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लोक
गति है प्रत्येक भूखण्ड का अपने स्थान पर अवस्थित रहते हुए अपने ही धुरी पर लट्टू की भाँति घूमते रहना । दूसरी गति है सूर्य जैसे किसी बड़े भूखण्ड को मध्यम में स्थापित करके गाड़ी के चबके में लगे अरों की भाँति अनेको अन्य भूखण्डों का उसकी परिक्रमा करते रहना, परन्तु परिक्रमा करते हुए भी अपनी परिधि का उल्लंघन न करना । परिक्रमाशील इन भूखण्डो के समुदाय को एक सौर मण्डल या एक ज्योतिष मण्डल कहा जाता है। प्रत्येक सौर मण्डल में केन्द्रवर्ती एक सूर्य होता है और अरो के स्थानवर्ती अनेक अन्य भूखंड होते है, जिनमें एक चन्द्रमा, अनेको ग्रह, अनेकों उप ग्रह तथा अनेकों पृथ्विये सम्मिलित है। ऐसे-ऐसे सौर मण्डल इस आकाश में न जाने कितने है । प्रत्येक भूखण्ड गोले की भाँति गोल है परन्तु प्रत्येक सौर मण्डल गाडी के पहिये की भाँति चक्राकार है । तीसरी गति है किसी सौर मंडल को मध्य में स्थापित करके अन्य अनेकों सौर मण्डलो द्वारा उसकी परिक्रमा करते रहना, और परिक्रमा करते हुए भी अपनी परिधि का उल्लघन न करना ।
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इन भूख डों में से अनेको पर अनेक आकार प्रकार वाली जीव राशि का वास है, और अनेकों पर प्रलय जैसी स्थिति है। जल तथा बा का अभाव हो जाने के कारण उन पर आज बसती होना सम्भव नहीं है । जिन पर आज बसती बनी है उन पर पहले कभी प्रलय थी और जिन पर आज प्रलय है उन पर आगे कभी बसती हो जाने बाली है । कुछ भूखंडों पर बसने वाले अत्यन्त सुखी है और कुछ पर रहने वाले अत्यन्त दुःखी, जैसे कि अन्तरिक्ष की आधुनिक खोज के अनुसार मंगल पर जो बसती पाई गई है वह नारकीय यातनायें ओग रही है।
जिस भूखण्ड पर हम रहते है यह भी पहले कभी अग्नि का गोला था जो सूर्य में से छिटक कर बाहर निकल गया था। पीछे इसका ऊपरी तल ठण्डा हो गया। इसके भीतर अब भी ज्वाला धधक रही है। वायुमंडल धरातल से लेकर इसके ऊपर उत्तरोत्तर विरल होते हुए ५०० मील तक फैला हुआ है। पहले इस पर जीवों का निवास नहीं था, पीछे क्रम से सजीव पाषाण आदि, वनस्पति, नमो में रहने वाले छोटे-छोटे कोकले, जल में रहने वाले मत्स्यादि, पृथिवी तथा जल दोनों में रहने वाले मेढक, क्लआ आदि मिलों में रहने वाले सरीसृप आदि आकाश में उड़ने वाले भ्रमर कीट पतंग व पक्षी, पृथिवी पर रहने वाले स्तनधारी पशु बन्दर आदि और अन्त में मनुष्य उत्पन्न हुए। तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार और भी असख्य जीव जातिये उत्पन्न हो गयीं ।
इस भूखण्ड के चारों ओर अनन्त आकाश है, जिसमें सूर्य चन्द्र तारे आदि दिखाई देते हैं । चन्द्रमा सबसे अधिक समीप में है । तत्पश्चात् क्रमश शुक्र, बुद्ध, मंगल, बृहस्पति, शनि आदि ग्रह, इनसे साढे नौ मील दूर सूर्य, तथा उससे भी आगे असंख्यातो मील दूर असख्य तारागण है। चन्द्रमा तथा ग्रह स्वय प्रकाश न होकर सूर्य के प्रकाश से प्रकाशवत् दीखते है। तारे यद्यपि दूर होने के कारण बहुत छोटे दीखते है परन्तु इनमें से अधिकर सूर्य की अपेक्षा लाखो गुणा बड़े है तथा अनेको सूर्य की भाँति स्वयं जाज्वल्यमान
है ।
भूगोल की दृष्टि से देखने पर इस पृथिवी पर ऐशिया योरुप, अफ्रीका, अम्रीका, आस्ट्रेलिया आदि अनेकों उपद्वीप है । मुदूर पूर्व में ये सब सम्भवत परस्पर में मिले हुए थे। भारतवर्ष ऐशिया का दक्षिणी पूर्वी भाग है। इसके उत्तर में हिमालय और मध्य में गरि सतपुडा आदि पहाड़ियों की अटूट श्रृंखला है। पूर्व तथा पश्चिम के सागर में गिरने वाली गंगा तथा सिन्धु नामक दो प्रधान नदियाँ है जो हिमालय से निकलेकर सागर की ओर
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१. लोकस्वरूपका तुलनात्मक अध्ययन
