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लेश्या
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२. कषायानुरंजित योग प्रवृत्ति सम्बन्धी
चला जाता है । ) उत्तर--इस प्रकार लक्षण करनेपर भी भूमि लेपिका आदिमे अतिव्याप्त दोष नहीं होता, क्योकि इस लक्षणमें 'कर्मोसे आत्माको इस अध्याहार की अपेक्षा है' इसका तात्पर्य है जो कर्मोमे आत्माको लिन करती है वह लेश्या है अथवा जो प्रवृति कर्मका सम्बन्ध करनेवाली है उसको लेश्या कहते है ऐसा लक्षण करनेपर अतिव्याप्त दोष भी नहीं आता क्योकि यहाँ प्रवृत्ति शब्द कर्मका पर्यायवाची ग्रहण क्यिा है। ध, १/१,१,१३६/३८६/१० क्षायानुर ब्जितैव योगप्रवृत्तिलेश्येति नात्र परिगृह्यते सयोगकेवलिनोडलेश्यत्वापत्ते' अस्तु चेन्न, 'शुक्ल लेश्य. सयोगकेवली' इति वचनव्याघातात् । - 'वणायसे अनुरज्जितयोग प्रवृत्तिको लेश्या कहते है, 'यह अर्थ यहाँ नहीं ग्रहण करना चाहिए', क्योकि इस अर्थ के ग्रहण करने पर सयोगिकेवलीको लेश्या रहितपनेकी आपत्ति होती है। प्रश्न-ऐसा ही मान ले तो। उत्तरनही, क्योकि केवलीको शुक्ल लेश्या होती है' इस बचनका व्याघात होता है। २. 'कर्म बन्ध संश्लेषकारी के अर्थमें ध,७/२,१,६१/१०/४ जदि बंधकारणाणं लेस्सत्तं उच्चदि तो पमादस्स वि लेस्सत्तं किषण इचिउज्जदि। ण, तस्स कसाएमु अंतभावादो। असंजमस्स किण्ण इच्छिज्जदि । ण, तस्स वि लेस्सायम्मे अंतभावादो। मिच्छत्तस्स क्ण्णि इच्छिज्जदि । हो तरस लेस्साववएसो, बिरहाभावादो । कितु कसायाण व एत्थ पहाणत्तं हिसादिलेस्सायम्मरणादो, सेस्सु तदभावादो। -प्रश्न-बन्ध के कारणोको ही लेश्याभाव कहा जाता है तो प्रमादको भी लेश्याभाव क्यो न मान लिया जाये। उत्तर-नहीं, क्योंकि प्रमादका तो कषायोमे ही अन्तर्भाव हो जाता है। (और भी दे० प्रत्यय/१/३)। प्रश्न-असयमको भी लेश्या क्यो नही मानते। उत्तर-नही, क्यो कि अस यमका भी तो लेश्या कर्ममें अन्तर्भाव हो जाता है। प्रश्न-मिथ्यात्वको लेश्या भाव क्यो नहीं मानते। उत्तरमिथ्यात्वको लेश्याभाव कह सकते है, क्योकि उसमें कोई विरोध नहीं आता। किन्तु यहाँ वषायोका ही प्राधान्य है, क्योकि कषाय ही लेश्या कर्म के कारण है और अन्य बन्ध कारणोमें उसका अभाव है।
२. लेश्या नाम कषायका है, योगका है वा दोनोंका: ध १/१,१,१३६/१८६/११ लेश्या नाम योगः कषायस्तावुभौ वा। कि चातो नाद्यौ बिकल्पौ योगकषायमार्गणयोरेव तस्या अन्तर्भावात् । न तृतीयविकल्पस्तस्यापि तथाविधत्वाद। कर्मलेदेककार्यक्र्तृत्वेनैकत्वमापन्नयोर्योगक्षाययोलेश्यात्वाभ्युपगमात । नैकत्वात्तयोरन्तर्भवति द्वयात्मकैकस्य जात्यान्तरमापन्नस्य वेवलेन केन सहकत्वसमानत्वयोर्विरोधात् । घ. १/१.१,४/१४६/८ ततो न केवल कषायो लेश्या, नापि योग , अपि तु कषायानुविद्धा योगप्रवृत्तिले श्येति सिद्धम् । ततो न वीतरागाणा योगो लेश्येति न प्रत्यवस्येयं तन्त्रत्वाद्योगस्य, न कषायम्तन्त्र विशेपणत्वतस्तस्य प्राधान्याभावात् । - प्रश्न-लेश्या योगको कहते है, अथवा, कषायको कहते है, या योग और कषाय दोनोको कहते है। इनमें से आदिके दो विकल्प ( योग और क्षाय ) तो मान नहीं सकते, क्योकि वैसा माननेपर योग और कषाय मार्गणामें ही उसका अन्तर्भाव हो जायेगा। तीसरा विकल्प भी नहीं मान सकते है क्योकि वह भी आदि के दो विकल्पोके समान है। उत्तर-१. कर्म लेप रूप एक कार्य को करनेवाले होनेको अपेक्षा एकपनेको प्राप्त हुए योग और कषायको लेश्या माना