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लब्धि अक्षर
६. एकान्तानुवृद्धि संयम व संयमासंयम लब्धिस्थानोंके लक्षण
६/१६ - ८, १४/२७३ / १८ / विशेषार्थ-सयतासंयत होनेके प्रथम समय से लेकर जो प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि होती है, उसे एकान्तानुवृद्धि कहते हैं । (अन्यत्र भी यथायोग्य जानना ) ।
७. जघन्य व उत्कृष्ट संयम व संयमासंयम कब्धिका स्वामित्व
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१/१६-०१४/२०१/१ उास्सिया नदी कस्स संजदासंजदस्स सव्वविशुद्धस्स से काले सजमगाहयस्स । जहणणया लद्धी कस्स । सम्पा ओग्गस किलिट् स से काले मिच्छत गाहयस्स सर्वविशुद्ध और अनन्तर समयमे संयमको ग्रहण करनेवाले संयतासयत के उत्कृष्ट सयमासयम लब्धि होती है । जघन्य लब्धि के योग्य सक्लेशको प्राप्त और अनन्तर समयमे मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले संयतासंयत के जन्य सयमासंयम सधि होती है व सा / / १८४ / २३५) ।
ध. ६/१,६ - ८,१४/२८५ - २०६/६ एत्थ जहण तप्पा ओग्गस किलेसेण सामाइट्ठाणाभिमुहचरिमसमए होदि । उक्तस्सं सव्व विशुद्धपरिहारमुद्धिसदस्य 1 सामाइयच्छेदोवद ठावनियाम उस्सयसमा सम्पविद्धस्स से काले सुमसाइसज डिज्जमागस्स । एदेसि जहां मिच्यन्त गच्छतचरिमसमर होदि । सुहुमसापराइयस्स एदाणि सजमठाणाणि । तत्थ जहणं अणिय ठोठा से काले पतिस मस्स होदि उस्कर स्त्रीसागुणं परिवज्जमागरस चरिमसमर भवदि । = जघन्य संयमलब्धि स्थान तत्प्रायोग्य संक्लेश से सामायिकछेदोपस्थापना सयम के अभिमुख होनेवालेके अन्तिम समय में होता है। और उत्कृष्ट सर्व विशुद्ध परिहार विशुद्ध संयतके होता है । सामायिक छेदोपस्थापना सयमियोका उत्कृष्ट सयम स्थान अनन्तर कालमे सर्व विशुद्ध सूक्ष्म-साम्परायिक संयमको ग्रहण करने वालेके होता है। इनका जघन्य मिथ्यात्वको प्राप्त होने वाले के अन्तिम समय में होता है। इसी कारण उसे यहाँ नहीं कहा है। सूक्ष्म-साम्परायिक संयमीके ये संयम स्थान है उनमें जघन्य सयम स्थान अनन्तर कालमे अनिवृत्तिकरण गुणस्थानको प्राप्त करनेवाले सूक्ष्मसाम्परायिक समीके होता है, और उत्कृष्ट स्थान क्षीणकषाय गुणस्थानको प्राप्त होनेवाले सूक्ष्मसाम्परायिक समीके अन्तिम समय में होता है ( सा./ ए / २०२-२०४)
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दे० लब्धि /२/२ (सात प्रकृतियोके क्षयसे अविरतके जघन्य तथा घाति कर्म के क्षमसे परमात्मा कृष्टाधिक लब्धि होती है।
८. भेदातीत कधि स्थानोंका स्वामित्व
घ. ६/१.१-८/१४/२८६/६ एवं जहारवादसंजमट्ठाण उनसंतखीणजोगि जोगीणमैक्क चैन स्मदिरित होदि. कसायाभावादो । = यह यथाख्यात संयम स्थान उपशान्तमोह क्षीणमोह, सयोगिकेवली और अयोगिकेवली, इनके एक ही जघन्य व उत्कृष्टके भेदोसे रहित होता है, क्योंकि इन सत्रको पायोका अभाव है लब्धि अक्षर० अर
लब्धि अपर्याप्त दे० लब्धि विधान व्रत विधि तीन प्रकारसे वर्णन की गयी है - प्रथम विधि-भादो, माघ व चैत्रकी शु. १, ३ को उपवास तथा २, ४ को पारणा करे। इस प्रकार छह वर्ष पर्यन्त करे । तथा 'ओ ही महावीराय नमः' इस मन्त्रका त्रिकाल जाप करे । ( व्रत
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लांतव
