Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 424
________________ ४१७ २. भावलिंगकी प्रधानता जिनेन्द्रदेव कथित ( श्रामण्यका अन्तरंग) लिंग है जो कि मोक्षका कारण है ।२०६। भा, पा./मू/१६ देहादिसंगरहिओ माणकसाएहि सयल परिचत्तो। अप्पा अप्पम्मिरओ स भावलिगी हवे साहू। जो देहादि के परिप्रहसे रहित, मान कषायसे रहित है, अपनी आत्मामें लीन है, वह साधु भाव लिगी है ।५६ मरण करे। तथा जिस श्राविकाने अपना परिग्रह कम किया है वह एकान्त वसतिकामें उत्सर्ग लिग-नग्नता धारण कर सकती है। * उत्सग व अपवाद लिंगका समन्वय-दे० अपवाद । २. भावलिंगकी प्रधानता ३. मुनि आर्यिका आदि लिंग निर्देश द पा/मू /१८ एवं जिणस्स रूवं बीय उक्किट्ठसावयाणं तु। अवरदिव्याण तइयं चउत्थ पुण लिंगदसणं णत्थि।१८।दर्शन अर्थात शास्त्र में एक जिन भगवानका जैसा रूप है वह लिग है। दूसरा उत्कृष्ट श्रावकका लिंग है और तीसरा जघन्य पदमें स्थित आर्यिका का लिंग है। चौथा लिंग दर्शनमें नहीं है। दे. बेद/७ ( आर्यिका का लिग सावरण ही होता है)। ४. उत्सर्ग व अपवाद लिंग निर्देश भ. आ/म् /७७-८१/२०७-२१० उस्सग्गिय लिगकदस्स लिंगमुस्सग्गियं तयं चेव । अववादियलिगस्स वि पसत्थमुवसग्गियं लिंग ७७। जस्स वि अव्यभिचारी दोसो तिहाणिगो विहारम्मि । सो विहु सथारगदो गेग्हेज्जोस्मुग्गिय लिगं ७८/ आवसधे वा अप्पाउग्गे जो वा महडिओ हिरिम। मिच्छजणे सजणे वा तस्स होज्ज अववादिय लिग ७१। अच्चेलक्कं लोचो वोसट्टसरीरदा समडिलिहणं । ऐसोही लिंगकप्पो चदुविही होदि उस्सग्गे ।८०। इत्थीवि य ज लिंग दि उस्सग्गियं व इदरं वा। त तह होदि हु लिंग परित्तमुवधि रेतीए ।८१ भ. आ./वि/८०/२१०/१३ लिङ्ग तपस्विनीना प्राक्तनम् । इतरासा पुसामित्र योज्यम् । यदि महद्धिका लज्जावती मिथ्यादृष्टि स्वजनाच तस्या प्राक्तनं लिङ्ग' विविक्ते आवसथे, उत्सर्गालिगवा सकलपरिग्रहत्यागरूपम् । उत्सर्गलिंग कथं निरूप्यते स्त्रीणामित्यत आह-तत् उत्सर्गलिड्ग तत्थ स्त्रीणा होदि भवति । परित्तं अल्पम् । उवधि परिग्रहम् । करेतीए कुर्वत्या'।१, संपूर्ण परिग्रहोका त्याग करना उत्सर्ग है। सम्पूर्ण परिग्रहोंका त्याग जब होता है उस समय जो चिह्न मुनि धारण करते है उसको औत्सर्गिक कहते है अर्थात नग्नताको औत्सर्गिक लिग कहते हैं। यतीको परिग्रह अपवादका कारण है अतः परिग्रह सहित लिगको अपवाद लिंग कहते है। अर्थात अपवाद लिंग धारक गृहस्थ जब भक्त प्रत्यारख्यानके लिए उद्यत होता है तब उसके पुरुष लिगमें कोई दोष न हो तो वह नग्नता धारण कर सकता है ।७७॥ २ जिसके लिगमें तीन दोष (दे० प्रव्रज्या/१/४ ) औषधादिकोसे नष्ट होने लायक नहीं है वह वसतिकामे नब सस्तरारूढ होता है तब पूर्ण नग्न रह सकता है। सस्तरारोहणके समयमें ही वह नग्न रह सकता है अन्य समयमे उसको मना है 1७८॥ ३ जो श्रीमान्, लज्जावान है तथा जिसके बन्धुगण मिथ्यात्व युक्त हैं ऐसे व्यक्तिो एकान्त रहित वसतिकामें सवस्त्र ही रहना चाहिए ।७४॥ ४, वस्त्रों का त्याग अर्थात् नग्नता, लोच -हाथसे केश उखाड़ना, शरीरपरसे ममत्व दूर करना, प्रतिलेखन प्राणि दयाका चिह्न-मनरपिच्छका हाथमें ग्रहण, इस तरह चार प्रकारका औत्सर्गिक लिंग है 1001 ५. परमागम में स्त्रियो अर्थात् आर्यिकाओका और श्राविकाओंका जो उत्सर्गलिंग अपवाद लिंग कहा है वही लिंग भक्तप्रत्यारण्यानके समय समझना चाहिए। अर्थात् आयिकाओंका भक्तप्रत्याख्यानके समय उत्सर्ग लिंग विविक्त स्थानमें होना चाहिए अर्थात वह भी मुनिवत् नग्न लिंग धारण कर सकती है ऐसी गमाज्ञा है।