Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 429
________________ लेश्या ४२२ १ . भेद लक्षण व तत्सम्बन्धी शंका समाधान १.भेद लक्षण व तत्सम्बन्धी शंका समाधान ५. लेश्या सामान्य लक्षण पं.सं./प्रा./१/१४२-१४३ लिप्पइ अप्पी कीरइ एयाए णियय पुण्ण पावं च । जीवो ति होइ लेसा लेसागुणजागयवखाया ।१४। जह गेरुवेण कुडो लिपइ लेवेण आमपिट्टण। तह परिणामो लिष्पह सुहासुह यत्ति लेवेण ॥१४३ - जिसके द्वारा जीव पुण्य-पापसे अपनेको लिप्त करता है, उनके आधीन करता है उसको लेश्या कहते हैं ।१४२। (ध.१/१,१,४/गा, ६४/१५०); (गो. जी./y /४८) जिस प्रकार आम पिष्टसे मिश्रित गेरु मिट्टोके लेप द्वारा दोवाल लीपी या रंगी जाती है, उसी प्रकार शुभ और अशुम भावरूप लेपके द्वारा जो आत्माका परिणाम लिप्त किया जाता है उसको लेश्या कहते हैं।१४३॥ ध, १/१,१,४/१४६/६ लिम्पतीति लेश्या ।...कर्मभिरारमानमित्यध्याहारापेक्षित्वाद । अथवात्मप्रवृत्तिसंश्लेषणकारी लेश्या । प्रवृत्तिशब्दस्य कर्म पर्यायवाद। जो लिम्पन करती है उसको लेश्या कहते हैं अर्थात जो काँसे आत्माको लिप्त करती है उसको लेश्या कहते हैं। (ध. १/१,१,१३६/२८३/१ ) अथवा जो आत्मा और कर्मका संबन्ध करनेवाली है उसको लेश्या कहते हैं। यहाँपर प्रवृत्ति शब्द कर्म का पर्यायवाची है। (ध.७/२,१,३/७/७)। ध,८/३.२७३/३५६/४ का लेस्सा णाम । जीव-कम्माणं संसिलेसयणयरी, मिच्छत्तासंजम-कसा यजोगा त्ति भणिदं होदि । - जीव व कर्मका सम्बन्ध कराती है वह लेश्या कहलाती है। अभिप्राय यह है कि मिथ्याध, असंयम, कषाय और योग ये लेश्या हैं । २. लेझ्याके भेद-प्रभेद १. इन्य व भाव दो भेदस. सि./२/4/१५६/१० लेश्या द्विविधा, द्रव्य लेश्या भावलेश्या चेति । = लेश्या दो प्रकारकी है-द्रव्यलेश्या और भावलेश्या (रा. वा./२/ ६/८/१०६/२२ ); (ध. २/१,१/४१६४८); (गो. जो./जी. प्र./४८६/ ८६४/१२)1 २. द्रव्य-भाव लेश्याके उत्तर भेदघ. खं./१/१.१/सू. १३६/३८६ लेस्साणुवादेण अयि किण्हलेस्सिया णील लेस्सिया काउलेस्सिया तेउलेस्सिया पम्मलेस्सिया सुकलेस्सिया अलेस्सिया चेदि ।१३६। - लेश्या मार्गणाके अनुवादसे कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, तेजोलेश्या, पालेश्या, शुक्ल लेश्या और अलेश्यावाले जीव होते हैं ।१३६॥ ५./१६/४८/७। स.सि./२/६/१५६/१२ सा प विधा-कृष्णलेश्या, नीललेश्या. कापोत- लेण्या. तेजोलेश्पा, पालेश्या, शुक्ल लेश्या चेति ।-लेश्या छह प्रकारको है -कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, पीतलेश्या, पद्यलेश्या, शुक्ललेश्या । (रा. वा./२/६/८/१०६/२७ ); (रा.वा/8/७/११/६०४/ १३): (ध.१/१,१.१३६/३८८/५); (गो. जी././४६३/८६६); (द्र. सं./टी./११/३८) गो. जो./मू./४६४-४६३८१७ दवलेस्सा । सा सोढा किण्हादी अणेय. भेयो सभेयेण ।४६४। छप्पय णीलकरोदसुहेममंबुजसंखसणि हा बण्णे । संखेज्जासंस्खेजाणतवियपा स पत्तेव ।४६५- द्रव्यलेश्या कृष्णादिक छह प्रकार की है उनमें एक-एकके भेद अपने-अपने उत्तर भेदोंके द्वारा अनेक रूप है ।४६४६ कृष्ण-भ्रमरके सदृश काला वर्ण: नोल-नील मणि के सदृश, कापोत कापोत के सदृश वर्ण, तेजो-सुवर्ण सदृश वर्ण, पद्म कमल समान वर्ण, शुचल-शंख के समानवर्ण वाली है। जिस प्रकार कृष्णवर्ण हीन-उत्कृष्ट-पर्यन्त अनन्त भेदोंको लिये है उसी प्रकार छहों द्रव्य-लेश्याके जघन्यसे उत्कृष्ट पर्यन्त शरीरके वर्ण की अपेक्षा संख्यात, असं रव्यात व अनन्त तक भेद हो जाते हैं ।