Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 432
________________ लेड्या ४. लेश्याका कपायोंमें अन्तर्भाव क्यों नहीं कर देते श.वा./२/६/०/१०/२२ कपायरचीदायको व्याख्याता तो स्या नर्थान्तरभृतेति नैष दोष: कणयोदयतीमा भेदादर्थान्तरत्वम् । प्रश्न- कषाय औदयिक होती हैं, इसलिए लेश्याका कषायोमे अन्तर्भाव हो जाता है। उत्तर- यह कोई दोष नही है । क्योंकि, कषायोदयके तीव्र-मन्द आदि तारतम्यसे अनुरजित लेश्या पृथक ही है। ३० श्या/२/२ (केवल कपायको लेश्या नहीं कहते अपितु कषायानुविद्ध योग प्रवृत्तिको लेश्या कहते है ) । ३. द्रव्य लेश्या निर्देश १. अपर्याप्त काल में शुक्ल व कापोत लेश्या ही होती है घ. २/१.१/४२२ / ६ जहा सम्म निस्सोवचओ सुमितो भवदि सम्हा दिग्गगदी बहनाग-नजीबाग सरीरस्स सुटलेस्सा भवदि । पुणो सरीरं घेत्तूण जाब पज्जत्तीओ समाणेदि ताव परमाणु - मान सरोरतादो तरस सरीरस्स स्सा काउलेसेति भण्य एवं दो सरीरलेस्साओ भवंति जिस कारण से सम्पूर्ण कमका विसोपचय शुक्ल ही होता है, इसलिए विप्रगति विद्यमान सम्पूर्ण जीवोके शरीरको शुक्लेश्या होती है । तदनन्तर शरीरको ग्रहण करके जब तक पर्याप्तियों को पूर्ण करता है तब तक छह वर्णवाले परमाणुओं के जसे शरीरकी उत्पति होती है. इसलिए उस शरीरको कापोत लेश्या कही जाती है। इस प्रकार अपर्याप्त अवस्थामे शरीर सम्बन्धी दो ही लेश्याएं होती है। (x 2/1.1/4x8/2, 402/21 २. नरक गति में द्रव्यसे कृष्ण लेश्या ही होती है गो.जी. जी. २६/८१८ किया किन्हा | ४६६। नारा सर्वे नारकी सर्व कृष्ण वर्णवाले ही है। कृष्णा एवं ३. जळकी द्रव्यलेश्या शुक्ल ही है ४२५ ध २ / ११ / ६०१ / १ सहम आऊ काउलेस्सा या वादरान कलिह बण्णलेस्सा | कुदो । घणोदधि घणवलयागासपदिद-पाणीयाणं धवलवण्ण दंसणादो | धवल - किसण-णील-पीयल-रत्ताअंब पाणीय दसणादण धवलवणमेव पाणीयमिदि वि पि भणति, तण्ण घडदे । कुदो। आयाभावे भट्टियाए संजोगेण जलस्स बहुवण्ण-वबहारदसणादो । आऊण सहावण्णी पुण धवलो चैव । सूक्ष्म अपकायिक जीवीके अपर्याप्त कालमे द्रव्य से कापालेश्या और बादरकायिक जीयोके स्फटिकवर्णवाती शुक्ल कहना चाहिए, क्योंकि, धनोदधिवात और धनवलयवात द्वारा आकाशसे गिरे हुए पानीका धवल वर्ण देखा जाता है। प्रश्न- कितने ही आचार्य ऐसा कहते है कि धवल, कृष्ण, नील, पीत. रक्त और आताम्र वर्णका पानी देखा जानेसे धवल वर्ण ही होता है । ऐसा कहना नही बनता ? उत्तर- उनका कहना मुक्तिसगत नहीं है, क्योकि आधारके होनेपर मिट्टी के योगसे जल अनेक वर्णवाला हो जाता है ऐसा व्यवहार देखा जाता है । किन्तु जलका स्वाभाविक वर्ण धवल ही होता है । ४. मवन त्रिकर्मे छड़ों व्यलेश्या सम्भव है घ. २/११/१२-१६ देवास काले पोछ लेस्साओ ह त्ति एदं ण घडदे, तेसि पज्जत्तकाले भावदो छ - लेस्साभावादो । जा भावलेस्सा तब्लेस्सा चेव णोकम्मपरमाणवी आगच्छेति । ५३२ । ण ताव अपजत्तकालभावलेस्सा. पज्जत्तकाले भावलेस्स पि णियमेण अणुहरह पज्जत्त दव्वलेस्सा.. । धवलवण्णव लयाए भावदो सुक्कलेस्स भा० ३-५४ Jain Education International • ४. भाव लेश्या निर्देश पसगादो। दव्वलेस्सा णाम वण्णणामकम्मोदयादो भवदि, ण भावलेस्सादो। वण्णणामकम्मोदयादो