है । यदि कहा जाये कि एक्ताका प्राप्त हुए योग और कषायरूप लेश्या होनेसे उन दोनोमें लेश्याका अन्तर्भाव हो जायेगा, सो भी ठीक नहीं है क्योकि दो धर्मों के संयोगसे उत्पन्न हुए द्वयात्मक अतएव क्सिी एक तीसरी अवस्थाको प्राप्त हुए किसी एक धर्मका केवल एकके साथ एकरव अथवा समानता माननेमे विरोध आता है। २. केवल कषाय और केवल योगको लेश्या नहीं कह सकते है किन्तु कषायातविद्ध योगप्रवृत्तिको ही लेश्या कहते है, यह बात सिद्ध हो जाती है। इससे बारहवे आदि गुणस्थानवर्ती वोतरागियोके केबल योगको लेश्या नही कह सकते ऐसा निश्चय नही कर लेना चाहिए, क्योकि लेश्यामे योगकी प्रधानता है, कषाय प्रधान नहीं है, क्योंकि, वह योग प्रवृत्तिका विशेषण है, अतएव उसकी प्रधानता नही हो सक्ती है। ध ७/२,१,६३/१०४/१२ जदि कसाओदए लेस्साओ उच्चति तो वीणकसायाण लेस्साभावो पसज्जदे । सच्चभेदं जदि क्साअ'दयादो चेव लेस्सुप्पत्ती इच्छिज्ज दि । कितु सरीरणामकम्मोदयजणिदजोगोवि लेस्साति इच्छिज्जदि, कम्मबंध णिमित्तत्तादो। ३. क्षीण. कषाय जीवो में लेश्याके अभावका प्रसग आता यदि केवल क्षायोदयसे हो लेश्याकी उत्पत्ति मानी जाती। किन्तु शरीर नाममके उदयसे उत्पन्न योग भी तो लेश्या माना गया है, क्योकि यह भी कमके बन्धमें निमित्त होता है।
७. लेश्याके दोनों लक्षणों का समन्वय ध.१/१,१,१३६/३८८/१ संसारवृद्धिहेतुलेश्येति प्रतिज्ञायमाने लिम्पतीति
लेश्यैत्यनेन विरोधश्चेन्न, लेपाविनाभाविरवेन तवृद्धरपि तदव्यपदेशाविरोधात। - प्रश्न-संसारकी वृद्धिका हेतु लेश्या है ऐसी प्रतिज्ञा करनेपर 'जो लिप्त करती है उसे लेश्या कहते है'; इस वचनके साथ विरोध आता है। उत्तर-नही. क्योकि, कर्म लेपकी अबिनाभावी होने रूपसे ससारकी वृद्धिको भी लेश्या ऐसी सज्ञा देनेसे कोई बिरोध नहीं आता है। अत उन दोनोसे पृथग्भूत लेश्या है यह बात निश्चित हो जाती है। २. कषायानुरंजित योग प्रवृत्ति सम्बन्धी
१. तरतमताकी अपेक्षा लेश्याओं में छह विमाग ध.१/१,१,१३६/३८/३ षड्विध कषायोदयः। तद्यथा, तीबतम' तीव्रतर तीव मन्द, मन्दतर मन्दतमम् इति। एतेभ्यः षड्भ्य कषायोदयेय परिपाट्या पडू लेश्या भवन्ति। कषायका उदय छह प्रकारका होता है। वह इस प्रकार है, तीव्रतम, तीव्रतर, तीव, मन्द, मन्दतर और मन्यतम। इन छह प्रकार के कषायके उदयसे उत्पन्न हुई परिपाटी क्रमसे लेश्या भी छह हो जाती है ।-( और भी दे० आयु/३/१६)।
३. योग व कषायसे पृथक् लेश्या माननेका क्या
आवश्यकता ध १/१,१,१३६/३८७/५ योमकषायकार्याद्वयतिरिक्त लेश्यावार्यानुपलम्भान्न ताभ्या पृथग्लेश्यास्तीति चेन्न, योगक्षायाभ्यां प्रत्यनीकत्वाद्यालम्बनाचार्यादिब ह्यार्थ संनिधानेनापन्नलेश्याभावाभ्यां ससारवृद्धिकार्यस्य तत्केबलकार्याद्वयतिरिक्तस्योपलम्भात ।प्रश्न-योग और कषायो से भिन्न लेश्याका कार्य नहीं पाया जाता है, इसलिए उन दोनोसे भिन्न लेश्या नहीं मानी जा सकती। उत्तर नही, क्यो कि, विपरीतताको प्राप्त हुए मिथ्यात्व, अबिरति आदिके आलम्बन रूप आचार्यादि बाह्य पदार्थोके सम्पर्क से लेश्या भावको प्राप्त हुए योग और कषायोसे केवल योग और केवल क्षायके कार्यसे भिन्न ससारकी वृद्धि रूप कार्य की उपलब्धि है जा केबल योग और केवल कषायका कार्य नहीं कहा जा सकता है, इसलिए लेश्या उन दोनोसे भिन्न है, यह बात सिद्ध हो जाती है।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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