Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 426
________________ लिंग ४१९ ४.द्रव्य व भावलिंगका समन्वय होता धारण करने सवा स्पर्शनात क्रिया, वीर्याचार, धारण किय महागुण मुनिरत्याग करनेसे ४. द्रव्य लिंगकी कथंचित् प्रधानता भा.पा/टी./२/१२६ पर उद्धृत-उक्त चेन्द्रनन्दिना भट्टारकेण समयभूषणप्रवचने-द्रव्य लिङ्ग समास्याय भावलिङगी भवेद्यति । विना तेन न बन्दा स्थान्नानावतधरोऽपि सन् १॥ द्रव्यलिङ्गमिद ज्ञेयं भावलिङ्गस्य कारणम् । तदध्यात्मकृतं स्पष्ट न नेत्रविषयं यत ।। -इन्द्रनन्दि भट्टारकने समय भूषण प्रवचन में कहा है कि द्रव्यलिंगको भले प्रकार प्राप्त करके यति भावलिगी होता है। उस द्रव्यलिगके बिना वह वन्द्य नहीं है, भले ही नाना वतोंको धारण क्यों न करता हो। द्रव्यको भावलिंगका कारण जानो । भावलिंग तो केवल अध्यात्म द्वारा ही देखा जा सकता है, क्योकि वह नेत्रका विषय नहीं है। दे० मोक्ष//५ (निर्ग्रन्थ लिगसे ही मुक्ति होती है।) दे० वेद/७ ( सवन होनेके कारण स्त्रीको संयतत्व व मोक्ष नहीं होता।) ५. मरत चक्रीने भी द्रव्यलिंग धारण किया स. सा./ता. वृ/४१४/३०८/२० येऽपि घटिकाद्वयेन मोक्षं गता भरतचक्रवादयस्तेऽपि निग्रंथरूपेणैव । परं किन्तु तेषा परिग्रहत्यागं लोका न जानन्ति स्तोककालत्वादिति भावार्थ । जो ये दीक्षाके बाद घडीकाल में ही भरत-चक्रवर्ती आदिने मोक्ष प्राप्त क्यिा है, उन्होने भी निर्ग्रन्थ रूपसे ही ( मोक्ष प्राप्त किया है)। परन्तु समय स्तोक होनेके कारण उनका परिग्रह त्याग लोग जानते नहीं है। प.प्र./टी./२/५२ भरतेश्वरोऽपि पूर्व जिनदीक्षा प्रस्तावे लोचानन्तर हिंसादिनिवृत्तिरूप महावतरूपं कृत्वान्तर्मुहूर्ते गते . निजशुद्धारमध्याने स्थित्वा पश्चान्निविक्ल्पो जात' । पर किन्तु तस्य स्तोककालस्वान्महाव्रतप्रसिद्धिर्नास्ति। =भरतेश्वरने पहले जिनदीक्षा धारण की, सिरके केश लुंचन किये, हिंसादि पापोंकी निवृत्ति रूप 'पच महाबत आदरे। फिर अन्तर्मुहूर्त में निज शुद्धारमाके ध्यानमें ठहरकर निर्विकल्प हुए। तब भरतेश्वरने अन्तर्मुहूर्तमें केवलज्ञान प्राप्त किया परन्तु उसका समय स्तोक है,इसलिए महाव्रतकी प्रसिद्धि नहीं हुई। (द्र. स /टी./५७/२३१/२ ) । मोक्षके साधन रत्नत्रय उसका नग्नता चिह्न है । इसमें जगत प्रत्ययता-सर्व जगतकी इसके ऊपर श्रद्धा होना, आत्मस्थितिकरण गुण है ।श ग्रथ त्याग-परिग्रह त्याग, लाघव-हल्कापन, अप्रतिलेखन, परिकम्वर्जना अर्थान् वस्त्र विषय धोनादि क्रियासे रहितपन, गतभयत्व, परिषहाधिवासना आदि गुण मुनि लिंगमें समाविष्ट हुए है।३। निर्वस्त्रता विश्वास उत्पन्न कराने वाली है, अनादर, विषयजनित सुखोंमें अनादर, सर्वत्र आत्मवशता तथा शीतादि परीषहों को सहन करना चाहिए ऐसा अभिप्राय सिद्ध होता है।४। जिनरूप-तीर्थक्रोने जो लिग धारण किया वही मुमुक्षुको धारण करना चाहिए, बीर्याचार, रागादि दोष परिहरण वस्त्रका त्याग करनेसे सर्व रागादि दोष नहीं रहते सब महागुण मुनिराजको मिलते हैं।८। स्पर्शनादि इन्द्रियाँ अपने विषयों में समिति युक्त प्रवृत्ति करती है। स्थान क्रिया, आसन क्रिया, शयनक्रिया, गमनक्रिया. इत्यादि कार्यों में समिति युक्त वर्तते है । गुप्तिको पालनेवाले मुनि शरीरसे प्रेम दूर करते है। इस प्रकार अनेकों गुण नग्नतामें है ।६। अपवादलिंगधारी ऐलक आदि भी अपनी चारित्र धारणकी शक्तिको न छिपाता हुआ कर्म मल निकल जानेसे शुद्ध होता है क्योकि वह अपनी निन्दा गर्दा करता है 'सम्पूर्ण परिग्रहका त्याग करना ही मुक्तिका मार्ग है परन्तु मेरे परिषहों के डरके कारण परिग्रह है' ऐसा मनमें पश्चात्ताप पूर्वक परिग्रह स्वरूप करता है अत उसके कर्म निर्जरा होकर आत्मशुद्धि होती है ।