Book Title: Jainendra Siddhanta kosha Part 3
Author(s): Jinendra Varni
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 414
________________ रोचक शैल पात्रको सत्यपि तद्वशवर्तितां वजहतो जल्लोषधिप्राप्याद्य तपोविशेषयोगे सत्यपि शरीरनिस्पृहत्यात तिकारानपेक्षिण रोगपरिहसनमवगन्तव्य यह सब प्रकारके अशुचि पायका आभ्य है, यह अनित्य है, और परित्राण से रहित है. इस प्रकार इस शरीर में सकल्प रहित होनेसे जो विगत संस्कार है, गुणरूपी रत्नोंके संचय, वर्धन, संरक्षण और सधारणका कारण होनेसे जिसने शरीरकी स्थिति विधानको भले प्रकार स्वीकार किया है, धुरको ओगन लगाने के समान या वणपर लेप करनेके समान जो उपकारवाले बहुत आहारको स्वीकार करता है, विरुद्ध आहार- पानके सेवनरूप विषमता से जिसके वातादि विकार रोग उत्पन्न हुए है, एक साथ सैकडो व्याधियोंका प्रकोप होनेपर भी जो उनके आधीन नहीं हुआ है तथा तपोविशेषसे जल्लोषधि और प्राप्ति आदि अनेक ऋद्धियोका सम्बन्ध होनेपर भी शरीरसे निस्पृह होनेके कारण जो उनके प्रतिकारकी अपेक्षा नहीं करता उसके रोगपरीषह सहन जानना चाहिए। (रा. वा./६/६/२१/६११/२४), (चा, सा / १२४ / ३) -६० लोक/२/२८ रोचक शैल - भद्रशाल बनस्थ एक दिग्गजेन्द्र पर्वत । रोट तीज व्रत - त्रिलोक तीजवत् । रोम - औदारिक शरीर में रोमोंका प्रमाण- दे० औदारिक / १ । रोमश - एक क्रियावादी- दे० क्रियावाद । रोमहर्षणी - एक विनयवादी - दे० वैनयिक | ४०७ रोषन साता ६ क्रोधिनस्य (सस्टीमपरिणामोशेष | क्रोधी पुरुषका तीन परिणाम वह रोष है। रोहिणी - १. भगवाद अजितनाथकी शासक पक्षिणी-दे० यह २. एक विद्या- दे० विद्या । ३. एक नक्षत्र - दे० नक्षत्र । रोहिणी व्रत - प्रतिवर्ष रोहिणी नक्षत्रके दिन उपवास करे । तथा उस दिन वासुपूज्य भगवान् की पूजन तथा नमस्कार मन्त्रका त्रिकाल जाप्य करे । इसका अपरनाम अशोक रोहिणी है । (बसु, श्रा / ३६३२६५), (धर्मपरीक्षा / २० / ११-२०) (म विधान से / १२) । रोहित-१ हैमवत क्षेत्रकी प्रधान मी० लोक /२/११ २. हेमन्त क्षेत्र में स्थित एक कुण्ड जिससे कि रोहित नदी ३-३० लोक /३/१०, ३. महाहिमबाद पतस्थ एक फूट-दे० लोक ७ । ४. रोहित कुण्डकी स्वामिनी देवी-दे० लोक१/४११. रोहि फुटकी स्वामिनी देवी-दे० लोक/२/४। - रोहितास्या - १. हैमवत क्षेत्रकी प्रधाननदी -- दे०लोक/३/११ हैमवत क्षेत्र में स्थित एक कुण्ड जिसमे रोहितास्या नही निकलती हैदे० लोक / २ / १०२. हिमवान् पर्वतस्य एक कूट-३० लोक /५/४१ ३. रोहितास्या कूटकी स्वामिनी देवी-दे० लोक /५/४ । रौद्रध्यान - हिंसा आदि पर कार्य करके गर्वपूर्वक ढोगे मारते रहने का भाव रौद्रध्यान कहलाता है। यह अत्यन्त अनिष्टकारी है । दीनाधिक रूप से पंचम गुणस्थान तक ही होना सम्भव है, आगे नहीं। १. रौद्र सामान्य का लक्षण भ.आ./ / १००३/१५२८ मिससारवणे तह चेन अबिहार मे । रु कंसासहिय काणं भणियं समासे । १७०३० - दूसरेके द्रव्य लेनेका अभिप्राय, झूठ बोलने में आनन्द मानना, दूसरेके मारनेका अभिप्राय, सहकायके जीवोकी विराधना अथवा असिमस आदि परिग्रहके आरम्भ व संग्रह करनेमें आनन्द मानना इनमें जो कषाय Jain Education International रौद्रध्यान सहित मनको करना वह सक्षेप से रौद्रध्यान कहा गया है | १७०३ | (मू आ. / ३६६ ) | 100 स.