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लेश्या
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लोक
उत्पन्न होने के प्रथम समय कृष्ण, नील और कापोत लेश्यासे परिणत हो जाते है । (ध २/१,१/०६४/५)। ५. अपर्याप्त कालमें सम्भव लेश्याएँ ध, २/१,११/पक्ति नं गैरइय-तिरिक्व-भवणवासिय - वाण वितरजोड सियदेवाणमपज्जत्तकाले किण्ह-णील काउलेस्साओ भवति । सोधम्मादि उवरिमदेवाणमपज्जत्तकाले तेउ-पम्मसुक्कलेस्साओ भवति (४२२/१०) असंजदसम्माइट्ठीणमपज्जत्तकाले छ लेस्साओ हब ति (५११/७) । ओरालिय मिस्स कायजोगे भावेण छ लेस्साओ।
मिच्छाइट ठि-सासणसम्माइट्ठोण ओरालिय मिस्सकायजोगे वट्टमाणाण किण्ह-णीलकाउलेस्सा चेव हवति (५४/१,७)। देवमिच्छाइट ठिसासणसम्माइट्ठीणं तिरिक्व-मणुस्से सुप्पज्जमाणाण संक्लेिसेण तेउ-पम्म-सुक्कलेस्साओ फिट्टिऊण किण्ह-णीलकाउलेरसाणं एगदमा भवदि। सम्माइट्ठीण पुण तेउ-पम्म-मुक्कलेस्साओ चिर तणाओ जाव अतोमुहत्तं ताव ण णस्स ति। (७६४/५)। - १. नारकी, तिर्यच, भवनवासी. वान व्यन्तर और ज्योतिषी देवो के अपर्याप्त कालमे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएँ होती है। तथा सौधर्मादि ऊपरके देवोंके अपर्याप्त काल में पीत, पद्म
और शुक्ल लेश्या होती है। ऐसा जानना चाहिए। २ असंयत सम्यग्दृष्टियोके अपर्याप्त काल में छहों लेश्याएँ होती है। ३ औदारिक मिश्रकाययोगी के भाव से छहो लेश्याएँ होती है। औदारिकमिश्रकाययोगमें वर्तमान मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवोके भावसे कृष्ण, नील और कापोत लेश्याएँ ही होती है। ४. मिथ्यावृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टि देवों के मरते समय सक्लेश । उत्पन्न हो जाने से तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याएँ नष्ट होकर कृष्ण, नील और कापोत लेश्यामेसे यथा सम्भव कोई एक लेश्या हो जाती है। किन्तु सम्यग्दृष्टि देवोके चिर तन ( पुरानी तेज, पद्म और शुक्ललेश्याएँ मरण करनेके अनन्तर अन्तमहतं तक नष्ट नही होती है, इसलिए शुक्ल लेश्यावाले मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि देवोके औदारिककाय नहीं होता)(ध २/१,१/६५६/१२) गो, क जी.प्र /६२५/४६८/१२ तद्भवप्रथमकालान्तर्मुहूर्त पूर्वभवलेश्यासद्भावात् । - वर्तमान भयके प्रथम अन्तर्मुहर्त काल में पूर्वभवको लेश्याका सद्भाव होनेसे । ६. अपर्याप्त या मिश्र योगमें लेश्या सम्बन्धी शंका समाधान १. मिश्रयोग सामान्यमें छहों लेश्या सम्बन्धी ७.२/१,१/६५४/६ देवणेरइयसम्माइठिण मणुसगदीए उप्पण्णाणं
ओरालियमिस्सकायजोगे बट्टमाणाणं अविणट्ट'-पुबिल्ल-भावलेस्साणं भावेण छ लेस्साओ लभंति ति। - देव और नारकी मनुष्यगतिमें उत्पन्न हुए है, औदारिक मिश्रकाय योगमे वर्तमाम है, और जिनको पूर्व भव सम्बन्धी भाव लेश्याएँ अभीतक नष्ट नहीं हुई है, ऐसे जीवोंके भाव से छहो लेश्याएँ पायी जाती है। इसलिए
औदारिकमिश्र काययोगी जीवोके छहो लेश्याएँ कही गयी है। २. मिथ्यादृष्टि व सासादन सम्यग्दृष्टिके शुभ लेश्या सम्बन्धी दे० लेश्या/५/४ में ध. २/१.१/७६४/५ (मिथ्या दृष्टि व सासादन सम्यग्दृष्टि देवोके मरते समय संक्लेश हो जानेसे पीत, पद्म व शुक्ल लेश्याएँ नष्ट होकर कृष्ण, नील व कापोतमें से यथा सम्भव कोई एक लेश्या हो जाती है।) ३. अविरत सम्यग्दृष्टिमें छहों लेश्या सम्बन्धी ध/२/१,१/७५२/७ छट्ठीदो पुढवीदो किण्हलेस्सासम्माइट् ठिणी मणुसेसु जे आगच्छति तेसि वेदगसम्मत्तेण सह किण्हॅलेस्सा लब्भदि ति । छठी पृथिवीसे जो कृष्ण लेश्यावाले अविरत सम्यग्दृष्टि जीव मनुष्योमें आते है, उनके अपर्याप्त कालमें वेदक सम्यक्त्वके साथ कृष्ण लेश्या पायी जाती है।