८७१ ( और भी दे० अचेलकत्व )। २. द्रव्य लिंगके निषेधका कारण व प्रयोजन स. सा./आ/४१०-४११ न खलु द्रव्य लिङ्ग मोक्षमार्ग , शरीरावि तत्वे सति परद्रव्यत्वात् । दर्शनशानचारित्राण्येव मोक्षमार्ग आत्मालितत्वे सति स्वद्रव्यत्वात् ।४१०। तत. समस्तमपि द्रव्यलिङ्ग त्यक्त्वा दर्शनज्ञानचारित्रे चैव मोक्षमार्गत्वात् आत्मा योक्तव्य इति। - द्रव्य लिग वास्तव में मोक्षमार्ग नही है, क्योकि वह शरीराश्रित होनेसे परद्रव्य है। दर्शन-ज्ञान-चारित्र ही मोक्षमार्ग है, क्योकि वे आत्माश्रित होनेसे स्वद्रव्य है। इसलिए समस्त द्रव्यलिगका त्याग करके दर्शन ज्ञान चारित्रमें ही वह मोक्षमार्ग होनेसे आत्माको लगाना योग्य है । स. सा./ता, वृ./४१४/५०८/५ अहो शिष्य । द्रव्य लिङ्ग निषिद्धमेवेति त्वं मा जानीहि कि तु भावलिनरहिताना यतीना संबोधनं कृतं । कथ। इति चेत्, अहो तपोधना. । द्रव्यलिङ्गमात्रेण सतोष मा कुरुत किन्तुद्रव्यलिङ्गाधारेण निर्विकल्पसमाधिरूपभावना कुरुत। .. भावलिङ्गरहित द्रव्यलिङ्ग' निषिद्ध न च भावलिङ्गसहित । क्थ । इति चेत् द्रव्यलिङ्गाधारभुत्तो योऽसौ देहस्तस्य ममत्त्व निषिद्ध हे शिष्य । द्रव्यलिंग निषिद्ध ही है ऐसा तू मत जान । कितु • भाव लिगसे रहित यतियोंको यहाँ सबोधन किया गया है। वह ऐसे कि-हे तपोधन । द्रव्य लिग मात्रसे सन्तोष मत करो किन्तु द्रव्यलिगके आधारसे.. निर्विकल्प समाधि रूप भावना करो। भाव लिग रहित द्रव्यलिंग निषिद्ध है न कि भावलिग सहित । क्योकि द्रव्य लिगका आधारभूत जो यह देह है, उसका ममत्व निषिद्ध है। स, सा/प जयचन्द/४११ यहाँ मुनि श्रावकके व्रत छुडानेका उपदेश नही है जो केवल द्रव्यलिगको हो मोक्षमार्ग मानकर भेष धारण करते है उनको द्रव्यलिंगका पक्ष छडाया है कि वेष मात्रसे मोक्ष नहीं है। (भा, पा./प जयचन्द ।११३१) ३. ग्यलिंग धारनेका कारण पं वि /१/४१ म्लाने क्षालनत: कुतः कृतजलाद्यारम्भत सयमो नष्टे व्याकुलचित्तताथ महतामप्यन्यतः प्रार्थनम् ।। कौपीनेऽपि हते परैश्च झटिति क्रोध' समुत्पद्यते तन्नित्यं शुचिरागहृत् शमवता वस्त्रं ककुम्मण्डलम् ॥४१॥ न वस्त्रके मलिन हो जानेपर उसके धोने के लिए ४. द्रव्य व भाव लिंगका समन्वय १. रत्नत्रयसे प्रयोजन हैनग्नताकी क्या आवश्यकता भ. आ./मू./८२-८७/२११-२२२ नन्वईस्य रत्नत्रयभावनाप्रकर्षेण मृतिरुपयुज्यते किममुना लिङ्ग विकल्पोपादानेनेत्यस्योत्तरमाह-जत्तासाधणचिन्हकरण खु जगपच्चयादाठिदिकरणं । गिहभावविवेगो वि य लिगग्गहणे गुणा होति ।८। गंथच्चाओ लाघवमप्पडिलिहणं च गदभयत्तं च । ससज्जणपरिहारो परिकम्म विवज्जणा चेव ।३। विस्सासकर रूवं अणादरो विसयदेहसुक्खेसु । सव्वस्थ अपवसदा परिसहअधिवासणा चेव १८४१ जिणपडिरूवं विरियायारो रागादिदोसपरिहरणं । इच्चेवमादिबहुगा अच्चेलक्के गुणा होति । इय सबसमिदिरणो ठाणासणसयणगमणकिरियासु । णिगिणं गुत्तिमुवगदो पग्गहिददर परक्कमदि ।६। अवधादिय लिगकदो विसयासत्ति अगृहमाणो य। णिदणगरहणजुत्तो सुज्झदि उवधि परिहर तो।८७) -प्रश्न-जो भक्त प्रतिज्ञा योग्य है उसको रत्नत्रयका प्रकर्ष करके मरना योग्य है । उत्सर्ग लिंग अथवा अपवाद लिग धारण करके मरना चाहिए ऐसा हठ क्यों। उत्तर-नग्नता यात्राका साधन है। गृहस्थ वेषसे उनके विशिष्ट गुण ज्ञात न होनेसे गृहस्थ उनको दान न देगे, तब क्रमसे शरीरस्थिति तथा रत्नत्रय व मोक्ष की प्राप्ति कैसे होगी । अत. नग्नता गुणीपनेका सूचक है इससे दानादिकी प्रवृत्ति होती है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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