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लोक
१. लोक स्वरूपका तुलनात्मक अध्ययन
१. लोकनिर्देशका सामान्य परिचय
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पृथिवी, इसके चारो ओरका वायुमण्डल, इसके नीचेकी रचना तथा इसके ऊपर आकाश में स्थित सौरमण्डलका स्वरूप आदि, इनके ऊपर रहनेवाली जीव राशि, इनमें उत्पन्न होनेवाले पदार्थ, एक दूसरेके साथ इनका सम्बन्ध ये सब कुछ वर्णन भूगोलका विषय है । प्रत्यक्ष होनेसे केवल इस पृथिवी मण्डलकी रचना तो सर्व सम्मत है, है, परन्तु अन्य बातोंका विस्तार जाननेके लिए अनुमान ही एकमात्र आधार है । यद्यपि आधुनिक यन्त्रो से इसके अतिरिक्त कुछ अन्य भूखण्डोंका भी प्रत्यक्ष करना सम्भव है पर असीम लोककी अपेक्षा वह किसी गणना नहीं है। यत्रो से भी अधिक विश्वस्त योगियोंकी सूक्ष्म दृष्टि है। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से देखनेपर लोकोकी रचना के रूप में यह सब कथन व्यक्तिको आध्यात्मिक उन्नति व अवनतिका प्रदर्शन मात्र है। एक स्वतन्त्र विषय होनेके कारण उसका दिग्दर्शन यहाँ कराया जाना सम्भव नहीं है । आज तक भारत में भूगोलका आधार वह दृष्टि ही रही है। जैन, वैदिक व बौद्ध आदि सभी दर्शनकारों ने अपने-अपने ढंग से इस विषयका स्पर्श किया है और आज के आधुनिक वैज्ञानिकोने भी सभी की मान्यताएं भिन्नभिन्न होती हुई भी कुछ अंशो मिलती है। जैन व वैदिक भूगोल काफी अशोमे मिलता है। वर्तमान भूगोल के साथ किसी प्रकार भी मेल बैठता दिखाई नहीं देता, परन्तु यदि विशेषज्ञ चाहे तो इस विषयकी गहराइयों में प्रवेश करके आचार्योंके प्रतिपादनकी सत्यता सिद्ध कर सकते है । इसी सब दृष्टियोको संक्षिप्त तुलना इस अधिकार की गयी है।
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२. जैनाभिमत भूगोल परिचय
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जैसा कि अगले अधिकारोपरसे जाना जाता है, इस अनन्त आकाशके मध्यका वह अनादि व अकृत्रिम भाग जिसमे कि जोव पुद्गल आदि षद् द्रव्य समुदाय दिखाई देता है, वह लोक कहलाता है. जो इस समस्त आकाशकी तुलना नाके बराबर है । --लोक नाम से प्रसिद्ध आकाशका यह खण्ड मनुष्याकार है तथा चारो ओर तीन प्रकारको वायुओंसे वेष्टित है। लोकके ऊपरसे लेकर नीचे तक बीचोंबीच एक राजू प्रमाण विस्तार युक्त त्रसनाली है। त्रस जीव इससे बाहर नहीं रहते पर स्थावर जीव सर्वत्र रहते है । यह तीन भागों में विभक्त है-अधोलोक मध्यतोक व ऊर्ध्वलोक अधोलोकमें नारकी जीवोंके रहने के अति दुखमय रौरव आदि सात नरक है, जहाँ पापी जीव मरकर जन्म लेते है और ऊर्ध्वलोक में करोड़ो योजना के अन्तरालसे एकके ऊपर एक करके १६ स्वर्गों में कल्पवासी विमान है । जहाँ पुण्यात्मा जीव मरकर जन्मते है। उनसे भी ऊपर एक भवावतारी लौकान्तिकोके रहनेका स्थान है, तथा लोकके शीर्ष पर सिद्धलोक है जहाँ कि मुक्त जीव ज्ञानमात्र शरीर के साथ अवस्थित है। मध्यलोकमें वलयाकार रूप से अवस्थित असंख्यातो द्वीप व समुद्र एकके पीछे एकको वेष्टित करते है । जम्बू, धातकी, पुष्कर आदि तो द्वीप है और लवणोद कालोद, वारुणीवर, क्षीरवर, इक्षुवर, आदि समुद्र है। प्रत्येक द्वीप व समुद्र पूर्व पूर्वकी अपेक्षा दूने विस्तार युक्त है सबसे मीच जम्बूद्वीप है, जिसके बीचोबोच मेरु पर्वत है। पुष्कर द्वीपके बीचोबीच वलयाकार मानुषोत्तर पर्वत है, जिससे उसके दो भाग हो जाते है ।
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जम्बूद्वीप धातकी व पुष्करका अम्यन्तर अर्धभाग, ये अढाई द्वीप हैं इनसे आगे मनुष्योका निवास नहीं है। शेष द्वीपोमे तियंच प्रेत आदि व्यतर देव निवास करते है। जम्बूद्वीपमें सुमेरुके दक्षिण में हिमवान, महाहिमवान व निषध, तथा उत्तर में नील,
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१. लोक स्वरूप का तुलनात्मक अध्ययन