६.परन्तु श्राविकाका उत्सर्ग लिग भी है और अपवाद लिग भी है। यदि वह श्राविका संपत्ति वाली, लज्जावती होगी, उसको बाधवगण मिथ्यात्वी हो तो वह अपवाद लिग धारण करे अर्थात् पूर्ववेषमें ही १. साधु लिंगमें सम्यक्त्वका स्थान भ, आ./म् /७७०/8RE. लिगरगहण च देसण विहणं जो कुणदि णिरत्थयं कुणदि ७७०/- सम्यग्दर्शन रहित लिग अर्थात मुनि दीक्षा धारण करना व्यर्थ है। इससे मुक्तिकी प्राप्ति नहीं हो सकती। (शी. पा./म् 1 )। 1. सा./मू./८७ कम्मु ण खवेइ जो हू परब्रह्म ण जाणेइ सम्मउमुक्को । अत्यु ण तत्थु ण जीवो लिंग घेत्तूण किं करई १८७१ = जो जीव परब्रह्मको नही जानता है, और जो सम्यग्दर्शनसे रहित है। वह न तो गृहस्थ अवस्थामें है और न साधु अवस्थामें है। केवल लिगको धारण कर क्या कर सकते है। कर्मों का नाश तो सम्यक्त्वपूर्वक जिन लिंग धारण करनेसे होता है। दे० विनय/४/४ (द्रव्य लिंगी मुनि अर्सयत तुल्य है।) रा वा./६/४६/११/६३७/१५ दृष्ट्या सह यत्र रूपं तत्र निर्ग्रन्थव्यपदेश' न रूपमात्र इति । -जहाँ सम्यग्दर्शन सहित निग्रंथरूप है वही निर्ग्रन्थ है। ध.१/१,१.१४/१७७/५ आप्तागमपदार्थेष्वनुत्पन्नश्रद्धस्य त्रिमूढालीढचेतस' संयमानुपपत्ते । सिम्यक् ज्ञात्वा श्रद्धाय यत संयत इति व्युत्पत्तितस्तदवगते । आप्त, आगम, पदार्थों में जिस जीवके श्रद्धा उत्पन्न नहीं हुई है, तथा जिसका चित्त मूढताओसे व्याप्त है, उसके संयमकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। • भले प्रकार जानकर और श्रद्धान कर जो यम सहित है उसे संयत कहते है। सयत शब्दकी इस प्रकार व्युत्पत्ति करनेसे यह जाना जाता है कि यहाँपर द्रव्य संयमका प्रकरण नहीं है ( और भी दे० चारित्र/३/८)। प्र. सा./त प्र./२०७ कायमुत्सृज्य यथाजातरूप आनम्ब्य व्यवतिष्ठमान उपस्थितो भवति, उपस्थितस्तु सर्वत्र समग्दृष्टित्वात्साक्षाच्छ्रमणो भवति । कायका उत्सर्ग करके यथाजात रूपबाले स्वरूपको... अवलम्बित करके उपस्थित होता है। और उपस्थित होता हुआ, सर्वत्र समादृष्टित्वके कारण साक्षात श्रमण होता है। २. माव लिंग ही यथार्थ लिंग है स. सा /मू /४१० ण वि एस मोख मग्गो पासडी गिहिमयाणि लिंगाणि । दसणणाणचरित्ताणि मोक्खमग्ग जिणा विति ।४१०१ (न खलु द्रव्यलिड्ग मोक्षमार्गः )।-मुनियो और गृहस्थोंके लिग यह मोक्षमार्ग नहीं है। ज्ञान दर्शन चारित्रको जिनदेव मोक्षमार्ग कहते है।४१०। ( द्रव्यलिंग वास्तवमें मोक्षमार्ग नही है )। मू. आ/१००२ भावसमणा हु समणा ण सेससमणाण सुग्गई जम्हा। . १००२ भाव श्रमण है वे ही श्रमण है क्योकि शेष नामादि श्रमणोंको सुगति नहीं होती। लि पा.मू/२ धम्मेण होइ लिंग ण लिगमत्तेण धम्मसंपत्ती । जाणेहि भावधम्मं कि ते लिगेण कायवो श-धर्म सहित लिग होता है, लिंग मात्रसे धर्मकी प्राप्ति नहीं होती। इसलिए हे भव्य । तु भावरूप धर्मको जान, केवल लिंगसे क्या होगा तेरे कुछ नहीं। भा. पा./मू./२,७४,१०० भावो हि पढमलिग ण दलिग च जाणपरमत्थ । भावो कारणभूदो गुणदोसाणं जिणा विति ।। भावो वि दिवसिबसुक्खभायणे भावरज्जिओ सवणो। कम्ममलमलिणचित्तो तिरियालयभायणो पावो ।७४ पावति भावसवणा कल्लाणपर पराई सोक्खाइ। दुक्खाई दबसवणा णरतिरियकुदेवजी भा० ३-५३ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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