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लेश्या
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४. भाव लेश्या निर्देश
शुक्ललेश्याकी आपत्ति प्राप्त होगी। दूसरी बात यह भी है कि द्रव्य लेश्या वर्णनामा नाम कर्मके उदयसे होती है, भाव लेश्यासे नही। ५. शुम लेश्याके अभाव में मीनारकियों के सम्यक्रवादि
कैसे
२. छहों भाव लेश्याओंके दृष्टान्त प. सं./प्रा/१/११२ णिम्मूल खंध साहा गुछा चुणिऊण कोइ पडिदाई। जह एदेसि भावा तह बिय लेसा मुणेयवा। = कोई पुरुष वृक्ष को जड-मूलसे उखाडकर, कोई स्कन्धसे काटकर, कोई गुच्छोंको तोड कर, कोई शाखाको काटकर, कोई फलोको चुनकर, कोई गिरे हुए फलोको बीनकर खाना चाहे तो उनके भाव उत्तरोत्तर विशुद्ध है,
उसी प्रकार कृष्णादि लेश्याओंके भाव भी परस्पर विशुद्ध है ।११२॥ ध. २/१,१/गा. २२५/५३३ णिम्मूलखधसाहुवसाहं वुच्चितु बाउ
पडिदाइ । अन्भतरलेस्साणभिदइ एदाई वयणाह ।२२५॥ पो. जी./मू./५०६ पहिया जे छप्पुरिसा परिभट्टारणमझदेसम्हि । फलभरियरुषखमेग पेक्खित्ता ते विचितति ।०६।-१. छह लेश्यावाले छह पथिक वनमें मार्गसे भ्रष्ट होकर फलोसे पूर्ण किसी वृक्षको देखकर अपने मनमें विचार करते है, और उसके अनुसार वचन कहते है-( गो सा.) २. जड-मूलसे वृक्षको काटो, स्कन्धको काटो, शाखाओसे काटो, उपशाखाओसे काटो, फलोको तोडकर खाओ और वायुसे पतित फलोको खाओ, इस प्रकार ये अभ्यन्तर अर्थात् भावलेश्याओके भेदको प्रकट करते है ।२२। (ध. गो. सा/ म् ५०७)।
३. लेश्या अधिकारमें १६ प्ररूपणाएँ गो जी./मू /१६१-४१२८६६ णिद्देसवण्णपरिणामसकमो कम्मलक्रवणगदी य। सामी साहणसखा खेत्त फासं तदो कालो। ४६१। अतर- भावप्पबहु अह्यिारा सोलसा हव ति त्ति । लेस्साण साहणठ्ठ जहाकम तेहिं वोच्छामि ४६२= निर्देश, वर्ण, परिणाम, सक्रम, कर्म, लक्षण, गति, स्वामी, साधन, सख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव, अल्प-बहुत्व ये लेश्याओंकी सिद्धि के लिए सोलह अधिकार परमागममें कहे है ।४६१-४६२। १. वैमानिक देवों में द्रव्य व भावलेश्या समान होती है परन्तु अन्य जीवों में नियम नहीं ति. प //६७२ सोहम्मप्पहुदीणं एदाओ दवभावलेस्साओ । - सौधमादिक देवोके ये द्रव्य व भाव लेश्याएँ समान होती है । (गो.जी/ मू./४६६)। ध. २/१,११५३४/६ ण ताव अपज्जत्तकाल भावलेस्समणुहरइ दब्बलेस्सा,
उत्तम-भोगभूमि-मणुस्साणमपज्जत्तकाले अनुह-त्ति-लेस्साणं गउरवण्णा भावापत्तीदो । ण पज्जत्तकाले भावलेस्सं पिणियमेण अशुहरइ पज्जत्तदव्वलेस्सा, छविह-भाव-लेस्सासु परियट्टत-तिरिक्व मणुमपज्जत्ताण दव्वलेस्साए अणियमप्पसगादो। धवलवण्णबलायाएभावदो सुक्कलेस्सप्पस गादो। आहारसरीराण धवलवण्णाण विग्गहगदि-ठ्यि-सब्ब जीवाणं धवलवण्णाणं भावदो सुक्क्लेस्सावत्तीदो चेत्र । कि च, दब्वलेस्सा णाम वण्णणामकम्मोदयादो भवदि ण भावलेस्सादो । = द्रव्यलेश्या अपर्याप्त कालमें होनेवाली भावलेश्याका तो अनुकरण करती नहीं है, अन्यथा अपर्याप्त कालमे अशुभ तीनो लेश्यावाले उत्तम भोगभूमियॉ मनुष्योके गौर वर्ण का अभाव प्राप्त हो जायेगा। इसी प्रकार पर्याप्तकाल में भी पर्याप्त जीवसम्बन्धी द्रव्यलेश्या भावलेश्याका नियमसे अनुकरण नहीं करती है क्योकि वैसा माननेपर छह प्रकार की भाव लेश्याओमें निरन्तर परिवर्तन करनेवाले पर्याप्त तिथंच और मनुष्योके द्रव्य लेश्याके अनियमपनेका प्रसंग प्राप्त हो जायेगा। और यदि द्रव्यलेश्याके अनुरूप ही भावलेश्या मानी जाये, तो धवल वर्णवाले बगुलेके भी भावसे शुक्ल लेश्याका प्रसंग प्राप्त होगा। तथा धवल वर्णवाले आहारक शरीरोके और धवल वर्ण वाले विग्रहगतिमे विद्यमान सभी जीवोके भावकी अपेक्षासे