सि./६/२८/४४५/१० रुद्र क्रूराशयस्तस्य कर्म तत्र भवं वा रौद्रम् । - रुद्रका अर्थ क्रूर आशय है, इसका कर्म या इसमें होनेवाला (भाव) रौद्र है ( रा मा ६/२८/५/६२०/२८) (/२६/२) (भा पाटी/ ७८/२२६/१७) । 1 - म. / २९ / ४२ प्रानि रोनासनेषु निमास्त भगं रोड विद्धि ध्यान चतुर्विधम् ॥४२॥ जो पुरुष प्राणियोको जाता है वह रुद्र क्रूर अथवा सब जीवोमे निर्दय कहलाता है ऐसे पुरुषमें जो ध्यान होता है उसे रौद्रध्यान कहते है ।४२। (भ.आ./ वि. / १७०२ / १५३० पर उद्धृत) । चा. सा./१००/२ स्वसवेद्यमाध्यामिर्क (ध्यान) जिसे अपना हो आत्मा जान सके उसे आध्यात्मिक ध्यान कहते है। नि. सा./ता.वृ / वह चौरजारशात्रवजनवधवघनसन्निबद्धमहद द्वेषजनित रौद्रध्यानम् । = चोर-जार शत्रुजनो के बध-बन्धन सम्बन्धी महाद्वेष से उत्पन्न होनेवाला जो रौद्रध्यान । २. रौद्रध्यानके भेद त. सू./१/३५ हिंसानृतस्तेय विषयसरक्षणेभ्यो रोद्रम्... १३५ = हिसा असत्य, चोरी और विषय संरक्षण के लिए सतत चिन्तन करना रौद्रध्यान है । ३५| म. २२/४० हिम्मानन्दषामन्द स्तेय सरक्षण [त्मक ४३- हिंसानन्द मृषानन्द, स्तेयानन्द और संरक्षणानन्द अर्थात् परिग्रहकी रक्षामें रात-दिन लगा रहकर आनन्द मानना ये रौद्रध्यानके चार भेद है १३५॥ ( चा. सा./१७०/२); ( ज्ञा./२६/३ ); ( का अ. / ४७३-४७४) । चा. सा./१००/१ रोप माध्यामिकभेदेन द्विविधम्-रोध्यान भी बाह्य और आध्यात्मिकके भेदसे दो प्रकारका है 1 ३. रौद्र ध्यानके भेदोंके लक्षण पा. सा./१००/२] तीनकषायानुरंजन हिसानन्दं प्रथम स्वबुद्धिविकपितयुक्तिभि परेषा अधेवरूपाभि परयञ्चनं प्रति मृषाकथने संकल्पाध्यवसान गुमानयं द्वितीय हठात्कारेण प्रमादमी या वा परस्यापहरणं प्रति संकल्पध्यवसानं तृतीय चेतनाचेतन स्वपरिग्रह ममेवेद स्वमहमेवास्य स्वामीत्यभिनिवेशातउपहार व्यापादनेन संरक्षण प्रति सकम्याध्यवसान संरक्षणानन्दं चतुर्थं रौद्रम् । =तीव्रकषायके उदयसे हिंसामे आनन्द मानना पहला रौद्रध्यान है। जिन पर दूसरोको श्रद्धा न हो सके ऐसी अपनी बुद्धिके द्वारा पना की हुई मुक्तियोंके द्वारा दूसरोको ठगनेके लिए झूठ बोलनेके संकल्पका बार-बार चिन्तवन करना गृपानन्द ध्यान है जबरदस्ती अथमा प्रमादकी प्रतीक्षापूर्वक दूसरेके धनको हरण करनेके सकल्पका बार-बार चिन्तवन करना तीसरा रौद्रध्यान है । चेतन-अचेतनरूप अपने परिग्रहमें यह मेरा परिग्रह है, मै इसका स्वामी हूँ, इस प्रकार ममत्व रखकर उसके अपहरण करने वाले का नाश कर उसकी रक्षा करनेके संकल्पका बार-बार चिन्तवन करना विषय सरक्षणानन्द नामका चौथा रौद्रध्यान है । 1 का ४०५४०६ देश जुदो असम-वयमेण परिगयो जो हु तत्येव अरि-चित्तोस काण हवे तस्स ॥ ४०५० पर- दिसय-हरणसीतोसगीय विसए सुरक्खणे दुक्खो । तग्गय- चिताविट्ठो णिर तर तंपि रुद्दपि ।४७६। जो हिसामे आनन्द मानता है, और असत्य बोलने में आनन्द मानता है तथा उसीमे जिसका चित्त विक्षिप्त रहता है. उसके रौद्रयान होता है ४० जो पुरुष विषयसामग्रीको हरनेका स्वभाव वाला है, और अपनी विषय जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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