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लब्धि
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२. उपशम सम्यक्त्व सम्बन्धी पंचलब्धि निर्देश
य ३२
की वृद्धि करता
गकर पूर्व या वृद्धि करता प्रथमोपशम
भागमात्र
लब्धि होती है। और घातिया कर्मके क्षयसे परमात्माके केवल- ४. प्रायोग्यलब्धिका स्वरूप ज्ञानादिरूप उत्कृष्ट क्षायिक लब्धि होती है :१६६। (क्षयोपशम
ध. ६/१,६-८,३/२०४/६ सम्बकम्माणमुक्कसहिदिमुक्कस्साणुभाग च लब्धिका लक्षण-दे० लब्धि/२)।
घादिय अंतोकोडाकोडीट्ठिदिम्हि वेढाणाणुभागे च अवठ्ठाण ३. नव केवललब्धिका नाम निर्देश
पाओग्गलद्धी णाम । -सर्व काकी उत्कृष्ट स्थिति और उत्कृष्ट ध, १/१,१,१/गा. ५८/६४ दाणे लाभे भोगे परिभोगे वीरिए य सम्मत्ते।। अनुभागको घात करके अन्त'कोडाकोडी स्थितिमें, और द्विस्थानीय णव केवल-लद्धीओ दसण-णाणं चरित्ते य ५८ दान, लाभ, भोग,
अनुभागमें अवस्थान करनेको प्रायोग्यलब्धि कहते है। (ल. सा./ परिभोग, वीर्य, सम्यक्त्व, दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये नव केवल- म् /७/४५)। लब्धियाँ समझना चाहिए।१८। (वसु. श्रा/५२७), (ज. प /१३/ ल. सा/मू./९-३२/४७-६८ सम्मत्तहिमहमिच्छो विसोहिवढीहि १३१-१३५), (गो. जो./जी. प्र/६३/१६४/६)।
बहमाणो हु। अंतोकोडाको डि सत्तण्हं बंधणं कुणई ।। अंतो
कोडाकोडीठिदं अमत्थाण सस्थणाणं च । बिचउठाणरसं च य २. उपशम सम्यक्त्व सम्बन्धी पंचलब्धि निर्देश
बधाणं बधणं कुणइ २४ा मिच्छणथीणति सुरचउ समवज्जपसत्थ
गमणसुभगतिय । णीचुक्कस्सपदेसमणुकस्स वा पबंधदि हु ।२५॥ 1. पंधलब्धि निर्देश
एकठि पमाणाणमणुक्कस्सपदेसं बधणं कुणई ।२६। उदइल्लाणं उदये नि. सा./ता. वृ./०५६ लब्धि कालकरणोपदेशोपशमप्रायोग्यताभेदात्
पत्ते कठिदिस्सवेदगो होदि। विचउठाणमसत्थे सत्थे उदयल्लरस पञ्चधा । == लब्धि काल, करण, उपदेश, उपशम और प्रायोग्यतारूप
भुत्ती २६। अजहण्णमणुकस्सप्पदेसमणुभवदि सोदयाण तु । उदयिभेदोके कारण पाँच प्रकारकी है।
ल्लाणं पयडिचउक्कण्णमुदीरगो होदि ।३०। अजहण्णमणुकस्सं ठिदीध ६/१,६-८,३/गा. १/२०४ खयउवसमियविसोही देसाणपाउग्गकरण
तियं होदि सत्तपयडीणं । एवं पयडिचउक्क बंधादिसु होदि लद्धी य । चत्तारि वि सामण्णा करणं पुण होइ सम्मत्ते ।। -क्षयोप
पत्तेय ।३२। -१ स्थितिबन्ध-प्रथमोपशम सम्यक्त्व के सम्मुख शम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्यता और करण ये पाँच लब्धि है।
जीव विशुद्धताकी वृद्धि करता हुआ प्रायोग्य लब्धिका प्रथमसे
लगाकर पूर्व स्थिति बन्धके संख्यातवे भागमात्र अन्त कोटाकोटी (ल. सा /मू /३/४४), (गो. जी /मू./६६१/११००)।
सागर प्रमाण आयु बिना सात कर्मोंका स्थितिबन्ध करता है ।। २. क्षयोपशमलब्धिका लक्षण
२ अनुभागबन्ध-अप्रशस्त प्रकृतियोका द्विस्थानीय अनुभाग
प्रतिसमय-समय अनन्तगुणा घटता बाँधता है और प्रशस्त प्रकृध,७/२,१,४५/७/३ णाणस्स विणासो खओ णाम, तस्स उवसमो एग
तियोका चतुस्थानीय अनुभाग प्रतिसमय-समय अनन्तगुणा देसक्रवओ, तस्स खओवसमसण्णा। तत्थ णाणमण्णाणं वा उप्प- बढता बॉधता है ।२४। ३. प्रदेशबन्ध-मिथ्यात्व, अमन्तानुबन्धी ज्जदि त्ति खओवस मिया लद्धी वुच्चदे।
चतुष्क, स्त्यानगृद्वि त्रिक, देवचतुष्क, वज्रऋषभ नाराच, ध.७/२,१,७१/१०८/७ उदयमागदाणमइदहरदेसघादित्तणेण उवसंताणं प्रशस्तविहायोगति सुभगादि तीन, ब नीचगोत्र। इन २६ प्रकृ
