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लैश्या
मन्दतर मन्दतम ये तीन स्थान होते है । ५००| कृष्ण, नील, कापोत इन तीन अशुभ लेश्याओके उत्कृष्ट मध्यम जघन्य अश रूपमें यह आत्मक्रमसे सक्लेशकी हानि होनेसे परिणमन करता है | ५०१ | उत्तरोत्तर संक्लेश परिणामोंकी वृद्धि होनेसे यह आत्मा कापोतसे नील और नीलसे कृष्ण लेश्यारूप परिणमन करता है। इस तरह यह जीव क्लेशकी हानि और बुद्धिको अपेक्षा तीन अशुभ लेश्या रूप परिणमन करता है । ५०२। उत्तरोत्तर विशुद्धि होनेसे यह आत्मा पीत, पद्म, शुक्ल इन शुभ लेश्याओंके जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट अंश रूप परिणमन करता है। विशुद्धिकी हानि होनेसे उत्कृष्टसे अन्य पर्यन्त शुक्ल पद्म पीत लेश्या रूप परिणमन करता है । ५०३। परिणामोंकी पलटनको संक्रमण कहते है उसके दो भेद है-स्वस्थान, परस्थान संक्रमण | कृष्ण और शुक्ल में वृद्धिको अपेक्षा स्वस्थान संक्रमण हो होता है। और हानिकी अपेक्षा दोनो सक्रमण होते है। तथा शेष चार लेश्याओं में स्वस्थान परस्थान दोनो संक्रमण सम्भव है | ५०४ । स्वस्थानकी अपेक्षा लेश्याओके उत्कृष्ट स्थानके समीपवर्ती परिणाम उत्कृष्ट स्थान के परिणामसे अनन्त भाग हानिरूप है। तथा स्वस्थानकी अपेक्षासे ही जघन्य स्थानके समीपवर्ती स्थानका परिणाम जघन्य स्थानसे अनन्त भाग वृद्धिरूप है। सम्पूर्ण लेश्याओंके जघन्य स्थान यदि हानि हो तो नियमसे अनन्त गुण हानिरूप परस्थान संक्रमण होता है |५०३ (नो क/जी/ ५४६/०२६/१६) ।
दे. काल /५/१८ (शुक्ल लेश्यासे क्रमश कापोत नील लेश्याओमें परिणमन करके पीछे कृष्ण लेश्या रूप परिणमन स्वीकार किया गया है पद्म पो जानेका नियम नहीं) कृष्ण लेश्माले परिणतिके अनन्तर ही कापोत रूप परिणमन शक्ति का अभाव है ) । काल/२/१६-१० (दक्षितको प्राप्त करके अन्तर्मुहूर्त से पहले गुणस्थान या लेश्या परिवर्तन नही होता)। ५. भाव लेश्याओंका स्वामित्व व शंका समाधान
१. सम्यक्त्व व गुणस्थानोंमें लेश्या
पं. स. १२/१/१२०-१४० किव्हतेस्सिया पीतलेसिया काउलेसिया एदियहूडि जान असजद सम्माट्ठति ॥१३७॥ सेलेस्सिया मलेसिया समिच्छाह टिप्पहूडि जाय अप्पमत संजदा ति १३ सियाणि मन्दाद्विप्पड जाय सजोगिकेमसि त्ति | १३ | तेण परमलेस्सिया | १४० | कृष्ण लेश्या, नील लेश्या और कापोत लेश्यावाले जोव एकेन्द्रियसे लेकर असयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक होते है । १३७॥ पीत लेश्या और पद्म लेश्यावाले जीव सज्ञी मिथ्यादृष्टिसे लेकर अप्रमत्त सयत गुणस्थान तक होते है ।१३८ । शुक् लेश्यावाले जीव सही मिध्यादृरिसे लेकर संयोगि केवली गुणस्थान तक होते है | १३ | तेरहवें गुणस्थानके आगे के सभी जीव लेश्या रहित है ॥१४०॥
घ. ६/११-८१२/२३/१ ककरवितरे तस्स मरण पि होन काउ-उ-पम-सुफलेस्थानममराए ऐसा वि परिणाममेज्य |
- कृतकृत्य वेदक काल के भीतर उसका मरण भी हो, कापोत, तेज पद्म और शुक्ल, इन लेश्याओमेंसे किसी एक लेश्याके द्वारा परिगमित भी हो । गो. ३५४/२०३/२४ दोनो शुभलेश्याओं
शुमलेश्यात्र द्विराधनासंभवाद की विराधना नहीं होती। २. उपरले गुणस्थानों में लेश्या कैसे सम्भव है। स.सि /२/६/१६०/९ ननु च उपशान्तकयासयोगकेन लिनिय शुक्लेश्यास्तस्यागम' तत्र कषायानुरञ्जनाभावादधिकरण नोपपद्यते । नैष दोष: पूर्वभावज्ञापननयापेक्षया यासी योगाति कषायानुरब्जिता सैवेत्युपचारादौदयिकीत्युच्यते । तदभावादयोगकेवलेश्य इति निश्चीयते । प्रश्न-उपशान्त कषाय, क्षीणकषाय और योगकेवली गुणस्थानमें शुक्तलेस्या है ऐसा आगम है, परन्तु
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५. भाव लेश्याओंका स्वामित्व व शंका समाधान