रा, वा./३/३/४/१६३/३० नित्यग्रहणाल्लेश्याद्यनिवृत्तिप्रसङ्ग इति चेत; न, आभीक्ष्ण्यवचनत्वात नित्यप्रहसितवव ।।। .. लेश्यादीनामपि व्ययोदयाभाबान्नित्यत्वे सति नरकादप्रच्यब स्यादिति । तन्न, कि कारणम् । आभीक्ष्ण्यवचनान्नित्यप्रहसितवत । ..अशुभकर्मोदयनिमित्तवशात लेश्यादयोऽनारतं प्रादुर्भवन्तीति आभीक्ष्ण्यवचनो नित्यशब्द प्रयुक्त' । एतेषां नारकाणा स्वायु प्रमाणावधृता द्रव्यलेश्या उक्ता, भाषलेश्यास्तु षडपि प्रत्येकमन्तर्मुहूर्त परिवर्तिन्य । -प्रश्न-लेश्या आदिको उदयका अभाव न होनेसे, अर्थात नित्य होनेसे नरकसे अच्युतिका तथा लेश्याकी अनिवृत्तिका प्रसंग आ जावेगा। उत्तर-ऐसा नही है, क्योंकि यहाँ नित्य शब्द बहुधाके अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जैसे- देवदत्त नित्य हॅसता है, अर्थात् निमित्त मिलने पर देवदत्त जरूर हँसता है, उसी तरह नारकी भी कर्मोदयसे निमित्त मिलने पर अवश्य ही अशुभतर लेश्या बाले होते है, यहाँ नित्य शब्दका अर्थ शाश्वत व कूटस्थ नहीं है। • नारकियो में अपनी आयुके प्रमाण काल पर्यन्त ( कृष्णादि तीन ) द्रव्यलेश्या कही गयी है। भाव लेश्या तो छहो होती है और
वे अन्तर्मुहूर्त में बदलती रहती है। ल सा./जी प्र/१०१/१३८/८ नरकगती नियताशुभलेश्यात्वेऽपि कषायाणा मन्दानुभागोदयवशेन तत्त्वार्थ श्रद्धानानुगुणकारणपरिणामरूपविशुद्धिविशेषसभवस्याविरोधात् । यद्यपि नारकियोमे नियमसे अशुभलेश्या है तथापि वहाँ जो लेश्या पायी जाती है उस लेश्यामें कषायोके मन्द अनुभाग उदयके वशसे तत्त्वार्थ श्रद्धानुरूप गुणके कारण परिणाम रूप विशुद्धि विशेषकी असम्भावना नहीं है।
६. भाव लेश्याके कालसे गुणस्थानका काल अधिक है घ/१,६.३०८/१४६/१ लेस्साद्धादो गुणद्धाए बहुत्तु वदेसा। लेश्याके कालसे गुणस्थापनका काल बहुत होता है, ऐसा उपदेश पाया जाता है। ७. लेश्या परिवर्तन क्रम सम्बन्धी नियम गो. क /म् /१६६-५०३ लोगाणमस खेज्जा उदयट्ठाणा क्सायग्ग होति । तत्थ किलिट्ठा असुहा सुहाविसुद्धा तदालाबा ४६६) तिव्वतमा तिब्बतरा तिब्व सुहा सुहा तहा मदा। मदतरा मदतमा छट्ठाणगया हु पत्तेयं ।५०० असुहाण वरमज्झिम अवर से किण्हणीलकाउतिए। परिणमदि कमेणप्पा परिहाणीदो किलेसस्स ।५०१। काऊ णील किण्ह परिणमदि किलेसबढिदो अप्पा । एवं क्लेिसहाणीबढीदो होदि असुहतिय ।५०२ तेऊ पडमे मुक्के सुहाणमवरादि असगे अप्पा । सुद्धिस्स य वड्ढीदो हाणीदो अण्णदा होदि 1५०३1 संकमण सहाणपरट्ठाण होदि किण्हसुक्काणं । वड्ढीसु हि सट्ठाण उभयं हाणिम्मि सेस उभये वि ।५०४। लेस्साणुक्कस्सादो वरहाणी अवरगादवरवड्ढी। सठाणे अवरादो हाणी णियमापरठाणे ।५०५॥ - कषायोंके उदयस्थान असख्यात लोकप्रमाण है। इसमें से अशुभ लेश्याओके संक्लेश रूप स्थान यद्यपि सामान्यसे असख्यात लोकप्रमाण है तथापि विशेषताकी अपेक्षा असरख्यात लोक प्रमाणमे असरख्यात लोक प्रमाण राशिका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उसके बहु भाग संक्लेश रूप स्थान है और एक भाग प्रमाण शुभ लेश्याओके स्थान है ।४।। अशुभ लेश्या सम्बन्धी तीवतम, तीव्रतर और तोब ये तीन स्थान, और शुभ लेश्या सम्बन्धी मन्द
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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