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लोक
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२. लोकसामान्य निर्देश
उत्तरकुरु ये दो मेरुके निकटवर्ती है। यहाँ बैदिक मान्यतामे तो मेरुके चौगिर्द एक ही वर्ष मान लिया गया और जैन मान्यतामें उसे दक्षिण व उत्तर दिशावाले दो भागोमे विभक्त कर दिया है। पूर्व व पश्चिमी भद्राश्व व केतुमाल द्वीपोमें वैदिकजनौने क्षेत्रीका विभाग न दर्शाकर अखण्ड रखा पर जैन मान्यतामें उनके स्थानीय पूर्व व पश्चिम विदेहोको भी १६,१६ क्षेत्रो में विभक्त कर दिया गया ] | ६. मेरु पर्वत वर्तमान भूगोलका पामीर प्रदेश है। उत्तरकुरु पश्चिमी तुर्किस्तान है । सौता नदी यारकन्द नदी है। निषध पर्वत हिन्दुकुश पर्वतोको शृखला है। हैमवत भारतवर्षका ही दूसरा नाम रहा है। (दे० वह-वह नाम)। २. लोकसामान्य निर्देश
१. लोकका लक्षण दे. आकाश/२/३ [१ अकाशके जितने भागमे जोब पुद्गल आदि षट् द्रव्य देखे जाये सो लोक है और उसके चारो तरफ शेष अनन्त आकाश अलोक है, ऐसा लोकका निरुक्ति अर्थ है । २ अथवा षट द्रव्योका समवाय लोक है ] । दे. लोकान्तिक/१। [३. जन्म-जरामरणरूप यह ससार भी लोक
कहलाता है। रा, वा11/१२/१०-१३/४५५/२० यत्र पुण्यपापफललोकन स लोक ॥१०॥ क पुनरसौ। आरमा। लोकति पश्यत्युपलभते अर्थानिति लोक ।११। सर्व शेनानन्ताप्रतिहतकवलदर्शनेन लोक्यते य स लोक । तेन धर्मादीनामपि लोकत्व सिद्धम ।१३।-जहाँ पुण्य व पापका फल जो सुख-दू ख बह देखा जाता है सो लोक है इस व्युत्पत्तिके अनुसार लोकका अर्थ आत्मा होता है। जो पदार्थों को देखे ब जाने सो लोक इस व्युत्पत्तिसे भी लोकका अर्थ आत्मा है। आत्मा स्वय अपने स्वरूपका लोकन करता है अत लोक है। सर्व ज्ञके द्वारा अनन्त व अप्रतिहत केबलदर्शनसे जो देखा जाये सो लोक है, इसप्रकार धर्म आदि द्रव्यों का भी लोकपना सिद्ध है।
२. लोकका आकार ति प/१/१३७-१३८ हेमिलोयासारो वेत्तासणसण्णिहो सहावेण । मज्झिमलोयायारी उभियमुर अद्धसारिच्छो । १३७॥ उपरिमलोयाआरो उम्भियमुरवेण होइ सरिसत्तो। सठाणो एदाण लोयाण एण्हि साहेमि ।१३८।-इन (उपरोक्त) तीनोमेंसे अधोलोक्का आकार स्वभावसे वेत्रासनके सदृश है, और मध्यलोकका आकार खडे किये हुए आधे मृदगके ऊध्र्वभागके समान है ।१३७। ऊर्ध्व लोकका आकार रखडे किये हुए मृद गके सदृश है ।११८। (ध, ४/१,३.२/गा०६/११)
(त्रि सा./६). ( ज ५/४/४-६), (द्र स./टी/३५/११२/१२)। ध ४/१.३.२/गा, ७/११ तलरुक्रवसठाणो७। यह लोक ताल वृक्षके
आकारवाला है। ज.प/प्र /२४ प्रो. लक्ष्मीचन्द-मिस्रदेशके गिरजे में बने हुए महास्तूपसे यह लोकाकाशका आकार किचित समानता रखता प्रतीत होता है।
३. लोकका विस्तार ति. ५ /१/१४४-१५३ सेढिपमाणायाम भागेसु दक्विणुत्तरेसु पुढ । पुबाबरेसु बास भूमिमुहे सत्त येकपचेका १४६। चोहसरज्जुपमाणो उच्छेहो होदि सयललोगस्स। अद्वमुरज्जस्सुदवो समग्गमुखोदयसरि
छो ।१५० व हेमिमज्झिमउवरिमलोउच्छेहो क्मेण रज्जूबो। सत्त य जोयणलबख जायण लक्खूणसगरज्जू ।११। इह रयणसकारावालुपकधूमतममहातमादिपहा । सुरवद्धम्मि महीओ सत्त चिचय रज्जुअन्तरिआ।१५२। घमावसामेघाअजणरिठाण उन्भमघवीओ। माधविया इय ताण पुढवीण बोत्तणामाणि ।१५। मझिमजगस्स हेट्ठिमभागादो णिग्गद। पढमरज्जू। सकर पहपुढवीए हेट्ठिम गम्मि णि ठादि ।१५४। तत्तो दोहरज्जू बालुवपहट्टि समप्पेदि। तह य तइज्जारज्जू पकपहहेहास्स भागम्मि ॥१५॥ धूमपहाए हाम- भागम्मि समप्पदे तुरियरज्जू । तह पंचामया रज्जू तमप्पहाहामा
