Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 453
________________ गणना लोक ४४६ ३. जम्बूद्वीप निर्देश केवल नदियो व नाभिगिरि पर्वतके नाम भिन्न है-दे० लोक/३/ नं. नाम । गणना विवरण व प्रमाण १/७ व लोक/४८ ४. निषध पर्वतके उत्तर तथा नीलपर्वतके दक्षिण में विदेह क्षेत्र स्थित है। (ति. प./४/२४७४); (रा.वा./३/१०/१२/ वेदियाँ । अनेक उपरोक्त प्रकार जितने भी कुण्ड आदि १७३/४) । इस क्षेत्रकी दिशाओका यह विभाग भरत क्षेत्रकी अपेक्षा तथा चैत्यालय आदि है उतनी ही है सूर्योदयकी अपेक्षा नहीं, क्योंकि वहाँ इन दोनो दिशाओमें भी उनको वेदियाँ है। (ति प./४/२३- सूर्यका उदय व अस्त दिखाई देता है। (रा. वा/३/१०/१३/१७३/ ८८-२३६०)। १०)। इसके बहुमध्यभागमें सुमेरु पर्वत है (दे० लोक/३/६)। [ये जम्बूद्वीपके क्षेत्रोको ) क्षेत्र दो भागोंमें विभक्त है-कुरुक्षेत्र व विदेह ] मेरु पर्वतकी सर्व पर्वतोंकी दक्षिण व निषधके उत्तरमें देवकुरु है (ति.प./४/२९३८-२१३६) । द्रहोको मेरुके उत्तर व नीलके दक्षिणमे उत्तरकुरु है (ति. प./४/२१६१-२१पद्मादि द्रहों की (ज.प// १२)। मेरुके पूर्व व पश्चिम भागमें पूर्व व अपर विदेह है, जिनमें कुण्डोंकी पृथक् पृथक् १६,१६ क्षेत्र है, जिन्हे ३२ विदेह कहते हैं। (ति, प./४/ १४ गगादि महानदियों की २१६६)। (दोनो भागोंका इकट्ठा निर्देश-रा. वा./३/१०/१३/ ५२०० कुण्डज महानदियोकी । १७३/६)। [नोट-इन दोनो भागोंके विशेष कथनके लिए दे० आगे 16 | कमल | २२४१८५६ कुल द्रह -१६ और प्रत्येक द्रहमें पृथक शीर्षक (दे० लोक/३/१२-१४)]। ५. सबसे अन्तमें शिखरी कमल-१४०११६-(दे० आगे ब्रहनिर्देश) पर्वतके उत्तर में तीन तरफसे लवणसागरके साथ स्पर्शित सातवाँ ऐरावतक्षेत्र है। (रा. वा./३/१०/२१/१८१/२८)। इसका सम्पूर्ण ३. क्षेत्र निर्देश कथन भरतक्षेत्रवत् है (ति.प/४/२३६५), (रा. वा./३/१०/२२/ १-जम्बूद्वीपके दक्षिणमें प्रथम भरतक्षेत्र जिसके उत्तरमें हिमवान् पर्वत १८१/३०) केवल इसकी दोनो नदियोके नाम भिन्न है (दे० लोक और तीन दिशाओमें लवणसागर है। (रा. वा./३/१०/३/१७१/- ३११/७) तथा १/८)। १२) । इसके बीचोबीच पूर्वापर लम्बायमान एक विजयाध पर्वत ४. कुलाचल पर्वत निर्देश है। (ति. ८/४/१०७ ); ( रा. वा /३/१०/४/१७१/१७); (ह. पु/५/ २०), (ज. प /२/३२)। इसके पूर्व में गंगा और पश्चिममे सिन्धु १. भरत व हैमवत इन दोनों क्षेत्रोको सीमापर पूर्व-पश्चिम लम्बायनदी बहती है। (दे० लोक/३/१/७)। ये दोनों नदियाँ हिमवानके मान (दे० लोक/३/१/२) प्रथम हिमवान् पर्वत है -(रा. वा./३/ मूल भागमें स्थित गंगा व सिन्धु नामके दो कुण्डोंसे निकलकर पृथक् ११/२/१८२/६) । इसपर ११ कूट है-(ति प/४/१६३२), (रा.वा./ पृथक पूर्व व पश्चिम दिशामें, उत्तरसे दक्षिणकी ओर बहती हुई ३/११/२/१८२/१६); (ह. पु/१/५२), (त्रि. सा./७२१); (ज.प./ विजया दो गुफामेसे निकलकर दक्षिण क्षेत्रके अर्धभाग तक पहुँचकर ३/३६) । पूर्व दिशाके कूटपर जिनायतन और शेष कूटोपर यथा और पश्चिमकी ओर मुड जाती है, और अपने-अपने समुद्र में गिर योग्य नामधारी व्यन्तर देव व देवियो के भवन है ( दे० लोक/१/४) । जाती है-( दे० लोक/३/११ )। इस प्रकार इन दो नदियो व इस पर्वतके शीर्ष पर बीचोबीच पद्म नामका ह्रद है (ति. प./४/१६विजयासे विभक्त इस क्षेत्रके छह खण्ड हो जाते हैं। (ति.