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लाक्षा वाणिज्यकर्म
लाक्षा वाणिज्यकर्म - दे० सावध ३५०
लाघव-भ. बा./वि./२४४/४६६/५ शरीरस्य लाघवगुणो माहोन तपसा भवति । सधुशरीरस्य आवश्यकक्रिया शुकरा भवन्ति । स्वाध्यायध्याने चाक्लेश संपाद्य भवतः । तपश्चरणसे देहमें लाघव गुण प्राप्त होता है अर्थात् शरीरका भारीपन नष्ट होता है जिससे आवश्यकादि क्रिया सुकर होती है, स्वाध्याय और ध्यान क्लेशके बिना किये जाते है ।
लाट — गुजरात के प्राचीन काल में तीन भाग थे। उनमें से गुजरातका मध्य व दक्षिण भाग लाट कहलाता था । ( म. पु. प्र. / ४६ । पन्नालाल ) ( क. पा. १२/प्र. ७३)
लाटी संहिता - राजमहीने ई. १५०४ में रचा था। यह -षं श्रावकाचार विषयक ग्रन्थ है। इसमें ७ सर्ग और कुल १४०० श्लोक हैं । (तो /४/८०) ।
लड़बागड़ संघ - ० इतिहास ६/७ दे० /
लाभ
१. काम सामान्यका लक्षण
घ. ११/५.२.६२/३३४/२ इच्चिदट्ठोबली साहो णाम बताहो। इच्छित अर्थको प्रातिका नाम लाभ है १२०/३८६/१३) और इससे विपरीत अर्थात् न होना अलाभ है। 1
विवरीयो घ. १३/२-२० अर्थको प्राज्ञिका
२. क्षायिक लाभका लक्षण
स.सि./२/४/१६४/५ नामान्तरायस्याशेषस्य निरासात् परित्या हार क्रिपाणी केवलिना यत शरीरबलाधानहेतवोऽन्यमनुजासाधारणाः परमशुभाः सूक्ष्मा अनन्ता प्रतिसमयं पुद्गला संबन्धमुपयान्ति स क्षायिको लाभ' | = समस्त लाभान्तराय कर्मके क्षयसे करलाहार क्रियासे रहित केवलियोंके क्षायिक लाभ होता है जिससे उनके शरीरको बल प्रदान करनेमें कारणभूत दूसरे मनुष्योंको असाधारण अर्थाव कभी प्राप्त न होनेवाले परम शुभ और सूक्ष्म ऐसे अनन्त परमाणु प्रति समय सत्रन्धको प्राप्त होते है । (रा. वा. / २ / ४/२/ १०४ / ३० )
३. क्षायिक लाम सम्बन्धी शंका समाधान
घ. १४/५०६, १८/१७/३ अरहंता नदि खीणताहंतराच्या तो तैसि सम्ब त्योवलभो किण्ण जायदे। सच्च, अत्थि तेसि सव्त्रत्थोवल भी, गायत्ताणत्तादो । प्रश्न- अरहन्तोके यदि लाभान्तराय कर्मका क्षय हो गया है तो उनको सब पदार्थों की प्राप्ति क्यो नही होती ? उत्तर - सत्य है, उन्हे सब पदार्थों की प्राप्ति होती है, क्योंकि उन्होंने अशेष भुवनको अपने आधीन कर लिया है। लाभांतराय कर्म दे० अन्तराय ।
लिंगसाधु आदिके बाह्य वेषको लिंग कहते है। जैनाम्नाय में वह तीन प्रकारका माना गया है- साधु, आर्यिका व उत्कृष्ट श्रावक । ये तीनों ही द्रव्य व भावके भेदसे दो-दो प्रकार के हो जाते हैं । शरीरका वैष द्रव्यलिग है और अन्तरंगी वीतरागता भावलिग है। भावसिंग सापेक्ष ही द्रव्यलिग सार्थक है अन्यथा तो स्वांग मात्र है ।
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१. लिंग सामान्य निर्देश
१. लिंग शब्दके अनेक अर्थ
न्या. वि. /टी /२/१/१/८ साध्याविनाभावनियमनिर्णयै कलक्षणं वक्ष्यमाणं लिङ्गम् । = साध्य के अविनाभावी पनेरूप नियमका निर्णय करना ही जिसका लक्षण है वह लिंग है ।
लिंग