रुक्मि व शिखरी है जो इस द्वीपको भरत, हैमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हैरण्यवत व ऐरावत नामवाले सात क्षेत्रो में विभक्त करते है। ये पर्वतपर एक एक महाहृद है जिनमे से दो दो नदियाँ निकलकर प्रत्येक क्षेत्र पूर्व व पश्चिम दिशा मुखसे महती हुई लवण सागर में मिल जाती है। उस उस क्षेत्र में वे नदियाँ अन्य सहस्रो परिवार नदियोको अपनेमे समा लेती है। भरत व ऐरावत क्षेत्रो मे बीचोबीच एक-एक विजयार्धपर्वत है । इन क्षेत्रोकी दो-दो नदियो व इस पर्वत के कारण ये क्षेत्र छ छ खण्डोमे विभाजित हो जाते है, जिनमे मध्यवर्ती एक खण्डमे आर्य जन रहते है और शेष पाँच में म्लेच्छ । इन दोनो क्षेत्रोमे ही धर्म-कर्म व सुख-दुख आदिकी हानि वृद्धि होती है, शेष क्षेत्र सदा अवस्थित है। - विदेह क्षेत्र मे सुमेरुके दक्षिण व उत्तर में निषक्ष व नील पर्वतस्पर्शी सोमनस विद्य ुत्प्रभ तथा गन्धमादन व माल्यवान नामके दो दो गजदन्ताकार पर्वत है, जिनके मध्य देवकुरु व उत्तरकुरु नामकी दो उत्कृष्ट भोगभूमियों है, जहाँ मनुष्य व तिथेच बिना कुछ कार्य परे जति सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करते है । उनकी आयु भी असख्यातों वर्षको होती है। इन दोनो क्षेत्रमे जवानी नामके दो वृक्ष है । जम्बू वृक्षके कारण ही इसका नाम जम्बूद्वीप है। इसके पूर्व पश्चिम भागमे से प्रत्येकमे १६.१६ क्षेत्र है । जो ३२ विदेह कहलाते है । इनका विभाग वहाँ स्थित पर्वत व नदियोके कारण से हुआ है। प्रत्येक क्षेत्रमे भरतक्षेत्रवत् छह खण्डो की रचना है। इन क्षेत्रो में कभी धर्म विच्छेद नहीं होता। दूसरे व तीसरे आये द्वीपमें पूर्व व पश्चिम विस्तार के मध्य एक एक सुमेरु है। प्रत्येक सुमेरु सम्बन्धी छ' पर्वत व सात क्षेत्र है जिनकी रचना उपरोक्तवत् है ।-- लवणोदके तलभाग में अनेकों पाताल है, जिनमे वायुको हानि-वृद्धिके कारण सागरके जलमे भी हानि - वृद्धि होती रहती है । पृथिवीतलसे ७६० योजन ऊपर आकाश में क्रमसे सितारे, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, बुध, शुक्र, वृहस्पति, मंगल व शनीचर इन ज्योतिष ग्रहोके सचार क्षेत्र अवस्थित है, जिनका उल्लंघन न करते हुए वे सदा सुमेरुकी प्रदक्षिणा देते हुए घूमा करते है । इसीके कारण दिन, रात. वर्षा ऋतु आदिकी उत्पत्ति होती है । जेनाम्नायमे चन्द्रमाको अपेक्षा सूर्य छोटा माना जाता है ।
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३. वैदिक धर्माभिमत भूगोल परिचय
- दे० आगे चित्र सं ० १ से ४ । ( विष्णु पुराण / २ /२-७ के आधारपर कथित भावार्थ ) इस पृथिवीपर जम्बू, प्लक्ष, शाल्मल, कुश, क्रौंच, शाक और पुष्कर ये सात द्वीप तथा सबजी, रस, सुरोद सर्विस्सलिल, दधितोय, क्षीरोद और स्वादुसलिल ये सात समुद्र है ( २/२-४ ) जो चूडीके आकार रूपसे एक दूसरेको वेष्टित करके स्थित है। ये द्वीप पूर्व पूर्व पकी अपेक्षा दूने विस्तारनाते है। ( २/४.८०)।
इन सबके बीच में जम्बूद्वीप और उसके बीच मे ४००० खोजन ऊँचा सुमेरु पर्वत है जो १६००० योजन पृथिवीमे घुसा हुआ है। सुमेरु दक्षिण में हिमवान हेमकूट और निषेध तथा उत्तर में नील, श्वेत और शगी ये छ वर्ष पर्वत है। जो इसको भारतवर्ष, किंपुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्यक, हिरण्यमय और उत्तर कुरु इन सात क्षेत्र में विभक्त कर देते है ।-नोट' – जम्बूद्वीपकी चातुर्द्वीपिक भूगोलके साथ तुलना (दे० आगे शीर्षक न० ७) । मरु पर्वतकी पूर्व पश्चिम इलावृतकी मर्यादाभूत मान्यवान व गन्धमादन नामके दो पर्वत है जो निबंध व नील तक फैले हुए है। मेरुके चारो ओर पूर्वा दिशाओं मन्दर गन्धमादन, विपुल और सुपार्श्व मे चार पर्वत है। इनके ऊपर क्रमश कदम्ब, जम्बू, पीपल व बट ये चार वृक्ष है। वृक्षके नामसे ही यह द्वीप जम्बूद्वीप नामसे प्रसिद्ध है। वर्षों भारतवर्ष कर्मभूमि है और शेष वर्ष भोगभूमियों है। क्योकि भारत में ही कृतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग, ये चार काल
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