Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 451
________________ लोक ३. जम्बूद्वीप निर्देश ऊपरकी ओर कमसे तारागण, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, शुक्र, बृहस्पति, मंगल, शनि व शेष अनेक ग्रह अवस्थित रहते हुए अपने-अपने योग्य संचार क्षेत्रमें मेरुको प्रदक्षिणा देते रहते हैं। इनमें से चन्द्र इन्द्र है और सूर्य प्रतीन्द्र । १ सूर्य, ८६ ग्रह, २८ नक्षत्र व ६६६७५ तारे, ये एक चन्द्रमाका परिवार है। जम्बूद्वीपमें दो, लवणसागरमें ४, धातकी खण्ड में १२. कालोदमें ४२ और पुष्कराध में ७२ चन्द्र है। ये सब तो चर अर्थात् चलनेवाले ज्योतिष विमान हैं। इससे आगे पुष्करके परार्ध में ८, पुष्करोदमें ३२, बारुणीवर द्वीपमें ६४ और इससे आगे सर्व द्वोप समुद्रों में उत्तरोत्तर दुगुने चन्द्र अपने परिवार सहित स्थित हैं। ये अचर ज्योतिष विमान हैं-दे० ज्योतिष लोक । 11. ऊर्ध्वकोक सामान्य परिचय सुमेरु पर्वतकी चोटोसे एक बाल मात्र अन्तरसे ऊर्बलोक प्रारम्भ होकर लोक-शिखर पर्यन्त १००४०० योजनकम ७ राजू प्रमाणऊर्वलोक है। उसमें भी लोक शिखरसे २१ योजन ४२५ धनुष नीचे तक तो स्वर्ग है और उससे ऊपर लोक शिखर पर सिद्ध लोक है। स्वर्गलोकमें ऊपर-ऊपर स्वर्ग. पटल स्थित हैं। इन पटलोंमें दो विभाग हैं- करप व कल्पातीत। इन्द्र सामानिक आदि १० कल्पनाओं युक्त देव कल्पवासी हैं और इन कल्पनाओंसे रहित अहमिन्द्र कल्पातीत विमानवासी है। आठ युगलों रूपसे अवस्थित काप पटल १६ हैं-सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लान्तव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत. प्राणत, आरण, और अच्युत । इनसे ऊपर अवेयेक, अनूदिश व अनुत्तर ये तीन पटल कपातीत है। प्रत्येक पटल लाखों योजनोंके अन्तरालसे ऊपर-ऊपर अवस्थित है। प्रत्येक पटलमें असंख्यात योजनोंके अन्तरालसे अन्य क्षुद्र पटल हैं। सर्वपटल मिलकर ६३ हैं। प्रत्येक पटलमें विमान है। नरकके बिलोंवत ये विमान भी इन्द्रक श्रेणिबद्धम प्रकीर्ण कके भेदसे तीन प्रकारों में विभक्त हैं। प्रत्येक क्षुद्र पटल में एक-एक इन्द्रक है और अनेकों श्रेणीबद्धब प्रकीर्णक। प्रथम महापटलमें और अन्तिममें केवल एक सर्वार्थसिद्धि नामका इन्द्रक है, इसकी चारों दिशाओं में केवल एक-एक श्रेणीबद्ध है। इतना यह सब स्वर्गलोक कहलाता है (नोटः- चित्र सहित विस्तारके लिए दे.स्वर्ग) सर्वार्थ सिद्धि विमानके ध्वजदण्डसे २६ योजन ४२५ धनुष ऊपर जाकर सिखलोक है। जहाँ मुक्तजीव अवस्थित हैं। तथा इसके आगे लोकका अन्त हो जाता है ( दे० मोक्ष/१/७)।] है। जिसके मध्य में मेरु पर्वत है।। (ति, प./४/११ब/८); (ह. पू./५/३); (ज. प./१/२०) । २. उसमें भरतवर्ष, हैमवतवर्ष, हरिबर्ष, विदेहवर्ष, रम्यकवर्ष, हरण्यवतवर्ष और ऐरावतवर्ष ये सात वर्ष अर्थात क्षेत्र हैं ।१०। उन क्षेत्रों को विभाजित करनेवाले और पूर्व-पश्चिम लम्बे ऐसे हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नोल, रुक्मी, और शिखरी ये छह वर्षधर या कुलाचल पर्वत हैं ।११। (ति, प./४/६०-६४); (ह.पू./५/१३-१५): (ज.प./२/२ व ३/२): (त्रि. सा./५६४)। ३. ये छहों पर्वत क्रमसे सोना, चाँदी, तपाया हुआ सोना, बैडूर्यमणि, चाँदी, और सोना इनके समान रंगवाले हैं ।१२। इनके पार्श्वभाग मणियोंसे चित्र विचित्र हैं। तथा ये ऊपर, मध्य और मूल में समान विस्तारवाले हैं।१३। (ति.प./ ४/६४-६५); (त्रि. सा./५६६)।४. इन कुलाचल पर्वतोंके ऊपर क्रनसे पद्म, महापद्म, तिगिछ, केसरी, महापुण्डरीक, और पुण्डरीक, ये तालाब हैं।१४। (ह. पु./५/१२०-१२९); (ज. प./३/६६)। १. पहिला जो पद्म नामका तालाब है उसके मध्य एक योजनका कमल है [इसके चारों तरफ अन्य भी अनेकों कमल हैं-दे० आगे लोक/श। इससे आगेके हृदोंमें भी कमला तालाब व कमल उत्तरोत्तर दूने विस्तार वाले हैं ।