ध. १/१.१.३५/२५०/4] उपभोक्तुरात्मनोऽनिवृत्तकर्मसंमन्यस्य परमेश्वरशक्तियोगादिन्द्रमहंस स्वयमर्थाच गृहीतुमसमर्थस्योपयो गोपकरणं लिहमिति कथ्यते। जिसके कर्मो का सम्बन्ध दूर नही हुआ है, जो परमेश्वररूप शक्तिके सम्बन्धसे इन्द्र सज्ञाको धारण करता है. परन्तु जो स्वत पदार्थोंको ग्रहण करनेमें असमर्थ है. ऐसे उपभोक्ता आत्माके उपयोगके उपकरणको लिंग कहते है ० इंद्रिय/१/१) । ध. १२/२.२.४३/२४५/६ शिक्वर्ण लिंग अग्नहाय लिख लिगका लक्षण अन्यथानुपपत्ति है।
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भ. आ/वि./१०/११४/२ शिक्षादिक्रियाया भक्ताश्याख्यानक्रियाभूताया योग्यपरिकरमादर्शयितु लोपादानं कृतम् कृतपरिक हि कर्ता क्रियासाधनायोद्योगं करोति लोके । तथा हि घटादिप्रकरणे प्रवर्तमाना दृढबद्धकक्षा कुलाला दृश्यन्ते । - शिक्षा, विनय समाधि वगैरह क्रिया भक्त प्रत्याख्यानकी साधन सामग्री है। उस सामग्रोका यह लिंग योग्य परिकर है यह सूचित करनेके लिए बहके अनन्तर लिगका विवेचन किया है। सर्व परिकर सामग्री जुटनेपर जैसे कुंभकार घट निर्माण करता है वैसे अर्ह-योग्य व्यक्ति भी साधन सामग्री से युक्त होकर सल्लेखनादि कार्य करनेके लिए सन्नद्ध होता है । लिग शब्द चिह्नका वाचक है।
प्र. सा./त.प्र./ १७२ लिङ्गैरिन्द्रियै लिङ्गादिन्द्रियगम्याद धूमादग्नेरिवलिनोपयोगायले. लिस्य मेहनाकारस्य नि स्त्रीपुन्नपुंसक वेदानां .. लिङ्गानां धर्मध्वजानां .. लिड्गं गुणो ग्रहणमोघोलि पर्यायो ग्रहण नवोघो... सिद्ध प्रत्यभिज्ञान१.मोके द्वारा अर्थात् इन्द्रियो के द्वारा २ जैसे ऐसे अग्नि ग्रहण (ज्ञान) होता है, उसी प्रकार लिंग द्वारा अर्थात इन्द्रियगम्य (इन्द्रियो जानने योग्यचिह्न) द्वारा ३. लिग द्वारा अर्थात उपयोग नामक लक्षण द्वारा; ४ लिगका अर्थात ( पुरुषादिकी इन्द्रियका आकार ) का ग्रहण; ५. लिगका अर्थात स्त्री, पुरुष, नपुंसक वेदोंका ग्रहण; ६. लिंग अर्थात् गुणरूप ग्रहण अर्थात् अर्थावमोचन अर्थात पर्यायरूप ग्रहण अर्थाय अर्थावबोध विशेषः ८ सिंग अर्थात प्रत्यभिज्ञानका कारण रूप ग्रहण अर्थात अर्थाविषोध सामान्य
स्त्री पुरुष व नपुंसक लिंग दे० द
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१. इव्य भाव लिंग निर्देश
म्. आ./ १०८ अच्चेलक्क लोचो बोसट्टसरीरदा य पडिलिहणं । एसो हु लिगप्पो चदुविधो होदि णादव्वो । १०८१ = अचेलकत्व, केशलोच, शरीरसंस्कारका रयाग और पौधी ये चार सिगके भेद जानने चाहिए ।
प्र. सा./ /२००-२०६ नधजादरूवाद उपादि ससुगं सुधं । रहि हिसादी प२ि०५ । मुखारं भवितं जुत्त उवजोगजोगसुद्धीहि । लिगं ण परावेक्खं अपुणभवकारणं जेहं | २०६ | जन्म समयके रूप जैसा रूपवाला, सिर और दाढीमूँछ के बालोका लोच किया हुआ, शुद्ध ( अकिचन ) हिसा दिसे रहित और प्रतिकर्म ( शारीरिक शृंगार से रहित सिंग ( श्रामण्यका बहिर चिह्न) है | २०३॥ सू (ममरण) और आरम्भ रहित, उपयोग और योगकी शुद्धिसे युक्त तथा परकी अपेक्षासे रहित ऐसा
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