विधान ४) द्वितीय विधि-तीन वर्ष पर्यन्त भादो माघ व चैत्र मासमें कृ. १५ को एकाशन, १-३ को तेला तथा ४ को एकाशन करे तथा उपरोक्त मन्त्रका त्रिकाल जाप करे । ( व्रतविधान से पू. २४) तृतीय विधिप्रतिवर्ष भादो माघ व चैत्रमें शु. १, ३ को एकाशन और २ को उपवास । तथा उपरोक्त मन्त्रका त्रिकाल जाप करे (विधान से पृ ५४ ) ।
लब्धि संवेग - दे० संवेग |
लब्धिसार आ. नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ( ई. श. ११ का पूर्वार्ध) द्वारा रचित मोहनीय कर्म के उपशम विषयक ३६१ गाया प्रमाण प्राकृत गाथाबद्ध ग्रन्थ है । इस ग्रन्थकी नेमिचन्द्रकृत संस्कृत सजीवनी टोका तथा प टोडरमल (ई. १७३६ ) कृत भाषा टीका प्राप्त है । (जै./१/३८१, ४१२) (ती / २ / ४२३, ४३२) | लयनकर्म-दे०/४।
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ललितकीर्ति
१. यश कीर्ति न ३ के गुरु और रत्ननन्दि द्वि. के शिक्षा गुरु । समय- तदनुसार वि. १२७१ (ई. १२१४) । २ काष्ठा सभी गति के शिष्य एक मन्त्रवादी कृतिमहापुराण टीका. नन्दीश्वर व्रत आदि २३ कथाये। टोका का रचनाकाल वि. १२८५६ (ती / ३ / ४५२) ।
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ललितांगदेव - म. प्र./ सर्ग / श्लोक "सन्देखनाने प्रभाव उत्पन्न ऐशान स्वर्गका देव (५ / २३१-२५४) नमस्कार मन्त्र के उच्चारण पूर्वक इसने शरीर छोटा (६/२४-१५) वह ऋषभनाथ भगवान्का पूर्वका आठवाँ भव है - दे० ऋषभदेव । लल्लक - षष्ठ नरकका तृतीयपटल- दे० नरक / ५ /११ | लव- १. कालका प्रमाण विशेष ६० गणित / I / १/४२ प.पु / सर्ग / श्लोक "परित्यक्त सीताके गर्भ से पुण्डरीकके राजा वज्रजंधके घर उत्पन्न रामचन्द्र पुत्र थे ( १००/१७-१८ ) । सिद्धार्थ नामक क्षुल्लकसे विद्या प्राप्त की ( १००/४७) । नारदके द्वारा रामकी प्रशंसा तथा किसी सीता नामक स्त्रीके साथ उनका अन्याय सुनकर रामसे युद्ध किया (१०२/४५) राम सक्ष्मणको युद्धमें हार जाना। अन्तमें पिता पुत्रका मिलाप हो गया । ( १०३ / ४१,४७ ) । अन्तमे मोक्ष प्राप्त किया (१२३ / २ ) | लवणतापि
- आकाशोपपन्न देव - दे० देव / II / ३ । लवणसागर-१ मध्य लोकका प्रथम सागर दे० लोक /४/१ । २. रा.वा./२/०/२/१६६/२६ लवणरसेनाम्बुना योगास समुद्रो यणोद इति संज्ञायते । = खारे जलवाला होनेसे इस समुद्रका नाम लवणोद पड़ा है। (रा. बा./१/१३/८/१६४/१०) ।
लवपुर वर्तमान लाहौर (म. प्र. ४६/५. पन्नालाल ) |
लांगल - सनत्कुमार स्वर्गका पाँचवाँ पटल व इन्द्रक - दे० स्वर्ग /५/३ | लांगलस्वस्तिका - भरतक्षेत्रस्थ आर्यखण्डकी एक नदी - दे०
मनुष्य / ४०
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लांगलावर्त - १. पूर्व विदेहका एक क्षेत्र - ३० लोक ५ / २ । २ पूर्व विदेहस्थ नलिन वक्षारका एक कूट- दे० लोक ५/४१३ पूर्व विदेहके नलिन वक्षारपर स्थित लांगलावर्त कूटका रक्षकदेव - दे० लोक /५/४ लांगलिकागति ०२
लांतव -१ कल्पवासी देवोका एक भेद-दे० स्वर्ग / ३ । २ लातव देवस्थान दे० स्वर्ग / २ / ३१ कम स्वर्गीका सातयों क - ३० स्वर्ग /५/२ । ४ लातत्र स्वर्गका प्रथम पटल व इन्द्रक - दे० स्वर्ग २२२ ॥
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