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लिंग
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णीए । १००१ = १ भाव ही प्रथम लिंग है इसलिए हे भव्य जीव । तू द्रव्यलिंगको परमार्थरूप मत जान और गुण दोषका कारणभूत भाव ही है, ऐसा जिन भगवान् कहते है |२| (भा. पा /मू./६,७, ४८, ५४, ४५ ), ( यो, सा अ./५/५७) । २. भाव ही स्वर्ग मोक्षका कारण है। भावसे रहित श्रमण पाप स्वरूप है, तियंच गतिका स्थानक है और कर्ममलसे मलिन है चित्त जिसका ऐसा है 1७४। जो भाव श्रमण है वे परम्परा कल्याण है जिसमें ऐसे सुखों को पाते है। जो द्रव्य श्रमण है वे मनुष्य कुदेव आदि योनियोमें दुख पाते है । १०० । ३. भावके साथ द्रव्य लिंगकी व्याप्ति है द्रव्यके साथ भावकी नहीं
स. सा / ता वृ./ ४९४/५०८/१६ बहिरङ्गदव्यलिङ्गे सति भावलिगं भवति न भवति नियमो नास्ति, अभ्यन्तरे तु भावसिङ्गे सति सगपरिध्यागरूप यति भवस्येवेति बहिरंग द्रव्यलिग के होनेपर भावलिंग होता भी है, नहीं भी होता, कोई नियम नहीं है । परन्तु अभ्यन्तर भावलिग के होनेपर सर्व संग ( परिग्रह ) के त्याग रूप बहिरंग द्रव्यलिंग अवश्य होता ही है । मो. मा प्र /६/४६२ / १२ मुनि लिग धारे बिना तो मोक्ष न होय, परन्तु मुनि लिग धारे मोक्ष होय भी अर नाही भी होय ।
* पंचमकाल भरतक्षेत्रमें भी भाव लिंगकी सम्भावना -३० संयम / २
३. द्रव्यलिंग को कथंचित् गोणता व प्रधानता
१. केवळ बाह्य लिंग मोक्षका कारण नहीं
दे. वर्ण व्यवस्था / २ / ३ ( लिंग व जाति आदिसे ही मुक्ति भावना मानना मिथ्या है | )
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स. सा./मू / ४०८ - ४१० पासंडी लिगाणि व गिहिलिगाणि व बहुप्पयाराणि । चित्तु वदति मूढा लिगमिणं मोक्रवमग्गो त्ति ४०८ | दु हो मोरो लिगं ण देहनिम्ममा अरिहा टिगं ि दसणणाणचरिताणि संयंति । ४०६ ॥ णवि एस मोक्खमग्गो पासंडीमहाणि निगा ४९०१ बहुत प्रकारके मुनिसिनोको अथवा लिंगाणि गृहीनोको ग्रहण करके मूड (अज्ञानी) जन यह कहते है कि 'यह लिग मोक्षमार्ग है परन्तु लिंग मोक्षमार्ग नहीं है क्योंकि देव देहके प्रति निर्मम हुए लिंगको छोडकर दर्शन ज्ञान चारित्रका सेवन करते है । ४०६। मुनियो और गृहस्थोके लिग यह मोक्षमार्ग नही है । ४१०१
. आ / १०० सिग्गणं च सजवि जो कुणइ णिरत्थयं कुणदि । =जो पुरुष संयम रहित जिन लिग धारण करता है, वह सब निष्फल है ।
भा/७२ रामसंगजुत्ता जिराभाववरहियदव्य विग्गंथा न लहंति ते समाहि बोहि जिणसासणे विमले ॥७२॥ जो मुनि राग अर्थात् अन्तरग परिग्रहसे युक्त है, जिन स्वरूपकी भावनासे रहित है निर्गन्ध है। उसे जिनशासनमें कहीं समाधि और बोधकी प्राप्ति नही होती ॥७२॥ सश./मू / ८७ लिङ्ग' देहाश्रित दृष्ट देह एवात्मनो भव । न मुच्यन्ते भवात्तस्माते ये लिङ्गकृताग्रहा 1८७ = लिग (वेष ) शरीर के आश्रित है, शरीर ही आत्माका संसार है, इसलिए जिनको लिंगका ही आग्रह है वे पुरुष ससारसे नहीं छूटते
योसा अ/५/५६ शरीरमात्मनो भिन्न लिड्गं येन तदात्मकम् । न मुक्तिकारणं लिङ्गं जायते तेन तत्त्वत ॥५६॥ - शरीर आत्मासे भिन्न है और लिंग शरीर स्वरूप है इसलिए आत्मासे भिन्न होनेके कारण निश्चय नयसे लिंग मोक्षका कारण नहीं ॥५६॥