वहाँपर कषायका उदय नहीं है इसलिए औदथिकपना नहीं बन सकता। उत्तर- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जो योगप्रवृत्ति कषायके उदयसे अनुरजित है वही यह है इस प्रकार पूर्वभाव प्रज्ञापन नयकी अपेक्षा उपशान्त कषाय आदि गुणस्थानो में भी लेश्याको औक कहा गया है । किन्तु अयोगकेवली के योग प्रवृत्ति नही है इसलिए वे लेश्या रहित है, ऐसा निश्चय है । ( रा वा /२/६/८/१०६ / २६ ); (गो. जी. मू / ५३३ / १२१ ) ।
दे० सेश्या / २/२ (बारहवे गुणस्थानवर्ती मीतरागियोंके केवल योगको लेश्या नहीं कहते, ऐसा निश्चय नहीं करना चाहिए। )
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४] १ / १.१.१२६ / २६१२/८ कथं सोनोपशान्तकयायाम शुक्लश्येति चेन्न कर्मनिमित्तयोगस्य तत्र सत्यापेक्षा ते नसलेश्यास्तित्वाविरोधात् । - प्रश्न-जिन जीवोकी कषाय क्षीण अथवा उपशान्त हो गयी है उनके शुक्ललेश्याका होना कैसे सम्भव है 1 उत्तर- नहीं, क्योंकि जिन जीवोंकी कषाय क्षीण अथवा उपशान्त हो गयी है उनमें कर्मले पका कारण योग पाया जाता है, इसलिए इस अपेक्षासे उनके शुक्ल लेश्याके सद्भाव माननेमें विरोध नहीं आता । (घ. २/९.९ / ४३६/६), (घ. ७/२,१.६१/१०२/१) ।
३. नरकके एक ही पटलमें भिन्न-भिन्न लेश्याएँ कैसे सम्भव हैं
४/१५.२६०/ ४६२/२ सम्बेरिया तस्य (पथम पुमी) ता तीए ( कीन्ह ) चैव लेस्साए अभावा । एक्कम्हि पत्थडे भिण्णलेस्साणं कथं संभवो विरोहाभावा । एसो अत्थो सव्वत्थ जाणिदव्वो । - पाँचवीं पृथ्वीके अधस्तन प्रस्तार के समस्त नारकियोंके उसी ही (कृष्ण) लेश्याका अभाव है। ( इसी प्रकार अन्य पृथिवियो में भी ) । प्रश्न- एक ही प्रस्तार में दो भिन्न-भिन्न लेश्याओंका होना कैसे सम्भव है। उत्तर- एक ही प्रस्तार में भिन्न-भिन्न जीवोंके भिन्न-भिन्न देश्याने होनेने कोई विरोध नहीं है यही अर्थ सर्वत्र जानना चाहिए ।
४. मरण समय में सम्भव लेश्याएँ
प. ८/३.२५० / ३२३ / १ सये देना मुदवणे
नेत्र अणियमेण अग्रह
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- सब में
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तिलेस्सा णिवदेति ति गहिये ये मुददेवाससिपि काउलेस्साए चेन परिणामधुवनमादो १. देव मरण क्षण ही नियम रहित अशुभ तीन लेश्याओं में गिरते हैं । २, सब ही मृत देवोंका कापोत लेश्यामें ही परिणमन स्वीकार किया गया है।
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ध २/११/२९२/३ रहया असंजदसम्माद्विनो पदमपुवि आदि जान ही निपज्जवखाणास पुढमी द्विदा कार्स का मधुस्से पेन अप्पम्पो विषायोग्गलेस्साहि सह उपति चिकि-गीत-काउलेस्सा सति देवामि अससम्माठियो कालं काऊण मणुस्सेसु उप्पज्जमाना तेउ पम्म सुक्कलेस्साहि सह मस्से उववज्जति ।
२/११/६२६/१२ देवमिच्छा साससम्मादितेि-पम्म सुक्कलेसा बट्टमाषा अलेस्सा होऊन तिरियमरमेयमाणा उप्पण्ण-पढमसमए पेन किन्ही कारसाहि सह परिणमति । -१ प्रथम पृथिवीसे लेकर छठी पृथिवी पर्यंत पृथिवियोंमें रहनेवाले असंयत सम्यग्दृष्टि नारकी मरण करके मनुष्यो में अपनी-अपनी पृथिवीके योग्य लेश्याओके साथ ही उत्पन्न होते है । इसलिए उनके कृष्ण, नील, कापोत लेश्याएँ पायी जाती है । २. उसी प्रकार असयत सम्यग्दृष्टि देव भी मरण करके मनुष्योंमें उत्पन्न होते हुए अपनी-अपनी पीत, पद्म और शुक्ल लेश्याओंके साथ ही मनुष्यों में उत्पन्न होते है । ३. तेज, पद्म और शुक्ल लेश्याओं में वर्तमान निध्यादृष्टि और सासादन सम्यग्गृहि देन तिर्यंच और मनुष्यो में उत्पन्न होते समय नष्टलेश्या होकर अर्थात् अपनी-अपनी पूर्वको तेश्याको छोर मनुष्यों और ि
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