जाती है। इसके उत्तर में आर्य जाति और पश्चिम दक्षिण आदि दिशाओं में द्राविड, भील, कॉल, नाग आदि अन्यान्य प्राचीन अथवा म्लेच्छ जातिया निवास करती है।
६. उपरोक्त मान्यताओंकी तुलना
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• जैन व वैदिक मान्यता बहुत अशोंमें मिलती है। जैसे- १ चूडी के आकाररूपसे अनेको द्वीपो व समुद्रोका एक दूसरेको वेष्टित किये हुए अवस्थान । २ जम्बूद्वीप, सुमेरु, हिमवान, निषध, नील, श्वेत ( रूक्मि) गी (शिखरी) ये पर्वत भारतवर्ष ( भरत क्षेत्र ) हरिवर्ष रम्यक, हिरण्मय ( है रण्यवत) उतरकुरु मे क्षेत्र मान्य वान व गन्धमादन पर्वत, जम्बूवृक्ष इन नामोंका दोनों मान्यताओं में समान होना ३ भारतवर्ष में कर्मभूमि तथा अन्य क्षेत्रों में प्रेतायुग (भोगभूमि) का अवस्थान। मेरुकी चारो दिशाओं में मन्दर आदि चार पर्वत जैनमान्य चार गजदन्त है । ४ कुल पर्वतोसे नदियोका निकलना तथा आर्य व म्लेच्छ जातियोका अवस्थान । ५ प्लक्ष द्वशेषमे प्लक्षवृक्ष जम्बूद्वीप उसमें पर्वतो व नदियो आदिका अम स्थान वैसा ही है जैसा पातको सहमे घाटकोप के समान दूगनी रचना । ६ पुष्करद्वीपके मध्य वलयाकार मानुषोउत्तर पर्वत तथा उसके अभ्यन्तर भागमे घातकी नामक खण्ड | ७ पुष्कर द्वीप से परे प्राणियोका अभाव लगभग वैसा ही है, जेसा कि पुष्करार्ध से आगे मनुष्योका अभाव ८ भूखण्डके नीचे पातालका निर्देश लवण सागर के पातालोसे मिलता है । ६. पृथिवी के नीचे नरकोका अवस्थान । १० आकाशमे सूर्य, चन्द्र आदिका अवस्थान क्रम । १० कल्पवासी तथा फिरसे न मरनेवाले ( लौकान्तिक ) देवोके लोक । २ इसी प्रकार जैन व बौद्ध मान्यताएँ भी बहुत अंशों मिलती हैं। जैसे- १ पृथिवीके चारो तरफ ना जलमण्डलका अवस्थान जेन मान्य वातवलयोके समान है । २. मेरु आदि पर्वतोका एक-एक समुद्र अन्तरातसे उत्तरोत्तर वेति वलायाकाररूपेण अवस्थान । ३ जम्बूद्वीप, पूर्वविदेह, उत्तरकुरु, जम्बूवृक्ष, हिमवान, गंगा, सिन्धु आदि नामोकी समानता । ४. जम्बूद्वीप के उत्तर में नौ क्षुद्रपर्वत, हिमवान, महासरोवर व उनसे गंगा, सिन्धु आदि नदियोका निकास ऐसा ही है जैसा कि भरतक्षेत्रके उत्तरमै ११ कूटी युक्त हिमवान पर स्थित पद्म से गंगा सिन्धु व रोहितास्या नदियोका निकास : ५ जम्बूद्वीप के नीचे एकके पश्चात् एक करके अनेको नरकोका अवस्थान । ६ पृथिवी से ऊपर चन्द्र सूर्य का परिभ्रमण । ७ मेरु शिखरपर स्वर्गीका अवस्थान लगभग ऐसा ही है जैसा कि मेरु शिखरसे ऊपर केवल एक बाल प्रमाण अन्तरसे जैन मान्य स्वर्गकके प्रथम 'ऋतु' नामक पटलका अवस्थान | देवो में कुछका मेथुनसे और कुछका स्पर्श या अव लोकन आदि काम भोगका सेवन तथा ऊपर के स्वर्गो मे कामभागका अभाव जनमान्यताबद ही है ( दे देव ] [] / २ / १०) पोका ऊपर ऊपर अवस्थान। १०. मनुष्योकी ऊँचाई से लेकर देवोके शरीरोकी ऊँचाई तक क्रमिक वृद्धि लगभग जेन मान्यता के अनुसार है (दे० अवगाहना / ३,४) १३ - आधुनिक भूगोलके साथ यद्यपि जैन [भूगोल] स्थूल दृष्टि देखनेपर मेल नहीं खाता पर आचार्योकी शुर वर्ती सूक्ष्मदृष्टि व उनकी सूत्रात्मक कथन पद्धतिको ध्यान मे रखकर विचारा जाये तो वह भी बहुत अंशोमे मिलता प्रतीत होता है । यहाँ यह बात अवश्य ध्यान में रखने योग्य है कि वैज्ञानिक जनो के अनुमानका आधार पृथिवी वर्ष मात्र पूर्वका इतिहास
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है, जबकि आचार्यको दृष्टि कल्पो पूर्वके इतिहासको स्पर्श करती है जैसे कि १ पृथिवीके लिए पहले अनिका गोला होनेकी कल्पना, उसका धीरे-धीरे ठण्डा होना और नये मिरेसे उसपर जीवो व मनुष्याकी उत्पत्तिका विकास लगभग जैनमान्य प्रलय के स्वरूपसे मेल खाता है ( दे० प्रलय ) । २ पृथिवीके चारो ओरके वायु
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