१७-१८ (ह, पृ.11/१२६); (ज. प./ ३/६६). पद्य हृदको आदि लेकर इन कमलोंपर क्रमसे श्री, हो, धृति, कीर्ति, बुद्धि और लक्ष्मी ये देवियाँ, अपने-अपने सामानिक, परिषद आदि परिवार देवोंके साथ रहती हैं--(दे० व्यंतर/३२) १(ह. पू./५/१३०)। ७. [ उपरोक्त पद्य आदि द्रहों में से निकल कर भरत आदि क्षेत्रों में से प्रत्येकमें दो-दो करके क्रमसे ] गंगा-सिन्धु, रोहित-रोहितास्या, हरित-हरिकान्ता, सीता-सीतोदा, नारी-नरकान्ता, सुवर्ण कूला-रूप्यकूला, रक्ता-रक्तोदा नदियाँ बहती हैं ।२०। (ह. पू./५/१२२-१२४)। [तिनमें भी गंगा, सिन्धु व रोहितास्या ये तीन पद्म द्रहसे, रोहित व हरिकान्ता महापद्म द्रहसे, हरित व सीतोदा तिगिंध दहसे, सीता व नरकान्ता केशरी हसे, नारी व रूप्यकूला महापुण्डरीकसे तथा सुवर्ण कूला, रक्ताब रक्तोदा पुण्डरीक सरोवरसे निकली है-हि.पू./५/१२२-१३५) 11८. उपरोक्त युगलरूप दो-दो नदियोंमेंसे पहली पहली नदी पूर्व समुद्रमें गिरती हैं और पिछलो-पिछली नदी पश्चिम समुद्र में गिरती है १२१-२२। (ह.पू./५/१६०); (ज. प./३/११२-१६३)| ६गंगा सिन्धु आदि नदियोंको चौदह-चौदह हजार परिवार नदियाँ है। [यहाँ यह विशेषता है कि प्रथम गंगा सिन्धु युगलमें से प्रत्येकको १४०००, द्वि. युगलमें प्रत्येककी २८००० इस प्रकार सीतोदा नदी तक उत्तरोत्तर दूनी नदियाँ हैं। तदनन्तर शेष तीन युगलों में पुनः उत्तरोत्तर आधी-आधी हैं। (स.सि./३/२३/२२०/१० ) ( रा. वा./ अ२३/३/१६०/१३), (ह. पु./५/२७५-२७६)]। ३. जम्बूद्वीप निर्देश 1. जम्बूद्वीप सामान्य निर्देश त.मू./३/१-२३ तन्मध्ये मेरुनाभिवृत्तो योजनशतसहस्त्रविष्कम्भो । जम्बूद्रोपः ।। भरतहमवतहरिविदेहरम्यकहरण्यवतै रावतवर्षाः क्षेत्राणि १० तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमबन्महाहिमवन्निषधनीलरुक्मिशिखरिणो वर्षधर राबताः ॥११॥ हेमार्जुनतपनीयवैडूर्यरजतहेममयाः ।१२। मणिविचित्रपार्वा उपरि मूले च तुल्यविस्ताराः ॥१३॥ पद्ममहापद्यतिनिछकेसरिमहापुण्डरीक पुण्डरोका हृदास्तेषामुपरि ।१४। तन्मध्ये योजनं पुष्करम् ॥१७॥ तदद्विगुणद्विगुणा हृदाः पुष्कराणि च१८) तन्निवासिन्यो देव्यः श्रोहोतिकीर्तिबुद्धिलक्ष्म्यः पस्योपमस्थितयः ससामानिकपरिषत्काः ।१६। गङ्गासिन्धुरोहिद्रोहितास्याहरिवरिकावासोतासीतोदानारोनरकान्तासुवर्ण रूध्यकूलारक्तारक्तोदाः सरितस्तन्मध्यगाः ।२०। योद्वयोः पूर्वाः पूर्वगाः १२९॥ शेषास्वपरगाः ॥२॥ चतुरंशनशेसहस्रपरिवृता गङ्गासिनवादयो नद्यः ॥२३॥ -१. उन सब (पूर्वोक्त असंख्यात द्वीप समुद्रों-दे० लोक/२/११) के बीच में गोल और १००,००० योजन विष्कम्भवाला जम्बूद्वीप ति.प./४/गा. का भावार्थ-१०. यह द्वीप एक उगती करके वेष्टित है ११॥ (ह. पु./५/३), (ज. प./१/२६) । ११. इस जगतीको पूर्वादि चारों दिशाओं में विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित नामके चार द्वार हैं।४१-४२। (रा. वा./२/६/१/१००/२६): ह. पू./ ५/३६०); (त्रि. सा./१२): ( ज. प./१/३८,५२) । १३. इनके अतिरिक्त यह द्वीप अनेकों बन उपवनों, कण्डों, गोपुर द्वारों, देव नगरियों व पर्वत, नदी, सरोवर, कुण्ड आदि सबकी वेदियों करके शोभित हैं।१२-१३ १४. [ प्रत्येक पर्वतपर अनेकों कूट होते हैं ( दे० आगे उन उन पर्वतों का निर्देश )प्रत्येक पर्वत व कूट,नदी, कुण्ड, द्रह, आदि वेदियों करके संयुक्त होते हैं-(दे० अगला शीर्षक ) । प्रत्येक पर्वत, कुण्ड, दह, कूटोंपर भवनवासी व व्यन्तर देवोंके पुर, भवन व आवास हैं-(दे० व्यन्तर/४/१५) प्रत्येक पर्वतबादिके ऊपर तथा उन देवों के भवनों में जिन चैत्यालय होते हैं। (दे० चैत्यालय/३/२)11 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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