४६५ गो.जी./जी. प्र./७०४/११४१/५ लेश्या सा च शुभाशुभभेदाद द्वधा। तत्र अशुभा कृष्णनीलकपोतभेदाद त्रेधा, शुभापि तेजःपद्मशुक्लभेदास्त्रेधा। वह लेश्या शुभ व अशुभके भेदसे दो प्रकारकी है। अशुभ लेश्या कृष्ण, नील ब कपोतके भेदसे तीन प्रकार की है। और शुभ लेश्या भी पौत, पद्म व शुक्ल के भेदसे तीन प्रकार की है। ३. द्रव्य-माव लेश्याओंके लक्षण १. द्रव्य लेश्या पं.सं./प्रा./९/१८३-१८४ किण्हा भमर-सवण्णा णीला पुण णील-गुलिय संकासा। काऊ कओदवण्णा तेऊ तवाणिज्जवण्णा दु ।१८३) पम्हा पउमसवण्णा सुक्का पुणु कासकुसुमसंकासा । वण्णं तरं च एदे हवं ति परिमिता अणता वा ।१८४ - कृष्ण लेश्या, भौरके समान वर्णवाली, नील लेश्या-नीलकी गोली, नीलमणि या मयूरकण्ठके समान वर्णवाली। कापोत-कबूतरके समान वर्णवाली, तेजो-तप्त सुवर्णके समान वर्णवाली पद्म लेश्या पद्मके सदृश वर्णवाली। और शुक्ललेश्या कांसके फूल के समान श्वेत वर्णवाली है। (ध. १६/गा. १-२/४८५)। रा.वा./६/७/११/६०४/१३ शरीरनामोदयापादिता द्रव्यलेश्या। शरीर नाम कर्मोदयसे उत्पन्न द्रव्यलेश्या होती है। गो. जी./मू./४६४ वण्णोदयेण जणिदो सरोरवण्णो दु दव्वदो लेस्सा । -वर्ण नामकर्म के उदयसे उत्पन्न हुआ जो शरीरका वर्ण उसको द्रव्यलेश्या कहते हैं ।४६४। ( गो. जी./म्./५३६ ) । २. भावलेश्या स. सि./२/६/१५६/११ भावलेश्या कषायोदयरञ्जिता योग प्रवृत्तिरिति कृत्वा औदयिकोत्युच्यते । -भावलेश्या कषायके उदयसे अनुरंजित योगकी प्रवृत्ति रूप है, इसलिए वह औदयिकी कही जाती है । (रा. वा./२/६/८/१०६/१४): (द्र. सं./टी./१३/३/३)। ध. १/१,१,४/१४६/८ कषायानुरञ्जिता कायवाङ्मनोयोगप्रवृत्तिलेश्या -कषायसे अनुरं जित मन-वचन-कायकी प्रवृत्तिको लेश्या कहते हैं । (गो.जी./मू./४१०/१५); (पं.का./त.प्र./११६) । गो.जी./मु./५३६/६३१ लेस्सा। मोहोदयखओबसमोवसमावयजजीवफंदणं भावो। - मोहनीय कम के उदय, क्षयोपशम, उपशम अथवा क्षयसे उत्पन्न हुआ जो जीवका स्पन्द सो भावलेश्या है। १. कृष्णादि भावळेश्याओंके लक्षण १. कृष्णलेश्या पं. सं./प्रा./१/१४४-१४५ चंडो ण मुयदि वेर भंडण-सोलो य धम्म दयरहिओ। दुट्ठो ण य एदि वसं लवणमेदं तु किण्हस्स ।२००। मंदो बुद्धि-विहीणो णिव्विणाणी य विसय-लोलो य। माणी मायी य तहा आलस्सो चेय भेज्जो य २०१० -तीन क्रोध करने वाला हो, वैरको न छोड़े, लड़ना जिसका स्वभाव हो, धर्म और दयासे रहित हो, दुष्ट हो, जो किसीके वशको प्राप्त न हो, ये सब कृष्णलेश्यावालोंके लक्षण हैं।२००। मन्द अर्थात् स्वच्छन्द हो, वर्तमान कार्य करने में विवेकरहित हो, कलाचातुर्यसे रहित हो, पंचेन्द्रियके विषयों में लम्पट हो, मानी, मायावी. आलसी और भीरु हो, ये सब कृष्णलेश्यावालों के लक्षण हैं।२०। (ध.१/१,९,१३६/गा.२००-२०१/ ३८८), (गो.जी /मू./५०६-५१०) । ति. प./२/२६१-२६६ किण्हादितिलेस्सजुदा जे पुरिसा ताण लवरवणं एवं । गोत्तं सकलसं एक्कं बंछेदि मारिदुदुह्रो ।२६ धम्म दया परिचत्तो अमुझवेरी पयंडकलयरो। बहकोहो किण्हाए जम्मदि धूमादि चरिमंते ।२६६ = कृष्णलेश्यासे युक्त दुष्ट पुरुष अपने ही गोत्रीय तथा एकमात्र स्वकलत्रको भी मारनेकी इच्छा करता है ।२६॥ दया-धर्मसे रहित, बैरको न छोड़ने वाला, प्रचण्ड कलह करनेवाला •णारया जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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