दे० लेश्या/५/४ मे ध २/१.१५११/३ (१-६ पृथिवी तक्के असयत सम्यग्दृष्ठि नारकी जीव अपने-अपने योग्य कृष्ण, नील ब कापोत लेश्याके साथ मनुष्योमै उत्पन्न होते है। उसी प्रकार असंयत सम्यग्दृष्टि देव भी अपने-अपने योग्य पीत, पद्म व शुयल लेश्याओके साथ मनुष्यों में उत्पन्न होते है। इस प्रकार अविरत सम्यग्दृष्टि मनुष्यो के अपर्याप्त काल में छहो लेश्याएँ बन जाती है। ध.२/१,१/६५७/३ सम्माइठिणो तहा ण परिणमति, अतोमुहत्तं पुयिल्ल लेस्साहि सह अच्छिय अण्णलेरस गच्छति। कि कारणं । सम्माइछोण बुद्धिठिय परमेट्ठीण मिच्छाइट्ठीण मरणकाले स किलासाभावादो। णेरइय-सम्माइट ठिणो पुण चिराण-लेस्साहि सह मणुस्से सुप्पज्जति। =सम्यग्दृष्टि देव अशुभ लेश्याओं रूपसे परिणत नहीं होते है, किन्तु तिथंच और मनुष्यो में उत्पन्न होनेके प्रथम समयसे लगाकर अन्तर्मुहूर्त तक पूर्व रहकर पीछे अन्य लेश्याओको प्राप्त होते है। किन्तु नारकी सम्यग्दृष्टि ता पुरानी चिर" तन लेश्याओके साथ ही मनुष्यों मे उत्पन्न होते है। इस प्रकार सम्यग्दृष्टिके अपर्याप्त अवस्थामे छहो लेश्याएँ बन जाती है। ७.कपाट समुद्धात में लेश्या ध, २/१.१/५४/६ कवागद-सजोगिकेवलिस्स मुक्क्ले स्सा चेव भवदि ।
-- कपाट समुद्रातगत औदारिक मिश्र काययोगी सयोगिकेयली के एक शुक्ललेश्या होती है।
८.चारों गतियोंमें लेश्या की तरतमता मू आ./११३४-११३७ काऊ काऊ तह काउणील णीला य णीलक्व्हिाय । किण्हा य परमविण्हा लेस्सा रदणादिपुढवीसु ।११३४४ तेऊ देऊ तह तेउ पम्म पम्मा स पम्मसुक्का य । सक्का य परमसका लेस्साभेदो मुणेयत्रो ।११३५॥ तिहं दोण्ह दोण्हं छण्हं दोण्ह च तेरसहं च । एतो य चोद्दसण्ह लेस्सा भवणादिदेवाण।११३६। एइदियवियलिदिय असणिणो तिण्णि होति असुहाओ । स कादीदाऊणं तिणि सुहा छपि सेसाण ११३७ नरकगति-रत्नप्रभा आदि नरककी पृथिवियो मे जघन्य कापोती, मध्यम कापोती, उत्कृष्ट कापोती. तथा जघन्य नील. मध्यम नील उत्कृष्ट नौल तथा जघन्य कृष्ण लेश्या
और उत्कृष्ट कृष्ण लेश्या है ।११३४॥ देवगति-भवनवासी आदि देवो के क्रमसे जघन्य तेज।लेश्या भवन त्रिकमें है, दो स्वर्गोंमे मध्यम तेजोलेश्या है, दोमे उत्कृष्ट तेजोलेश्या है जघन्य पालेश्या है, छहमें मध्यम पद्मलेश्या है, दोमे उत्कृष्ट पद्मलेश्या है और जघन्य शुक्ल लेश्या है, तेरहमें मध्यम शुक्ल लेश्या है और चौदह विमानों में चरम शुक्ललेश्या है ।११३५-११३६॥ तिथंच व मनुष्य-एकेन्द्री, विकले द्री असंज्ञीपचेद्रोके तीन अशुभ लेश्या होती है, असंरख्याल वर्ष की आयु वाले भोगभूमिया कुभोगभूमिया जीवोके तीन शुभलेश्या है और बाकीके कर्मभूमिया मनुष्य तियंचोके छहों लेश्या होती है ।११३७१ ( स सि /३/३/२०७/१,४/२२/२५३/४ ) (व.स./प्रा./१/१८५-१८६); (रा.वा./३/३/४/१६४/६,४/२२/२४०/२४);
(गो.जी/मू./१२६-५३४)। लोच-दे० केश लोच । लोक-काल का एक प्रमाण विशेष-दे० गणित/I/१| लोक
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लोक स्वरूपका तुलनात्मक अध्ययन लोक निर्दशका सामान्य परिचय । जैन मताभिमत भूगोल परिचय । वैदिक धर्माभिमत भूगोल परिचय । बौद्धाभिमत भूगोल परिचय । आधुनिक विश्व परिचय । उपरोक्त मान्यताओंको तुलना। चातुर्दिपिक भूगोल परिचय ।
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