रदके पूर्व
और पश्चिम द्वारसे निकलती है। इनके भीतरी कमलाकार कूटोके पर्वतके नीचेवाले कुण्डो व कूटोके नाम रक्ता व रक्तोदा है। ऐरावत क्षेत्रके पूर्व व पश्चिममें बहती है । (ति. प./४/२३६७); (रा. वा/३/ २२/१३-१४/१८६/२५,२८); (ह.पु/२/१५६), (त्रि. सा/५६६); (दे० लोक/३/१८)।१५. विदेहके ३२ क्षेत्रो में भी गंगा नदीकी भाँति गंगा, सिन्धु व रक्ता-रक्तोदा नामकी क्षेत्र नदियाँ (दे० लोक/३/१४)। इनका सम्पूर्ण कथन गंगानदीवत जानना। (ति.प./४/२२६३): (रा. वा./३/१०/१३/१७६/२७), (ह. पू./१/१६८); (त्रि. सा./ ६६१); (ज. प./७/२२)। इन नदियोकी भी परिवार नदियाँ १४०००,१४००० है । (ति. प./४/२२६५), (रा. वा./३/१०/१३/१७६/ २८)। १६. पूर्व व पश्चिम विदेहमे-से प्रत्येकमें सीता व सीतोदा नदीके दोनों तरफ तीन तीन करके क्लल १२ विभंगा नदियाँ है। ( दे०लोक/३/१४ )ये सब नदियाँ निषध या नील पर्वतोसे निकलकर सीतोदा या सीता नदियों में प्रवेश करती है (ह पु/१/२३६-२४३) ये नदियाँ जिन कुण्डोंसे निकलती हैं वे नील व निषध पर्वतके ऊपर
१२. देवकुरु व उत्तरकुरु निर्देश १. जम्बूद्वीपके मध्यवर्ती चौथे नम्बरवाले विदेहक्षेत्रके बहुमध्य प्रदेश में सुमेरु पर्वत स्थित है। उसके दक्षिण व निषध पर्वतको उत्तर दिशा. में देवकुरु तथा उसकी उत्तर व नीलपर्वतको दक्षिण दिशामें उत्तरकुरु स्थित हैं (दे० लोक/३/३) । सुमेरु पर्वतकी चारो दिशाओमें चार गजदन्त पर्वत है जो एक ओर तो निषध व नील कुलाचलोंको स्पर्श करते है और दूसरी और सुमेरुको-दे० लोक /३/८। अपनी पूर्व व पश्चिम दिशामें ये दो कुरु इनमें से ही दो-दो गजदन्त पर्वतोंसे घिरे हुए है। (ति, प./४/२१३१,२१६१), (ह. पु./२०१६७); (ज. प/६/२,८१) । २. तहाँ देवकुरुमें निषधपर्वतसे १००० योजन उत्तरमें जाकर सीतोदा नदीके दोनों तटोपर यमक नामके दो शैल है, जिनका मध्य अन्तराल ५०० योजन है। अर्थात् नदीके तटोसे नदीके अर्ध विस्तारसे होन २२५ यो० हटकर स्थित है। (ति. प./४/२०७५-२०७७ ); (रा. वा./३/१०/१३/१७५/२६); (ह. पु./२/१९२); (त्रि. सा.६५४-६५५); (ज, प/६/८७)। इसी प्रकार उत्तर कुरुमें नील पर्वतके दक्षिण में १००० योजन जाकर सीतानदोके दोनो तटोपर दो यमक है। (ति.प./ ४/२१२३-२१२४). (रा. वा/३/१०/१३/१७४/२५); ( ह. पु./५/१६१); (त्रि सा./६५४); (ज.प./६/१५-१८)। ३. इन यमकोसे ५०० योजन उत्तरमें जाकर देवकुरुकी सोतोदा नदीके मध्य उत्तर दक्षिण लम्बायमान द्रह है। (ति. प/४/२०१६); (रा. वा./३/१०११३/१७५/२८); (ह. पु९ि६६), (ज. प./६/८३) । मतान्तरसे कुलाचलसे १५० योजन दूरीपर पहला द्रह है। (ह. पु./५/१६४)। ये द्रह नदियों के प्रवेश व निकास द्वारों से संयुक्त है। (त्रि. सा./६५)। [ तात्पर्य यह है कि यहाँ नदीकी चौड़ाई तो कम है और ह्रदोंकी चौडाई अधिक । सीतोदा नदी ह्रदोके दक्षिण द्वारोंसे प्रवेश करके उनके उत्तरी द्वारोसे बाहर निकल जाती है। ह्रद नदी के दोनों पार्श्व भागों में निकले रहते हैं। अन्तिम द्रहसे २०९२१ योजन उत्तरमें जाकर पूर्व व पश्चिम गजदन्तोंकी वनकी वेदी आ जाती है । (ति. प/४/२१००-२१०१); (त्रि. सा./६६०)। इसी प्रकार उत्तरकुरुमें भी सीता नदीके मध्य ५ द्रह जानना । उनका सम्पूर्ण वर्णन उपरोक्तवत् है। (ति ५/४/२१२५ ), (रा. वा./३/१०/१३/१४/२६); (ह. पु./१/१९४); (ज प /६/२६) । [इस प्रकार दोनों कुरुओंमें कुल १० द्रह हैं। परन्तु मतान्तरसे द्रह २० हैं]-मेरु पर्वतको चारो दिशाओंमें से प्रत्येक दिशामें पाँच है। उपरोक्तवत ५०० योजन अन्तरालसे सीता व सोतोदा नदीमें ही स्थित है। (ति प./१/२१३६); (त्रि.सा./६५६)। इनके नाम ऊपर वालोंके समान है। -(दे०/लोक/५)। ४ दस द्रह वाली प्रथम मान्यताके अनुसार प्रत्येक दहके पूर्व व पश्चिम तटोपर दसदस करके कुल २०० कांचन शैल हैं। (ति. प./४/२०१४-२१२६); (रा. वा /३/१०/१३/१७४/२+७१५/१); (ह. पु./१/२००); (ज. प. 1६/४४,१४४ )। पर २० द्रहो वाली दूसरी मान्यताके अनुसार प्रत्येक द्रहके दोनों पार्श्व भागों में पाँच-पाँच करके कुल २०० कांचन शैल है। (ति.प./२/२१३७ ); (त्रि सा/६५६)। ५. देवकुरु व उत्तरकुरुके भीतर भद्रशाल बनमें सीतोदा व सीता नदीके पूर्व व पश्चिम तटोंपर, तथा इन कुरुक्षेत्रोसे बाहर भद्रशाल धनमें उक्त दोनों नदियों के उत्तर व दक्षिण तटोंपर एक-एक करके कुल ८ दिग्गजेन्द्र पर्वत है। (ति प./४/२१०३, २११२, २१३०, २१३४ ), (रा. वा./३/१०/१३/१७८/५); (ह. पु/५/२०५-२०६); (त्रि. सा./६६१); (ज. प./४/७४)। ६. देवकुरुमें मुमेरुके दक्षिण भाग;
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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