जेण खओवसमसण्णा अस्थि तेण तत्थुप्पण्णजीवपरिणामो व ओव- तियोंका उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है । महादण्डकमें कहीं समलद्धीसण्णिदो । -१, ज्ञानके विनाशका नाम क्षय है। उस ६१ प्रकृतियोका अनुत्कृष्ट प्रदेशबन्ध करता है ।२५-२६। ४. उदय क्षयका उपशम हुआ एकदेश क्षय। इस प्रकार ज्ञानके एकदेशीय उदीरणा-उदयवान् प्रकृतियोका उदयकी अपेक्षा एक स्थिति जो क्षयकी क्षयोपशम सज्ञा मानी जा सकती है। ऐसा क्षयोपशम होने उदयको प्राप्त हुआ एक निषेध. उसहीका भोक्ता होता है। पर जो ज्ञान या अज्ञान उत्पन्न होता है उसीको क्षायोपशमिक अप्रशस्त प्रकृतियोका द्विस्थानरूप और प्रशस्त प्रकृतियोके लब्धि कहते है। २ उदयमे आये हुए तथा अत्यन्त अल्प देश- चतुस्थानरूप अनुभागका भोक्ता होता है ।२६। उदय प्रकृतियोका घातिरवके रूपसे उपशान्त हुए सम्यक्त्व मोहनीय प्रकृतिके देश- अजघन्य वा अनुत्कृष्ट प्रदेशको भोगता है। जो प्रकृति, प्रदेश, धाती स्पर्धकोका कि क्षयोपशम नाम दिया गया है, इसलिए स्थिति और अनुभाग उदयरूप हो उन्हींकी उदीरणा करने वाला उस क्षयोपशमसे उत्पन्न जीव परिणामको क्षयोपशमलब्धि होता है।३०। ५. सत्त्व-सत्तारूप प्रकृतियोका स्थिति, अनुभाग, कहते है।
प्रदेश अजघन्य अनुत्कृष्ट है । ६. ऐसे प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, ध ६/१,६-८,३/२०४/३ पुव्वसचिदकम्ममलपडलस्स अणुभागफदयाणि प्रदेशरूप चतुष्क है सो बन्ध, उदय उदीरणा सत्त्व इन सबमें जदा विसोहीए पडिसमयमणं तगुणहोणाणि होणुदीरिजति तदा कहा । यह क्रम प्रायोग्यल ब्धिके अन्त पर्यन्त जानना ।१२। खओवसमलद्धी होदि । -पूर्वसचित कर्मोंके मलरूप पटल के अनुभाग स्पर्धक जिस समय विशुद्धिके द्वारा प्रतिसमय अनन्तगुण
.. सम्यक्त्वकी प्राप्तिमें पंच लब्धिका स्थान हीन होते हुए उदीरणाको प्राप्त किये जाते है उस समय क्षयोपशम - पं वि/४/१२ लब्धिपञ्चकसामग्रीविशेषात्पात्रता गत । भव्य' सम्यलब्धि होती है । (ल. सा./मू /४/४३) ।
ग्दगादीना य स मुक्तिपथे स्थितः ।१२। जो भव्यजीव पाँच ३. विशुद्धिलब्धिका लक्षण
लब्धिरूप विशेष सामग्रीसे सम्यदर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप रत्नत्रय
को धारण करनेके योग्य बन चुका है वह मोक्षमार्गमे स्थित हो ध.६/१,६-८,३/२०४/५ पडिसमयमणं तगुणहीणकमेण उदीरिद-अणु
गया है ।१२। भागफद्दयजणिदजीवपरिणामो सादादिसुहकम्मबंधणि मित्तो असा
गो जी./जी.प्र./६५१/११००/८ पञ्च लब्ध्यः उपशमसम्यक्त्वे भवन्ति । दादि असुहकम्मबधविरुद्धो विसोही णाम । तिस्से उबलभो विसोहि
-पॉचो लब्धि उपशम सम्यक्त्व के ग्रहण में होती है। (और भी लद्धी णाम। -प्रतिसमय अनन्तगुणितहीन क्रमसे उदीरित अनु- दे० सम्यग्दर्शन/IV/२/E)। भाग स्पर्धकोसे उत्पन्न हुआ, साता आदि शुभ कर्मों के बन्धका निमित्त भ्रत और असाता आदि अशुभ कर्मोके बन्धका विरोधी
६. पाँचों में करणलब्धिकी प्रधानता जो जीव परिणाम है, उसे विशुद्धि कहते है। उसकी प्राप्तिका नामध. ६/१,६-८.३/गा. १/२०५ चत्तारि वि (तद्धि) सामण्णं करणं पुण विशुद्धिलब्धि है। (ल सा /मू./५/४४)।
होइ सम्मत्ते ।। - इन (पाँचो) मे से पहली चार तो सामान्य
जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश
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