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रौद्रध्यान
रौद्रध्यान
सामग्रीकी रक्षा करने में चतुर है, तथा निरन्तर जिसका चित्त इन कामो में लगा रहता है वह भी रौद्रध्यानी है। ज्ञा /२६/४-३४ का भावार्थ-हते निष्पीडिते ध्वस्ते जन्तुजाते कदर्थिते । स्वेन चान्येन यो हर्षस्तद्धिसारौद्रमुच्यते।४। असत्यकल्पनाजालकश्मलीकृतमानस' । चेष्टते यजनस्तद्धि मृषारोद्रं प्रकीर्तितम् ।१६। यशौर्याय शरीरिणामहरह श्चिन्ता समुत्पद्यते-कृत्वा चौर्यमपि प्रमोदमतुल कुर्वन्ति यत्संततम् । चौर्येणापि हृते पर. परधने यज्जायते सभ्रम-स्तच्चौर्यप्रभव बदन्ति निपुणा रौद्र सुनिन्दास्पदम् ।२॥ बहारम्भपरिग्रहेषु नियतं रक्षार्थमभ्युद्यते-यत्संकल्प परम्परा वितनुते प्राणीह रौद्राशय । यच्चालम्ब्य महत्त्वमुन्नतमना राजेत्यई मन्यते-तत्तुर्य प्रवदन्ति निमलधियो रौद्र' भवाश सिनाम १२६-१. जीबोके समूहको अपनेसे तथा अन्य के द्वारा मारे जाने पर तथा पीडित किये जाने पर तथा ध्वंस करने पर और घात करने के सम्बन्ध मिलाये जाने पर जो हर्ष माना जाये उसे हिसानन्दनामा रौद्रध्यान कहते है।४। बलि आदि देकर यशलाभका चिन्तवन करना ७ जीवोको खण्ड करने व दग्ध करने आदिको देखकर खुश होना ।। युद्ध में हार-जीत सम्बन्धी भावना करना ।१०। वैरीसे बदला लेनेकी भावना ।११। परलोकमे बदला लेनेकी भावना करना ।१२। हिसानन्दी रौद्रध्यान है। (म.पू./२१/१५)। २. जो मनुष्य असत्य झूठी कल्पनाओके समूहसे पापरूपी भैलसे मलिनचित्त होकर जो कुछ चेष्टा करै उसे निश्चय करके मृषानन्द नामा रौद्रध्यान कहा है।१६। जो ठगाईके शास्त्र रचने आदिके द्वारा दूसरोको आपदामे डालकर धन आदि सचय करे ।१७-१६। असत्य बोलकर अपने शत्रुको दण्ड दिलाये ।२०। वचन चातुर्यसे मनवांछित प्रयोजनोकी सिद्धि तथा अन्य व्यक्तियोको ठगनेकी १२१-२२। भावनाएं बनाय रखना मृषानन्दी रौद्रध्यान है। ३ जीवोके चौर्यकर्म के लिए निरन्तर चिन्ता उत्पन्न हो तथा चोरी कर्म करके भी निरन्तर अतुल हर्ष मानें आनन्दित हो अन्य कोई चोरीके द्वारा परधनको हरै उसमें हर्ष मानै उसे निपुण पुरुष चौर्यकर्मसे उत्पन्न हुआ रौद्रध्यान कहते है, यह ध्यान अतिशय निन्दाका कारण है ।२५॥ अमुक स्थानमे बहुत धन है जिसे मै तुरत हरण करके लाने में समर्थ हूँ।२६। दूसरोके द्वीपादि सबको मेरे ही आधीन समझो, क्योकि मैं जब चाहूँ उनको शरण करके जा सकता हूँ ।२७-२८ इत्यादि रूपचिन्तन चौर्यानन्द रौद्रध्यान है। ४. यह प्राणी रौद्र (क्रूर ) चित्त होकर बहुत आरम्भ परिग्रहोमे रक्षार्थ नियमसे उद्यम रै और उसमें ही सकल्पकी परम्पराको विस्तार तथा रौद्रचित्त होकर ही महत्ताका अवलम्बन करके उन्नतचित्त हो, ऐसा मानै कि मै राजा हूँ, ऐसे परिणामको निर्मल बुद्धिवाले महापुरुष ससारको वाधा करने वाले जीवोके चौथा रौद्रध्यान है ।२६। मै बाहुबलसे सैन्यबलसे सम्पूर्ण पुर ग्रामोको दग्ध करके असाध्य ऐश्वर्यको प्राप्त कर सकता हूँ।३०॥ मेरे धन पर दृष्टि रखने वालोको मै क्षण भरमे दग्ध कर दूंगा'।३१॥ मैने यह राज्य शत्रु के मस्तक पर पॉव रखकर उसके दुर्ग में प्रवेश करके पाया है ।३३। इसके अतिरिक्त जल, अग्नि, सर्प, विषादिके प्रयोगो द्वारा भी मै समस्त शत्रु-समूहको नाश करके अपना प्रताप स्फुरायमान कर सकता हूँ।३४। इस प्रकार चिन्तवन करना विषय संरक्षणानन्द है।
भुवि ॥५२॥ बाह्यन्तु लिङ्गमस्याहु. 5भड्ग मुख विक्रियाम् । प्रस्वेद मङ्गकम्प च नेत्रयोश्चातिताम्रताय ।१३ - क्रूर होना, हिसाके उपकरण तलवार आदिको धारण करना, हिसाकी ही कथा करना,