पएसे ।११६। महतमदिठमयते छट्ठी हि समप्पदे रज्जू। तत्तो सत्तमरज्जू लोयस्स तल म्मि णिछादि ११५७। मझिमजगस्स उबरिमभागादु दिवड्ढरज्जुपरिमाणं । इगिजोयणलबाखूण सोहम्मविमाणधयदडे ।१५। वचदि दिवढरज्जू माहिदसणकुमार उबरिम्मि। णिठ्ठादि अद्धरज्जू बभुत्तर उड्ढभागम्मि ।१५६। अपसादि अद्धरज्जू काविठस्सोवरिठभागम्मि । स चियमहसुकोवरि सहसारोवरि अ स च्चेय ॥१६०। तत्तो य अद्धरज्जू आणदकप्पस्स उवरिमपएसे । स य आरणस्स कप्पस्स उवरिमभागम्मि गेबिज्ज ।१६१ तत्तो उपरिमभागे णवाणुत्तरओ होति एकरज्जूषो। एवं उबरिमलोए रज्जुविभागो समुद्दिछ ।१६२। णियणिय चरिमिदयद'डम कपभूमिअवसाणं कप्पादीदमहीए विच्छेदो लोयविच्छेदो ।१६३-१. दक्षिण और उत्तर भागमें लोकका आयाम जगश्रेणी प्रमाण अर्थात सात राजू है । पूर्व और पश्चिम भागमें भूमि और मुखका व्यास क्रमसे सात. एक, पाँच और एक राजू है। तात्पर्य यह है कि लोककी मोटाई सर्वत्र सात राजू है, और विस्तार क्रमसे लोकके नीचे सात राजू, मध्यलोकमें एक राजू, ब्रह्म स्वर्गपर पाँच राजू और लोकके अन्तमें एक राजू है ।१४६। २ सम्पूर्ण लोककी ऊँचाई १४ राजू प्रमाण है। अर्धमृद गकी ऊँचाई सम्पूर्ण मृदंगकी ऊँचाईके सदृश है । अर्थात अर्धमृदग सदृश अधोलोक जैसे सात राजू ऊँचा है उसी प्रकार हो पूर्ण मृदगके सदृश ऊर्ध्व लोक भी सात ही राजू ऊँचा है ।१५०। क्रमसे अधोलोककी ऊँचाई सात राजू, मध्यलोककी ऊँचाई १००,००० योजन, और ऊर्ध्व लोककी ऊँचाई एक लाख योजन कम सात राजू है ।१५१ (ध १/१, ३,२/गा ८/११), (त्रि सा/११३), (ज प./ ४/११.१६-१७)। ३. तहाँ भी -तीनो लोकोमेसे अर्धमृदंगाकार अधोलोकमे रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तम - प्रभा और महातमप्रभा, ये सात पृथिवियाँ एक राजूके अन्तरालसे है ।१५२धर्मा, व शा, मेघा, अजना, अरिष्टा, मघवी और माधवी ये इन उपर्युक्त पृथिवियोके अपरनाम है ।१५३। मध्यलोकके अधोभागसे प्रारम्भ होकर पहला राजू शर्कराप्रभा पृथिवीके अधोभागमें समाप्त होता है ।१५४। इसके आगे दूसरा राजू प्रारम्भ होकर बालुकाप्रभाके अधोभागमे समाप्त होता है। तथा तीसरा राजू पकप्रभाके अग्रोभागमें ।१५। चौथा धूमप्रभाके अधोभागमे, पाँचयों तम प्रभाके अधोभागमे ।१५६। और छठा राज महातम प्रभाके अन्तमे समाप्त होता है। इससे आगे सातवाँ राजू लोकके तलभागमें समाप्त होता है।१७। [ इस प्रकार अधोलोककी ७ राजू ऊँचाईका विभाग है। ४ रत्नप्रभा पृथिवीके तीन भागोमे से खरभाग १६.०० यो० पक भाग ८४००० यो० और अब्बहुल भाग ८०,००० योजन मोटे है। दे० रत्नप्रभा/२ । ५ लोकमें मेरुके तलभागसे उसकी चोटी पर्यन्त १००,००० योजन ऊँचा ब १राजू प्रमाण विस्तार युक्त मध्यलोक है। इतना ही तिर्यकलोक है!-दे० तिर्यच/३/१)। मनुष्यलोक चित्रा पृथिवीके ऊपरसे मेरुकी चोटी तक ६६००० योजन विस्तार तथा अढाई द्वीप प्रमाण ४५००,००० योजन विस्तार युक्त है।-दे० मनुष्य/४/१६. चित्रा पृथिवीके नीचे खर व एक भागमें १००,००० यो० तथा चित्रा पृथिवी के ऊपर मेरुकी चोटी तक ६६००० योजन ऊँचा और एक राजू प्रमाण विस्तार युक्त भावनलोक है।-देव्यन्तर/ ४१-५। इसी प्रकार व्यन्तरलोक भी जानना।-दे०व्यतर/४/१-१॥ चित्रा पृथिवीसे ७६० योजन ऊपर जाकर ११० योजन पाहण्य व १ राजू विस्तार युक्त ज्योतिष लोक है।-दे० ज्योतिषलोक/१। ७ मध्यलोकके ऊपरी भागसे सौधर्म बिमानका ध्वजदण्ड १००,००० योजन कम १३ राजू प्रमाण ऊँचा है ।१५८। इसके आगे १३ राजू माहेन्द्र व सनरकुमार स्वर्ग के ऊपरी भागमे, १/२ राजू ब्रह्मोत्तरके ऊपरी भागगें ।१५।। १/२ राजू कापिष्ठके ऊपरी भागमे, १/२ राजू महाशुक्र के ऊपरी भागमें, १/२ राजु सहस्रारके ऊपरी भाग १६०० १/२ राजू आनतके ऊपरी भागमें और १/२ राजू आरण-अच्युतके
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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