प/४/ ५८), (दे० लोक/३/१/४)। २. तदनन्तर हैमवत् क्षेत्रके उत्तर व २६६); (स, सि /३/१०/२१३/६); (रा. वा./३/१०/३/१७६/१३) । हरिक्षेत्र के दक्षिणमे दूसरा महाहिमवान पर्वत है। (रा. वा./३/११/ विजयाकी दक्षिणके तीन खण्डोमेसे मध्यका खण्ड आर्य ४/१८२/३१) । इसपर पूर्ववत आठ कूट है (ति प./४/१७२४); (रा खण्ड है और शेष पाँच खण्ड म्लेच्छ खण्ड है -(दे० आर्यखण्ड )। बा/३/११/४/१८३/४), (ह पु/५/७०); (त्रि. सा./७२४); (ज.प./ आर्य खण्डके मध्य १२४६ यो० विस्तृत विनीता या अयोध्या नाम ३/३६) । इसके शीर्ष पर पूर्ववत् महापद्म नामका द्रह है। (ति.प./४/ की प्रधान नगरी है जो चक्रवर्तीकी राजधानी होती है। (रा. वा। १७२७), (दे० लोक/२/१/४)। ३. तदनन्तर हरिवर्ष के उत्तर व ३/१०/१/१७१/६) । विजयाधं के उत्तरवाले तीन खण्डो में मध्यपाले विदेहके दक्षिणमे तीसरा निषधपर्वत है। (रा. वा./३/११/६/१८३/ म्लेच्छ खण्डके बीचोबीच वृषभगिरि नामका एक गोल पर्वत है ११)। इस पर्वतपर पूर्ववत ह कूट है (ति प./४/१७५८ ): (रा. वा./ 'जिसपर दिग्विजय कर चुकनेपर चक्रवर्ती अपना नाम अक्ति करता ३/११/६/१८३/१७), (ह पु/१/८७), (त्रि. सा./७२५); (ज. प. है। (ति. प./४/२६८-२६६); (त्रि सा/७१०), (ज. प/२/१०७ ) । ३/३६) । इसके शीर्ष पर पूर्ववत् तिगिछ नामका द्रह है (ति प./४/ २ इसके पश्चात हिमवान पर्वतके उत्तरमे तथा महाहिमवानके १७६१), (दे० लोक/३/१/४)। ४. तदनन्तर विदेहके उत्तर तथा दक्षिणमे दूसरा हैमवत क्षेत्र है (रा वा/३/१०/५/१७२/१७), (ह रम्यकक्षेत्रके दक्षिण दिशामें दोनो क्षेत्रोको विभक्त करनेवाला निषधपु./१४५७)। इसके बहुमध्य भागमें एक गोल शब्दवान नामका पर्वतके सदृश चौथा नीलपर्वत है। (ति. ५/४/२३२७); ( रा. वा./ नाभिगिरि पर्वत है (ति प /१७०४), (रा वा/३/१०/७/१७२/२१) । ३/११/८/२३) । इसपर पूर्ववत् ह कूट है। (ति. ५/४/२३२८) (रा. इस क्षेत्रके पूर्व में रोहित और पश्चिममें रोहितास्या नदियाँ बहती वा/३/११/८/१८३/२४), (ह. पु/५/६ (त्रि सा /१२६), (ज. है। (दे० लोक/३/१/9)। ये दोनो हो नदियाँ नाभिगिरिके उत्तर प/३/३६) । इतनी विशेषता है कि इस पर स्थित दह का नाम केसरी है। व दक्षिण में उससे २ कोस परे रहकर ही उसकी प्रदक्षिणा देतो (ति.प/४/२३३२), (दे लोक/३/१/४)। ५ तदनन्तर रम्यक व हैरण्यवत हुई अपनी-अपनी दिशाओमें मुड जाती है, और बहती हुई अन्त क्षेत्रो का विभाग करने वाला तथा महा हिमवान पर्वत के सदृश.at मे अपनी-अपनो दिशावाले सागरमें गिर जातो है। -(दे० आगे रुक्मि पर्वत है, जिस पर पूर्ववत आठ कूट है। (ति प./४/२३४०); लोक/३/११ ) । ३. इसके पश्चात् महाहिमवान के उत्तर तथा निषध (रा. वा/३/११/१०/१८३/३०); (ह. पु/१/१०२); (त्रि. सा/७२७)। इस पर्वतके दक्षिणभे तीसरा हरिक्षेत्र है ( रा. वा./३/१०/६/१७२/१६)। पर्वत पर महापुण्डरीक द्रह है। (दे. लोक/३/१/४)। ति प की नीलके उत्तरमे और रुक्मि पर्वतके दक्षिणमे पाँचवॉ रम्यकक्षेत्र है। अपेक्षा इसके द्रह का नाम पुण्ड्रीक है। (वि. प./४/२३४४)। ६ अन्त (रा. वा./३/१०/११/१८१/१५) पुन. रुक्मिके उत्तर व शिखरी पर्वत में जाकर हैरण्यवत व ऐरावत क्षेत्रों की सन्धि पर हिमवान पर्वत के के दक्षिणमें छठा हैरण्यवत क्षेत्र है। (रा. वा./३/१०/१८/१८१/२१) सदृश छठा शिखरी पर्वत है, जिस पर ११ कूट है। (ति प/४/२३५६); तहाँ विदेह क्षेत्रको छोडकर इन चारोंका कथन हैमवतके समान है। (रा. वा./३/११/१२/१८४/३); (ह. पु./५/१०५); (त्रि, सा/७२८), जैनेन्द्र सिदान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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