और स्वभावसे ही हिंसक होना ये हिसानन्द रौद्रध्यानके चिह्न माने गये है।४। कठोर बचन आदि बोलना द्वितीय रौद्रध्यानके चिह्न है ।५०। स्तेयानन्द और संरक्षणानन्द रौद्रध्यान के बाह्यचिह ससारमें प्रसिद्ध है ।२। भौह टेढी हो जाना, मुखका विकृत हो जाना, पसीना आने लगना, शरीर कँपने लगना और नेत्रोंका अतिशय लाल हो जाना आदि रौद्रध्यानके बाह्यचिह्न है ।५३। (ज्ञा./२६/३७-३८)। चा, सा /१७०/१ परानुमेय परुषनिष्ठुराकोशननिर्भर्त्सनबन्धनतर्जनताडनपीडनपरदारातिक्रमणादिलक्षणम् । -कठोर बचन, मर्मभेदी वचन, आक्रोश वचन, तिरस्कार करना, बाँधना, तर्जन करना, ताडन करना तथा परस्त्रीपर अतिक्रमण करना आदि बाह्य रौद्रध्यान कहलाता है। ज्ञा./२६/-१५ अनारतं निष्करुणस्वभाव' स्वभावत क्रोधक्षायदीप्त । मदोद्धत' पापमति. कुशील स्यान्नास्तिको य. स हि रौद्रधामा । अभिलषति नितान्तं यत्परस्यापकार, व्यसनविशिखभिन्नं वीक्ष्य यत्तोषमेति। यदिह गुणगरिष्ठ द्वेष्टि दृष्ट्वान्यभूति, भवति हृदि सशस्यस्तद्धि रौद्रस्य लिङ्गम् ।१३। हिसोपकरणादान क्रूरसत्त्वेष्वनुग्रहम् । निस्त्रिशतादिलिङ्गानि रौद्र बाह्यानि देहिन ।१५। - जो पुरुष निरन्तर निर्दय स्वभाववाला हो, तथा स्वभावसे ही क्रोध कषायसे प्रज्वलित हो तथा मदसे उद्धत हो, जिसकी बुद्धि पाप रूप हो, तथा कुशीला हो, व्यभिचारी हो, नास्तिक हो बह रौद्रध्यानका घर है ।। (ज्ञा /२६/६)। जो अन्यका बुरा 'चाहे तथा परको कष्ट आपदारूप बाणोसे भेदा हुआ दुखी देखकर सन्तुष्ट हो तथा गुणोसे गरुवा देखकर अथवा अन्यके सम्पदा देखकर ष रूप हो, अपने हृदयमें शल्य सहित हो सो निश्चय करके रौद्रध्यानका चिह्न है ।१३। हिसाके उपकरण शस्त्रादिकका संग्रह करना, क्रूर जीवोका अनुग्रह करना और निर्दयतादिकभाव रौद्रध्यानके देहधारियोके बाह्यचिह्न है ।१३
५. रौद्रध्यानमें सम्मव माव व लेश्या म.पु /२१/४४ प्रकृष्टतरदुर्लेश्यायोपोबलवृहितम् । अन्तर्मुहर्त कालोत्थं
पूर्वबद्भाव इष्यते।४४। (परोक्षज्ञानत्वादौदयिकभाव वा भावलेश्याकषायप्राधान्यात् । चा. सा.)। - यह रौद्रध्यान अत्यन्त अशुभ है, कृष्ण आदि तीन खोटी लेश्याओके बलसे उत्पन्न होता है। अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है और पहले आर्तध्यानके समान इसका क्षायोपशमिक भाव होता है ।४४ा (ज्ञा./२६/३६,३६)। अथवा भाव लेश्या और कषायोकी प्रधानता होनेसे औदयिक भाव है। (चा मा./१७०/५)।
* रौद्रध्यानका फल-दे० आत/२ ।
४. रौद्रध्यानके बाह्यचिह्न
६. रौद्ध्यानमें सम्भव गुणस्थान त. सू./६/२५ रौद्रमविरतदेश विरतयो ।३। वह रौद्रध्यान अविरत
और देशविस्तके होता है। म. पु./२१/४३ षष्ठात्तु तदगुणस्थानात प्राक् पञ्च गुण भूमिकम् । यह ध्यान छठवे गुणस्थानके पहले-पहले पाँच गुणस्थानोमे होता है । (चा सा./१७१/१), (ज्ञा./२६/३६)। द्र स/टो./४८/२०१/१ रौद्रध्यान. तारतम्येन मिध्यादृष्टयादिपञ्चमगुणस्थानतिजीवसंभवम् । =यह रौद्रध्यान मिथ्याष्टिसे पचम गुणस्थान तकके जीवोके तारतमतासे होता है।
म.पू./२१/४१-५३ अनानृशस्य हिसीपकरणादानतरकथा । निसर्ग- हिंस्रता चेति लिहान्यस्य स्मृतानि वै।४। बाक्पारुष्यादिलिड्ग तद द्वितीय रौद्रमिष्यते ।। • प्रतीतलिङ्गमैवैतद रौद्रध्यानद्वयं
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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