भवणवासिय-बाणवेतर-जोइसियाणं दव्त्रदो छ लेस्साओ भवति, उवरिमदेवाण तेउ पम्म सुबक लेस्साओ भवति । प्रश्न- देवोंके पर्याप्तकाल में द्रव्यसे छहो लेश्याऍ होती है यह वचन पटित नहीं होता है, कोकि उनके पर्याप्त कासमें भावसे छहो याओका अभाव है। कोकि जो भावलेश्या होती है उसी लेश्यावाले ही नोकर्म परमाणु आते है। उत्तर- द्रव्यलेश्या अपर्याप्तकाल में इसी प्रकार पर्याप्त काल में भी पर्याप्त जीव सम्बन्धी द्रव्यलेश्या भालेश्याका नियमसे अनुकरण नहीं करती है क्योंकि ईसा मानने पर ता घरल वर्गवारी बगुले के भी भावसे शुभाश्याका प्रसग प्राप्त होगा। दूसरी बात यह भी है कि द्रव्यलेश्या वर्ण नामा नामकर्मके उदयसे होती है भावलेश्यासे नही । वर्ण नामा नामकर्मके उदयसे भवनवासी, मातव्यम्तर और योतिषी देवो द्रव्यको अपेक्षा छहीं लेश्याएँ होती है तथा भवनत्रिकसे ऊपर देवोके तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएँ होती है। ( गो. जी./मू / ४६६/८६८ ) । ५. आहारक शरीरको शुक्ललेश्या होती है घ. १४/५.४.२३१/२२७/६ पचवण्यागमाहारसरीपरमाणूर्ण कथं शुकलत्त जुज्जदे । ण, विस्सासुवचयवण्ण पडुच्च धवलत्तुवल भादो । = प्रश्न- आहारक शरीरके परमाणु पाँच वर्ण वाले है। उनमें केवल शुक्लपना कैसे बन सकता है। उत्तर- नहीं, क्योकि विसोपचय के वर्णकी अपेक्षा धवलपना उपलब्ध होता है । कापोतलेश्या होती है। ६. कपाट समुद्घात प. २/११/२५४/३ बाहर जोगिनेमस्सि वि सरीरस्स काउसेस्सा चैव हवदि । एत्थ वि कारणं पुव्व व वत्तत्वं सजोगिकेवलिस्स पुव्विल - सरीरं छटवणं जदि वि हवदि तो वितण्ण घेप्पदि; कवाडगदहलस पतनोगे वागस्स मिसरीरेण सह संबंधा भावादो। अह्वा पुल्लिवण सरीरमस्सिऊण उबयारेण दव्वदो सजोगिकेवलिस्स छ लेस्साओ हवंति । = कपाट समुद्धातगत सयोगिकेवली के शरीरकी भी कापोतलेश्या ही होती है । यहॉपर भी पूर्व ( अपर्याप्तवत् दे० लेश्या /३/१ ) के समान ही कारण कहना चाहिए । यद्यपि सयोगिके पहलेका शरीर यहाँ वर्ण वाला होता है; क्योकि अपर्याप्त योग में वर्तमान कपाट-समुद्धातगत सयोगि केवलीका पहले के शरीर के साथ सम्बन्ध नहीं रहता है। अथवा पहले के षड्वर्ण - वाले शरीरका आश्रय लेकर उपचार द्रव्यकी अपेक्षा सयोगिकेवलीके छोलेश्याएँ होती है। (ध. २/११/११०/२) । ४. भाव लेश्या निर्देश १. लेश्यामार्गणा में भाव लेश्या अभिप्रेत है। स सि./२/६/१५६/१० जीवभावाधिकारात द्रव्यश्यानाधिकृता । = यहाँ जीवके भावोका अधिकार होनेसे द्रव्यलेश्या नही ली गयी है । (ए. वा /२/६/८/१०६/२३ ) | २/ ११ / ४३१/२ केई सरीर पिवेतून सजदासजदादीण भावलेस्स परूवयंति । तण्ण घडदे, वचनव्याघाताच्च । कम्म - लेवहेदूदो जोग-कसाया चेत्र भाव -लेस्सा त्ति दिव्वं । = कितने ही आचार्य, शरीर रचना के लिए आये हुए परमाणुओं के वर्णको लेकर संयतासंयत्तादि गुणस्थानवर्ती जीवों के भावश्याका वर्णन करते है किन्तु उनका यह कथन घटित नहीं होता है | आगमका वचन भी व्याघात होता है । इसलिए कर्म लेपका कारण होनेसे कषायसे अनुरजित (जीव ) प्रकृति ही भावलेश्या है। ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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