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२. केवल इव्यलिंग अकिंचिरकर व व्यर्थ है
मो. पा. / / ५७ णाणं चरितहीणं दसणहीण तबेहि सजुत्तं । अण्णेसु भावरहिय लिगरगहणेण कि सोक्ख ॥५७॥ - जहाँ ज्ञान चारित्रहीन है, जहाँ तपसे तो सयुक्त है पर सम्यक्त्व से रहित है और अन्य भी आवश्यकादि क्रियाओंमें शुद्ध भाव नही है ऐसे लिगके ग्रहण में कॉल है।७
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भा. पा / मू / ६,६८,१११ जाणहि भानं पढमं कि ते लिगेण भावरहिएण । पथिय । सिव पुरिपंथ जिणउवइट्ठ पयत्तेण । ६ । जग्गो पाव दुक्खं णग्गो संसारसागरे भमति । जग्गोण लहइ बोहि जिणभाव सेवहि उहिलिग अन्तरलिंगसुद्ध माग्यो माहिर लिगमक होइ फुड भावरहिया १११ है मुने मोक्षका मार्ग भाव हो से है इसलिए तू भाव ही को परमार्थभूत जान अंगीकार करना, केवल द्रव्यमात्र से क्या साध्य है। कुछ भी नहीं । ६। जो नग्न है सदा दुख पावे है, संसार में भ्रमता है। तथा जो नग्न है वह सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्रको नहीं पाता है सो कैसा है वह नग्न, जो कि जिन भावनासे रहित है । है सुनियर तुम्यन्तरकी शुद्धि पूर्वक चार प्रकारके लिंगको धारण कर। क्योकि भाव रहित केवल बाह्यलिंग अकार्यकारी है । १११ । ( और भी भापा / २८.३४.८१.२६)।
लिंगकी कथंचित् गोणता व प्रधानता
३. माव रहित द्रव्य लिंगका अत्यन्त तिरस्कार
मो. मा. / / ६१ बाहिरलिगेन जुदो अन्तरनिरहियपरियम्मी । सो चरिट्टी मोहविणासो साहू ६
लिग युक्त है और अभ्यन्तर लिंगसे रहित है और जिसमें परिवर्तन है । वह मुनि स्वरूपाचरण चारित्रसे भ्रष्ट है, इसलिए मोक्षमार्ग का विनाशक है।६१०
दे० लिंग / २ / २ (द्रव्यलिंगी साधु पापमोहित यति व पाप जीव है। नरक ब तिथंच गतिका भाजन है । )
भा पा / ४६,६६,७९,६० दंडयणयर सयलं डहिओ अब्भंतरेण दोसेण । जिलिगेण वि बाहू पडिओ सो रउरवे णरये |४| अयसाण भायणेण कि ते पानमतिने पैसुहासमच्छर मायाबहुज सवणेण । ६६ । धम्मम्मि णिप्पवासो दोसावासो य उच्छ्रफुल्लसमो । णिप्फलणिग्गुणयारो उसवणो णग्गरूवेण ॥ ७१ • मा जणरंजणकरणं बाहिरवयवेस तं कुण १० = बाहू नामक मुनि बाह्य जिन लिग युक्त था। तो भी अभ्यन्तर दोषसे दण्डक नामक नगरको भस्म करके सप्तम पृथिवीके रौरव नामक बिल में उत्पन्न हुआ |४|| हे मुनि । तेरे नग्नपनेसे क्या साध्य है जिसमे पैशुन्य, हास्य, मत्सर, माया आदि परिणाम पाये जाते है। इसलिए ऐसा ये नग्नपना पापसे मलिन और अपकीर्तिका स्थान है । ६६ । जो धर्म से रहित है, दोषोका निवास स्थान है। और इच्छु पुष्पके सदृश जिसमें कुछ भी गुण नहीं है, ऐसा मुनिना तो नग्नरूपम अर्था नाचने वाला भॉड सरीखा स्वाग है । ७१ । हे मुने । तू बाह्यव्रतका वेष लोकका रजन करने वाला मत धारण कर ||
न
मोक्षमार्ग मोक्षमार्ग
स.सा./ / ४११ नहीं है।
★ इयलिंगी की सूक्ष्म पहचान दे० सा * अन्य लिंगोको दिये गये घृणास्पद नाम
-दे० निन्दा | * पुलाक आदि साधु द्रव्यलिंगी नहीं - दे० साधु/५ ।
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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